मनोरंजन की दुनिया यानि चकाचौंध। मनोरंजन यानि एनर्टैन्मन्ट। आम लोगों के लिए मनोरंजन की दुनिया अक्सर इन्हीं दो पंक्तियों में सिमट जाती है। लेकिन, सिनेमा किसी भी सामाजिक मुद्दे को दिखाने या लोगों के अवधारणा को विकसित करने का एक सशक्त माध्यम है। जिन्हें महज कहानियां बताकर जनता के सामने परोसा जाता है, वह लोगों को कैसे और कितना प्रभावित करेगी यह बताना मुश्किल है। अक्सर यह कहा जाता है कि पिछले कुछ वर्षों में बॉलीवुड में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं, जो सामाजिक मानदंडों और धारणाओं के उलट कहानियां दिखा रहे हैं। आसान भाषा में कहें तो हमारा बॉलीवूड आज प्रगतिशील कहानियां दिखा रहा है। यह सच है कि आज हम कई संवेदनशील फिल्में देख रहे हैं। अच्छी कहानियां और कैरकटर देख रहे हैं। लेकिन फिल्मों को वाकई प्रगतिशील तभी कहा जा सकता है, जब यह समाज के हाशिये के समुदाय और जेंडर जैसे सभी समूहों पर अच्छी कहानियों को दिखाए। फिल्मों में उनका भी प्रतिनिधित्व हो।
महिलाओं के अधिकार की बात हो, या गरीब और किसानों की, हमारी फिल्मों ने महत्वपूर्ण बदलाव की शुरुआत जरूर की है। एक और पहलू जिसने उल्लेखनीय विकास देखा है, वह है फिल्मों में विकलांगता का चित्रण। लेकिन विकलांगता पर बनी फिल्में या फिल्मों में दिखाए जाने वाले विकलांग कैरकटर को देखकर समझ आता है कि विकलांग लोगों के विषय में आज भी संवेदनशीलता और जागरूकता की भारी कमी है। याद कीजिए उन फिल्मों को जहां किसी व्यक्ति को दिखाई न देने के कारण वह विलन का किरदार निभाता था, या फिर मजाक के तौर पर कहा गया वेलकम फिल्म का डायलॉग कि मेरी एक टांग निकली है, मैं हॉकी का बहुत बड़ा खिलाड़ी था…।
‘कोई मिल गया’ में विकलांगता को क़ाबू करते हुए दिखाया गया है जबकि हमारी असल चुनौति एबेलिस्म यानि समर्थवाद है। हमें इसपर काबू पाना है कि समाज हमें कैसे देखता है और हमारे लिए किस तरह की चुनौतियां खड़ी करता है।
फिल्मों में विकलांगता के चित्रण पर प्रोडकशन कंपनी ‘मच मच मीडिया’ और ‘मच मच स्पेक्ट्रम’ की संस्थापक अदिति गंगराडे बताती हैं, “फिल्मों में काफी समय से ‘डेफ ब्लाइन्ड म्यूट ट्रोप’ चला आ रहा है। जैसे, क्रेजी-4, गोलमाल की सीरीज, हाउस्फुल-3 और आँख-मिचौली जैसी कई फिल्में हैं, जहां तीन या चार विकलांग व्यक्तियों के समस्याओं को हास्यात्मक तरीके से दिखाया जाता है। यहां ऐसे लोगों की असल चुनौतियों को नहीं दिखाया जाता।”
विकलांगता को ट्रोप की तरह इस्तेमाल कर रहा है बॉलीवुड
ये ट्रोप क्या है और किस तरह से इस्तेमाल हो रहे हैं, इसपर क्रॉस द हर्डल्स की संस्थापक और विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता आभा खेत्रपाल बताती हैं, “विकलांगता को ओवर्कम करते हुए दिखाया जाता है। या विकलांग व्यक्ति के लिए दया और सहानुभूति दिखाई जाती है, जिसकी जरूरत नहीं है। विकलांगता पर अगर सचमुच समाज को संवेदनशील बनाना है, तो हमें तरस का ऐंगल नहीं, मानवीय ऐंगल दिखाए जाने की जरूरत है।”
