डॉ. आंबेडकर लिखते हैं जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती वो अपना इतिहास कभी नहीं बना सकती। 2 अप्रैल का दिन भी दलित-बहुजनों के इतिहास में अहम है। यह संघर्ष की जीत के रूप में जाना जाता है। दरअसल 2 अप्रैल 2018 का दिन भारतीय इतिहास में संपूर्ण भारत बंद के रूप में दर्ज है। इस दिन देश के दलित और आदिवासी भारी संख्या में सड़कों पर उतर गए थे। इसका कारण यह था कि उनके लिए ‘सुरक्षा कवच’ कहे जाने वाले अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में सुप्रीम कोर्ट द्वारा संशोधन किया गया था जिससे देशभर के दलितों और आदिवासियों में गुस्सा भर उठा था। आज ठीक 6 साल बाद देश के दलित-बहुजन इसे अपने संघर्षों की जीत के रूप में माना रहे हैं।
2 अप्रैल के इतिहास को डॉक्यूमेंट किया जाना चाहिए। डॉ. आंबेडकर की कही बात याद आती है कि जुल्म करने वाले से ज्यादा जुल्म सहने वाला गुनाहगार होता है। इस बार समाज ने जुल्म न सहने की ठानी। कुछ जानें गई, लेकिन उन्हें इतिहास में याद रखा जाएगा। भारत बंद के दौरान शहीद होने वाले सभी बहुजन योद्धाओं को नमन। उन तमाम दलित, आदिवासी कार्यकर्ताओं, समाजसेवियों को सलाम जिन्होंने अपने समाज के खिलाफ हो रहे अत्याचार का डटकर विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट को अपना फैसला बदलने पर मजबूर किया। जब कभी भी इस देश का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसमें यह लिखा जाएगा कि जब दलित-आदिवासियों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ हो रहा था, तो संपूर्ण समाज अपनी एकता का परिचय देते हुए सड़कों पर जमा हो गया था और पूरे देश को बंद कर यह संदेश दिया था कि वे अपने अधिकार के लिए लड़ते रहेंगे।
क्या है इतिहास
2 अप्रैल, साल 2018 के बाद एक ऐतिहासिक दिन बन गया था। इस दिन देश के संपूर्ण हिस्से से बहुजन समाज के लोगों ने एकजुट होकर देशव्यापी सफल भारत बंद किया था। ‘हम अंबेडकरवादी हैं संघर्षों के आदि हैं’ नारे के साथ किया गया यह संघर्ष सकारात्मक परिणाम भी लाया और यह भी साबित किया कि यह कौम अभी जिंदा है जो अपने हकों के लिए लड़ सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने देश में हो रहे धरने प्रदर्शन को देखते हुए अपना फैसला वापिस ले लिया था।
क्या है एससी एसटी एक्ट
दरअसल एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा पारित किया गया था। एससी/एसटी एक्ट की धारा- 3(2)(v) के तहत जब कोई व्यक्ति किसी एससी या एसटी समुदाय के सदस्य के खिलाफ अपराध करता है तो उस अपराधी को आईपीसी के तहत 10 साल या उससे अधिक की जेल की सजा के साथ दंडित किया जाता है यह भी प्रावधान है कि ऐसे मामलों में जुर्माने के साथ सजा को आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है। देश की चौथाई आबादी पर लगातार हो रहे अत्याचार पर अंकुश लगाने के लिए ही यह एक्ट लाया गया था। हालांकि इससे पहले 1955 में ‘प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट’ भी आ चुका था लेकिन वह दलितों और आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों को नहीं रोक सका। अत्याचार और भेदभाव से बचाने के लिए इस एक्ट में कई तरह के प्रावधान किए गए।
संशोधन से पहले और बाद का नियम
बता दें कि संशोधन से पहले इस एक्ट के तहत जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने पर तुरंत मामला दर्ज होता था। इनके खिलाफ मामलों की जांच का अधिकार इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारी के पास भी था। केस दर्ज होने के बाद तुरंत गिरफ्तारी का भी प्रावधान था। ऐसे मामलों की सुनवाई केवल स्पेशल कोर्ट में ही होती थी। साथ ही अग्रिम जमानत भी नहीं मिलती थी। सिर्फ हाईकोर्ट से ही जमानत मिल सकती थी।
