इंटरसेक्शनलजाति बाबा साहेब आंबेडकर और फूले दंपत्ति का जीवन है ‘आदर्श प्रेम’ का उदाहरण

बाबा साहेब आंबेडकर और फूले दंपत्ति का जीवन है ‘आदर्श प्रेम’ का उदाहरण

डॉक्टर बाबा साहेब आंबेडकर और फूले दंपत्ति ने अपने राजनीतिक संघर्ष और व्यक्तिगत जीवन से प्रेम का कैसा रूप उन्होंने समाज को दिया? आज के परिदृश्य में जब लोग प्रेम को लेकर एकदम आशाहीन हैं और उसके महत्व को नकारते हैं ऐसे में प्रेम के बेहतरीन उदाहरण सकारात्मक ऊर्जा के लिए जरूरी हो जाते हैं।

नारीवादी लेखिका बेल हुक्स कहती हैं, “प्रेम के प्रति प्रतिबद्ध होने का मतलब मूल रूप से द्वैतवाद से परे जीवन के लिए प्रतिबद्ध होना है।” बेल हुक्स की यह बात भारतीय राजनीति के इतिहास के प्रमुख चेहरों पर लागू की जाए, तो बाबा साहेब आंबेडकर का चेहरा एकदम साफ़ नज़र आता है। उन्होंने राजनीति में जो मूल्य सर्वोपरि रखे वही मूल्य उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में लागू रखे। इसी तरह जाति विरोधी आंदोलन के प्रमुख चेहरों को देखा जाए, तो वे ना सिर्फ़ आंदोलन, राजनीति तक खुद को सीमित करते हैं बल्कि जिन लोगों के बीच, जिन लोगों के लिए मानवीय अधिकारों की लड़ाई लड़ी उन्हें भी अपने जीवन के माध्यम से प्रेम दिखाते हैं और सिखाते भी। लेकिन आज की भारतीय राजनीति में प्रेम की कोई जगह नहीं दिखती और न ही कोई नेता अपने प्रशंसकों से प्रेम करने की हिदायतें देता है और न ही उनका खुद का जीवन प्रेम जैसे गहरे विषय को लोगों के सामने रखता है बल्कि प्रेम को घृणा से, बेइज्जत हंसी की नज़र से और नफ़रत के भाव से देखने, दिखाने की राजनीति आज चर्चा में है।

जाति विरोधी आंदोलन इस परिपेक्ष्य में भी बाकी आंदोलनों से अलग है कि जब फूले दंपत्ति की तस्वीरें को आंदोलन में शामिल किया जाता है तब सिर्फ उनके काम को नहीं बल्कि उनके रिश्ते के प्रेम, राजनीति भी अपने आप लोगों तक पहुंच जाती है। डॉक्टर बाबा साहेब आंबेडकर और फूले दंपत्ति ने अपने राजनीतिक संघर्ष और व्यक्तिगत जीवन से प्रेम का कैसा रूप उन्होंने समाज को दिया? आज के परिदृश्य में जब लोग प्रेम को लेकर एकदम आशाहीन हैं और उसके महत्व को नकारते हैं ऐसे में प्रेम के बेहतरीन उदाहरण सकारात्मक ऊर्जा के लिए जरूरी हो जाते हैं।

“लोगों की मेरे बारे में बहुत गलत धारणा हैं, वे सोचते हैं कि मैं कठोर हृदय वाला, क्रूर, स्पष्टवादी, ठंडा, तार्किक, पूर्णतया दिमाग वाला और हृदयहीन हूं। मुझमें एक कोमलता है जो मुझे कमजोर और झुकने वाली बनाती है। मुझे आशा है कि मेरे द्वारा बहाए गए आंसुओं के लिए आप मुझे कमज़ोर नहीं समझेंगी…”

फूले दंपत्ति की शादी, प्रेम और संघर्ष

सावित्रीबाई फूले महज़ नौ वर्ष और ज्योतिराव राव फूले तेरह वर्ष के थे जब उनकी शादी 1849 में करा दी गई थी। सावित्री एक बालिका वधु थी। पढ़ने की शौकीन थीं, ज्योतिराव ने देखा तो उन्हें पढ़ाने लगे, धीरे-धीरे पढ़ते-पढ़ाते दोनों बड़े हुए तो एक-दूसरे के प्रेम में पाया। ऐसी आपसी समझ का विकास की नींव थी शिक्षा। वे शिक्षा से एक- दूसरे से जुड़े हुए थे, एक-दूसरे को बेहतर तरीके से समझ पाए थे। सावित्रीबाई और ज्योतिबाफुले के एक-दूसरे को लिखे पत्र को पढ़ें तो पाएंगे कि वे उसमें अपने प्रेम के साथ समाज को शामिल किए हुए हैं। उसे कैसे बेहतर किया जाए, अस्पृश्य समुदाय को कैसे पढ़ाया जाए, सामाजिक बुराइयों का अंत कैसे हो आदि आदि चिंताओं से भरे पड़े हैं ये पत्र।