वहीं अदिति बताती हैं, “फिल्मों में अक्सर ऐसा होता है कि अगर आप विकलांग हैं, तो इसका मतलब है कि जीवन खत्म हो चुका है। उनके जीवन में मजा नहीं होगा या वे प्यार और शादी नहीं कर सकते हैं या उनकी सेक्स लाइफ नहीं हो सकती है। जैसे, शोले में ठाकुर को मारने के बजाय उसके हाथ काट दिए जाते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि मौत से भी बदतर विकलांग होना है। है। जैसे, ‘कोई मिल गया’ में विकलांगता को क़ाबू करते हुए दिखाया गया है जबकि हमारी असल चुनौति एबेलिस्म यानि समर्थवाद है। हमें इसपर काबू पाना है कि समाज हमें कैसे देखता है और हमारे लिए किस तरह की चुनौतियां खड़ी करता है। वहीं फिल्मों में विकलांगता को हॉरर के रूप में भी दिखाया जाता है।”
फिल्मों में अक्सर ऐसा होता है कि अगर आप विकलांग हैं, तो इसका मतलब है कि जीवन खत्म हो चुका है। उनके जीवन में मजा नहीं होगा या वे प्यार और शादी नहीं कर सकते हैं या उनकी सेक्स लाइफ नहीं हो सकती है।
ओवर अचीवर या डराने के लिए कहानियों में इस्तेमाल
पिछले साल रिलीज हुई शॉर्ट फिल्म लार में मानसिक समस्याओं से जूझ रहे व्यक्ति को दिखाया जाता है कि वह लोगों और औरतों को मारता व हानि पहुँचाता है, जबकि कहीं भी यह बात नहीं होती कि उसकी चुनौतियां क्या हैं, उसकी कहानी क्या है। अदिति बताती हैं, “ऐसी फिल्में बनाने वालों की यह धारणा है कि विलन के रूप या डरावने अवतार में विकलांगता का इस्तेमाल कर सकते हैं। बहुत कम फ़िल्में विकलांग व्यक्ति के नजरिए से बात करती हैं। कई बार विकलांग व्यक्ति की कहानियों को प्रेरणा के रूप में भी दिखाया जाता है जो भी समस्याजनक है। समाज में अपनाए जाने के लिए विकलांग व्यक्तियों को बाक़ी लोगों के मुक़ाबले अत्यधिक उपलब्धि हासिल करने वाला दिखाया जाता है।”
यह जरूरी है कि भाषा आपत्तिजनक न हो। जैसे फिल्म ज़ीरो में छोटे कद के व्यक्ति के लिए ‘वर्टीकली चैलेंज्ड’ कहा जाता है, जो बिल्कुल असंसवेदनशील और गलत है। अक्सर ऐसी भाषा सुनकर लोग भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं।
बॉलीवुड में भाषा और कंटेन्ट की समस्या
अक्सर सिनेमा में विकलांग लोगों के लिए संवेदनशील भाषा का भी इस्तेमाल नहीं किया जाता। इस विषय में आभा बताती हैं, “यह जरूरी है कि भाषा आपत्तिजनक न हो। जैसे फिल्म ज़ीरो में छोटे कद के व्यक्ति के लिए ‘वर्टीकली चैलेंज्ड’ कहा जाता है, जो बिल्कुल असंवेदनशील और गलत है। अक्सर ऐसी भाषा सुनकर लोग भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं।” इसी तरह जब फिल्मों में विकलांग लोगों के लिए किसी और किरदार को केयर गिवर के तौर पर दिखाया जाता है, तो यह बताया जाता है कि विकलांग व्यक्ति खुद कुछ नहीं कर सकते। इस विषय पर आभा कहती हैं, “बॉलीवुड में विकलांग व्यक्ति के पीछे किसी दूसरे को उसका केयर गिवर बना देते हैं। किसी का हाथ कट गया है, तो दूसरे को भी अपना हाथ काटना होगा। यह मानसिकता समस्याजनक है। विकलांग व्यक्ति के साथ रहने के लिए आपको त्याग करते रहने की जरूरत नहीं है।”