एक्ट में जो संशोधन किया गया उसके अनुसार एससी-एसटी के खिलाफ जातिसूचक टिप्पणी या कोई और शिकायत मिलने पर तुरंत मुकदमा दर्ज नहीं किया जाएगा। न ही तुरंत गिरफ्तारी होगी। डीएसपी लेवल के अधिकारी पहले मामले की जांच करंगे। इसमें ये देखा जाएगा कि कोई मामला बनता है या फिर झूठा आरोप है। मामला सही पाए जाने पर ही मुकदमा दर्ज होगा और आरोपी की गिरफ्तारी होगी। जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करने वाले आरोपी की हिरासत अवधि बढ़ाने से पहले मजिस्ट्रेट को गिरफ्तारी के कारणों की समीक्षा करनी होगी। सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत के बाद ही हो सकती है। सरकारी कर्मचारी या अधिकारी ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत के लिए याचिका भी दायर कर सकते हैं।
इससे एक बात साफ समझ आती है कि किस तरह जातिगत और वर्ग के आधार पर वर्चस्व स्थापित किया जाता है। अधिकारों का हनन करने वाले खुलेआम घूम सकते हैं और डीसीपी की कार्रवाई को प्रभावित करना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं होगा। यह दलितों, आदिवासियों के सुरक्षा कवच को सीधे तौर पर कमजोर करने जैसा था।
विरोध प्रदर्शन और इस दौरान हुई मौतें
इससे देशभर के दलित और आदिवासी समुदाय ने मिलकर 2 अप्रैल को संपूर्ण भारत बंद का एलान कर दिया। देश के अलग अलग हिस्सों में आगजनी और हिंसा भी भड़क गई। टाइम्स ऑफ इंडिया के एक खबर के मुताबिक बंद में शामिल 11 लोगों की जान भी चली गई। दूसरी तरफ, उत्तरप्रदेश, बिहार, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब व मध्यप्रदेश जैसे कई राज्यों में अनगिनत दलित-आदिवासी कार्यकर्ताओं के ऊपर मुकदमे दर्ज हुए।
इस दौरान पंजाब व राजस्थान के कई इलाकों में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई। मध्य प्रदेश के ग्वालियर में प्रदर्शन के दौरान गोलियां चल गईं। भारत बंद के दौरान कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा हिंसा भड़काने का प्रयास भी किया गया।
क्या था राजनीतिक पार्टियों का रवैया
देश के कई विपक्षी दलों ने भारत बंद का समर्थन किया था। आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने बंद का समर्थन कर ट्वीट किया था कि अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद उत्पन्न हुई स्थिति पर ‘आप’ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय का समर्थन करती है। केंद्र सरकार को अदालत के फैसले के खिलाफ याचिका के लिए प्रतिष्ठित एवं वरिष्ठ वकीलों की मदद लेनी चाहिए।
वहीं बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष व यूपी की पूर्व सीएम मायावती ने बंद का समर्थन कर ट्वीट किया था कि मैं एससी/एसटी एक्ट के खिलाफ विरोध का समर्थन करती हूं। मुझे पता चल गया है कि विरोध के दौरान कुछ लोगों ने हिंसा फैलाई है, मैं इसकी निंदा करती हूं। हमारी पार्टी विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा के पीछे नहीं है।
आखिरकार हुई जीत
इस विशाल जनसमूह के सड़कों पर उमड़ने और राजनीतिक दलों के समर्थन के चलते देश पर अनुकूल असर पड़ा और सुप्रीम कोर्ट द्वारा 20 मार्च 2018 को दिए अपने फैसले को देशभर में हो रहे विशाल प्रदर्शनों को देखते हुए वापस लेना पड़ा। यह एक तरह से सरकार द्वारा दलित-बहुजनों पर किया गया लिटमस टेस्ट भी था, जिन्हें लगता था कि यह समाज सोया हुआ है और अपने हक अधिकारों के प्रति अनजान है। दलित- बहुजन समाज की एकता और सूझबूझ ने यह आभास कराया कि इन्हें अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरना पड़े तो कोई गुरेज नहीं। बहुजनों ने आज का दिन इतिहास में अपनी जीत के नाम दर्ज कराया है जिसे आने वाली पीढ़ियां गर्व के साथ याद रखेंगी। इसी तरह 13 प्वाइंट रोस्टर प्रणाली जैसे मुद्दों पर भी समाज एकजुट होकर सरकार से लड़ा और अपने अधिकारों को बचाए हुए है।