रिश्तों के फैसलों में लोकतांत्रिक मूल्यों की मौजूदगी

तस्वीर साभारः Dalit Desk

सावित्री जब अपने मायके गईं तो वहां से ज्योतिबा को एक पत्र लिखा, जिसमें वे लिखती हैं, “उनसे क्यों डरें और इस महान कार्य को छोड़ें? इसके बजाए अपने कार्य के साथ संलग्न होना बेहतर होगा। हम इन मुसीबतों पर काबू पाएंगे और भविष्य में सफलता हमारी होगी। भविष्य हमारा होगा। मैं और क्या लिख सकती हूं? विनम्रता के साथ, आपकी अपनी, सावित्री” सावित्री और ज्योतिबा साथ रहे, मुसीबत कैसी भी थी, डटे रहे और परिणाम क्या हुआ? परिणाम हुआ सत्यशोधक समाज का निर्माण, लड़कियों के लिए पहला स्कूल और कुल अठारह स्कूलों का निर्माण जिनमें दलित, अल्पसंख्यक समुदायों के बच्चे पढ़े, विधवा महिलाओं के लिए संरक्षण घर आदि।

सावित्रीबाई का लड़कियों को पढ़ाने के लिए लोगों की कीचड़ खुद पर सहती रहीं, उन्हें भी डर ज़रूर लगा होगा लेकिन ज्योतिराव के साथ होने से वे पीछे नहीं हटीं। ज्योतिराव ने सत्याशोधक समाज की स्थापना की जिसके खिलाफ में ब्राह्मण उतर आए, उनकी जान के खतरा का डर दोनों को बेशक लगा होगा लेकिन एक दूसरे को पकड़े रहे। दोनों का साथ मिलकर एक ब्राह्मण विधवा के बेटे को गोद लेने का निर्णय हो, सावित्रीबाई का स्कूलों को संभालना हो, ऐसे अनगिनत निर्णय उनके रिश्ते में लोकतांत्रिक मूल्यों की मौजूदगी दर्ज़ कराते हैं। फूले का प्रेम इसका खूबसूरत उदाहरण है कि प्रेम की नींव, लोकतांत्रिक मूल्यों, सच्चाई और विश्वास पर खड़ी हो तो वही प्रेम सामाजिक बदलावों की लंबी फेहरिस्त तैयार कर सकता है।

प्रेम और बाबा साहेब

बाबा साहेब आंबेडकर का रमाबाई, सविता बाई के साथ प्रेमिल जीवन और उनके सामाजिक राजनीतिक आंदोलनबाबा साहेब आंबेडकर ने अपने जीवन के आख़िरी क्षणों में बौद्ध धम्म अपना लिया था लेकिन उनके जीवन के निजी संबंधों को समझने पर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने अपने जीवन में बौद्ध धम्म को जीया यहां तक कि अपने प्रेम में भी। बौद्ध धम्म के विश्व विख्यात दार्शनिक, लेखक थिच नात हान अपनी किताब ट्रू लव (सच्चा प्यार) में लिखते हैं कि बौद्ध धम्म के अनुसार प्रेम के चार तत्व होते हैं, मैत्री (मित्रता), करुणा, मुदिता (आनंद) और उपेक्षा (समता या स्वतंत्रता)। बाबा साहेब पंद्रह वर्ष के थे जब दस वर्षीय रमाबाई से उनकी शादी हुई।

तस्वीर साभारः The Week

जब बाबा साहेब विदेश में पढ़ने गए तब रमाबाई और उनके बीच हुए पत्र व्यवहार से, रमाबाई का बाबा साहेब की अनुपस्थिति में बच्चों का ख़्याल, रमाबाई को रामू कहकर बुलाना, यह सब उनके बीच प्रेम में मैत्री भाव लिए हुए हैं। बाबा साहेब की रमाबाई के साथ एक तस्वीर लोगों के बीच बहुत प्रसिद्ध है जिसमें वे और रमाबाई कुर्सी पर बैठे हैं। जिस वक्त में पत्नी, पति के अधीन समझी जाती थी उस वक्त में इस संबंध ने आसपास के लोगों में पति पत्नी के मध्य उपेक्षा के भाव की मौजूदगी को तरजीह दी। हालांकि जब रमाबाई का 27 मई 1935 में बाबा के साथ उनतीस साल गुजारने के बाद निधन हुआ तब बाबा साहेब एकदम टूट गए थे। लेकिन अस्पृश्य समुदाय के अधिकारों की लड़ाई को वे यूं पीछे नहीं छोड़ सकते थे। यह उस समुदाय के प्रति बाबा साहेब का प्रेम था।