विकलांग लोगों के चित्रण में जेंडर कितनी अहम भूमिका निभाती है, इसपर वह कहती हैं, “हमें हमारी फिल्मों में जेन्डर रोल रीवर्सल की भी जरूरत है। जैसे, अगर घर में पुरुष (जोकि अक्सर कमाने वाला होता है), विकलांग है और बाहर नहीं जा सकता, तो वह घर के काम कर सकता है। फिल्मों में ‘सेल्फ अक्सेप्टन्स’ का संदेश निकलकर आना चाहिए। साथ ही ‘एक्वाएर्ड और निउली फाउंड डिसबिलिटी’ पर भी बात होनी चाहिए।”
विकलांगता को ओवर्कम करते हुए दिखाया जाता है। या विकलांग व्यक्ति के लिए दया और सहानुभूति दिखाई जाती है, जिसकी जरूरत नहीं है। विकलांगता पर अगर सचमुच समाज को संवेदनशील बनाना है, तो हमें तरस का ऐंगल नहीं, मानवीय ऐंगल दिखाए जाने की जरूरत है।
क्या समाज सचमुच संवेदनशील है
बॉलीवुड हमें समाज से जोड़ता और समाज से कहानियां लेता है। इसलिए, यह देखना जरूरी है कि क्या समाज का प्रतिनिधित्व कर रहा बॉलीवुड संवेदनशील है या नहीं। विकलांगता एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसे भारत में आज भी गलत समझा जाता है। इस विषय पर अदिति बताती हैं, “लोग विकलांगता पर बात करने में झिझकते हैं क्योंकि विकलांग लोगों के खुलकर बाहर आने पर, उन्हें डर रहता है कि समाज में उन्हें जगह नहीं दी जाएगी। जिन लोगों के बच्चों को ऑटिज़म या कोई विकलांगता है, उन माँ-बाप को डर रहता है कि बच्चे की कंडिशन का पता लगते ही स्कूल से निकाल दिया जाएगा, जो कि एक तरह से सच है। ऐसे में और भी ज्यादा अलग-थलग हो जाने का डर रहता है।”
वास्तविक जीवन और मनोरंजन के बीच बॉलीवुड लोगों का मनोरंजन करने, उन्हें शिक्षित करने और उनकी प्रथाओं और दृष्टिकोण में व्यवहारिक बदलाव लाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में काम कर सकता है। दुनिया भर में बॉलीवुड की पहुंच को देखते हुए, यह लोगों की धारणा को बदलने और सामाजिक रूढ़िवादिता को खत्म करने में विशेष रूप से प्रभावी बन सकता है।
“हमें हमारी फिल्मों में जेन्डर रोल रीवर्सल की भी जरूरत है। जैसे, अगर घर में पुरुष (जोकि अक्सर कमाने वाला होता है), विकलांग है और बाहर नहीं जा सकता, तो वह घर के काम कर सकता है। फिल्मों में सेल्फ अक्सेप्टन्स का संदेश निकलकर आना चाहिए। साथ ही एक्वाएर्ड और निउली फाउंड डिसबिलिटी पर भी बात होनी चाहिए।”
असल में विकलांगता समस्या नहीं। समस्या ये है कि हम इसे कैसे देखते हैं या देखना चाहते हैं। विकलांग लोगों की सभी जगहों और संसाधनों तक पहुंच के लिए सार्वजनिक जगहों समेत सभी चीजों का ऐक्सेसबल होना जरूरी है। अदिति बताती हैं, “चूँकि लोग विकलांगता को असमर्थयता से जोड़ा जाता है, वे विकलांग लोगों को फिल्में बनाने के काबिल ही नहीं समझते। मैं ऑटिस्टिक एडीएचडी लेखक और निर्देशक हूँ और अपनी फ़िल्मों और डिजिटल कंटेंट के ज़रिए फ़िल्मी दुनिया में ये बदलाव लाने की कोशिश कर रही हूं।” यह हमारी सोशल कन्डिशनिंग ही है जिसके कारण हम विकलांग व्यक्ति को निश्चित दायरे में देखते हैं, जहां उनके जीवन में शिक्षा और काम से लेकर यौनिक संबंध सब कुछ हम खुद तय करना चाहते हैं। इसलिए, असल जीवन में ही नहीं, फिल्मों में भी कहानियों के नाम पर असंवेदनशील किरदार, भाषा या मजाक को बंद करने की जरूरत है।