रमाबाई की मृत्यु की तेरह साल बाद उनके जीवन में शारदा कबीर, सविता आंबेडकर बतौर पत्नी शामिल होती हैं। जाति से ब्राह्मण शारदा कबीर ने बाबा साहेब के शारीरिक दुःख, पीड़ा के समय में उनका बहुत ख्याल रखा। सविता आंबेडकर की आत्मकथात्मक कृति “बाबा साहेब, माय लाइफ विद डॉ. आंबेडकर” में वे लिखती हैं, “जब मैं डॉ. आंबेडकर के जीवन में आई, तो वे मधुमेह, न्यूरिटिस, गठिया, उच्च रक्तचाप और कई अन्य बीमारियों से पीड़ित थे”। लोगों को यह भ्रम था/है कि सविता और बाबा साहेब के बीच प्रेम का शारीरिक संबंध मौजूद नहीं था लेकिन इस किताब में ज़िक्र है कि बाबा साहेब औलाद के रूप में एक बेटी चाहते थे, सविता आंबेडकर गर्भवती भी थीं लेकिन मिसकैरेज के कारण संतान बच नहीं सकी।

तस्वीर साभारः Wikipedia

बाबा साहेब का जीवन के अलग-अलग समय सीमा में दो प्रेमिल संबंध रहे और दोनों में ही उन्होंने समता, मैत्री और करुणा का खासा ख्याल रखा। बाबा साहेब हृदय के कितने नर्म व्यक्ति थे और कितने प्रेमिल उसकी झलक 12 मार्च 1948 को बाबा साहेब ने शारदा कबीर (सविता आंबेडकर) को जो पत्र लिखा उसमें मिलती है, जिसमें लिखा था, “मुझे ख़ुशी है कि आप स्टेशन नहीं आईं। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि आपने खुद पर कैसे नियंत्रण रखा। मैं बहुत कमजोर हूं, बहुत कोमल हूं और भावनाओं के वशीभूत हूं। लोगों की मेरे बारे में बहुत गलत धारणा हैं, वे सोचते हैं कि मैं कठोर हृदय वाला, क्रूर, स्पष्टवादी, ठंडा, तार्किक, पूर्णतया दिमाग वाला और हृदयहीन हूं। मुझमें एक कोमलता है जो मुझे कमजोर और झुकने वाली बनाती है। मुझे आशा है कि मेरे द्वारा बहाए गए आंसुओं के लिए आप मुझे कमज़ोर नहीं समझेंगी।” बाबा साहेब का रमाबाई आंबेडकर के साथ भी मुसलसल पत्र व्यवहार था जिसमें वे अपने होने का पूरा श्रेय रामू (रमाबाई) को देते हैं।

सावित्री और ज्योतिबा साथ रहे, मुसीबत कैसी भी थी, डटे रहे और परिणाम क्या हुआ? परिणाम हुआ सत्यशोधक समाज का निर्माण, लड़कियों के लिए पहला स्कूल और कुल अठारह स्कूलों का निर्माण जिनमें दलित, अल्पसंख्यक समुदायों के बच्चे पढ़े, विधवा महिलाओं के लिए संरक्षण घर आदि।

प्रेम के संबंध में ऐसे रिश्तों को जानना और समझना अच्छा है जिनकी नींव लोकतांत्रिक रही। नफरती समाज अपने चरित्र में अन्याय से भरा होता है और प्रेम, न्याय के लिए रास्ते खोलता है। आज की राजनीति प्रेम को जिस भाव से जनता में भर रही है उसे पारखी नजरों से देखा जाना जरूरी है वरना शारीरिक हों या ना हों मानसिक गुलामी व्यक्ति के विकास में बड़ी बाधा बन जाती है। प्रेम, मानसिक गुलामी से आज़ादी दिलाता है। डॉक्टर आंबेडकर का प्रेमिल जीवन और फूले दंपत्ति का प्रेमिल जीवन हम सभी के लिए प्रेम का आदर्श होना चाहिए।


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