जब कोई अपने ही परिवार में पीढ़ियों से चले आ रहे रीति-रिवाज का विरोध करते हैं, पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर सवाल उठाते हैं तो परिवार में उसको अलग-थलग कर दिया जाता है। निजी स्पेस से आगे सार्वजनिक दायर में भी अगर किसी समस्या पर सवाल उठाते हैं जो लैंगिक है, रूढ़िवादी है तो उसके इस व्यवहार को परेशानी खड़ी करने वाली छवि यानी इमेज से जोड़कर देखा जाने लगता है। इसमें आप खुद को भी शामिल कर सकते हैं। अपने निजी स्पेस से सार्वजनिक बहसों में बदलाव की आवाज़ उठाने के लिए ‘फेमिनिस्ट किलजॉय’ टर्म का इस्तेमाल किया जाता है। किलजॉय फेमिनिज़म क्या है? यह टर्म किसने गढ़ा और इसका नारीवादी सिद्धांत क्या है?
फेमिनिस्ट किलजॉय एक ऐसा शब्द है जो ऐसे व्यक्तित्व का वर्णन करता है जो असहज सवाल, सच, अलोकप्रिय राय को उठाता है। इस टर्म को गढ़ने वाली सारा अहमद एक ब्रिटिश-ऑस्ट्रेलियाई नारीवादी, लेखिका और विद्धान हैं। उनका मौलिक काम ‘द कल्चरल पॉलिटिक्स ऑफ इमोशन’ है, जिसमें उन्होंने भावनाओं के सामाजिक आयामों पर बात की है। फेमिनिस्ट किलजॉय थ्योरी के तहत उन्होंने कहा है जो भी व्यक्ति विरोध करता है, स्थापित व्यवस्था की आलोचना करता है और उसके साथ चलने से इंकार करता है, सिस्टम पर सवाल उठाने वाले को किलजॉय कहा जाता है।
स्क्रॉल में प्रकाशित लेख में सारा अहमद लिखती है, जब आप किसी चीज को सेक्सिट या नस्लवादी कहते हैं तो आप उसे अधिक वास्तविक बना रहे होते हैं जिससे दूसरों तक आसानी से कम्युनिकेट किया जा सके। लेकिन जिन लोगों को उस नस्लवाद या लैंगिक भेदभाव की समझ नहीं है उसके बारे में बात करना उनके सामने लाना उन्हें अस्तित्व में लाना है। जब आप एक समस्या को उजागर करते है तो एक इस तरह आप एक समस्या खड़ी कर देते है।”
“नारीवादी जीवन जीने से एक अधिक संपूर्ण तस्वीर बनाने में मदद मिलती है क्योंकि हम कोशिश करते हैं कि हम उस चीज से मुंह न मोड़े जो हमारी खुशी से समझौता करती है। कभी-कभी बहुत सारी चीजों से नाखुश होना थका देने वाला भी हो सकता है लेकिन मुझे नारीवादी जीवन जीने की पूर्णता में खुशी मिलती है।”
‘द फेमिनिस्ट किलजॉय हैंडबुक’
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सारा अहमद ने अपने लेखन के ज़रिये इंटरसेक्शनल नारीवाद, क्वीयर और नस्ल पर मुख्य तौर पर बात की है। अपनी शुरुआती किताबों, स्ट्रेंज एनकाउंटर्स और द कल्चरल पॉलिटिक्स ऑफ इमोशन्स से शुरुआत करते हुए उन्होंने मानव जीवन के आकस्मिक या अतार्किक माने जाने वाले आयामों (गुस्सा, दर्द, इच्छा) को अर्थ देने की कोशिश की है ताकि यह दिखाया जा सके कि हम जो महसूस करते हैं वह किस पहलू से जुड़ा है। वह अपनी किताब ‘द फेमिनिस्ट किलजॉय हैंडबुक’ में विस्तार से बात करते हुए उन तरीकों की जांच करती है जिनसे सेल्फ डाउट और अलगाव (आइसोलेशन) लेकिन एकजुटता भी फेमिनिस्ट किलजॉय का हिस्सा बनने से आ सकती है।
वह अपनी लेखन में भावनाओं के जाहिर करने के प्रभावों पर विचार करती है कि कैसे ये अनुभव हमारे शरीर में रजिस्टर्ड होते हैं। कैसे-कैसे बार-बार कहा जाता है कि आप परेशानी खड़ी कर रहे हैं जो आपको एक स्नैप पर लाकर खड़ा कर देता है। स्नैप व्यक्तिगत रूप से शुरू हो सकता है। जब कोई देखता है कि अन्य लोग हर समय स्नैप कर रहे हैं तो उसे एकजुटता की खुशी के साथ-साथ सामाजिक बदलाव की संभावना मिल सकती है। स्नैप एक सैद्धांतिक अवधारणा है जिसे सारा अहमद ने साल 2017 में ‘लिविंग ए फेमिनिस्ट लाइफ’ में विकसित किया है। उनके अनुसार यह एक अचानक हलचल (मूवमेंट) है।
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किसी सेक्सिट और नस्लीय टिप्पणी के जवाब में अगर कोई आपत्ति दर्ज करता है, उसमें बाधा डालता है या एक अकादमिक चर्चा को अधिक व्यक्तिगत बना दिया तो समस्या बन जाती है। बोलना, विरोध करना, विषय को चर्चा में लाना बदलाव की प्रक्रिया है। अहमद कहती है स्नैप हमेशा व्यक्तिगत रूप से शुरू होता है लेकिन उसे हमेशा उसी तरह रहने की आवश्यकता नहीं है। वह कहती है जब महिला टूटती है, अपना आपा खो देती है या बाधा डालने वाले अपने तर्क पर पूरी तरह कायम रहती तो वह एक सामूहिक क्षण में आती है, भले ही वह जानती हो कि उस समय उसके पास कोई कंपनी है या नहीं। वह फेमिनिस्ट किलजॉय की श्रेणी में शामिल हो गई, वह एक वर्ग की नहीं तो एक समूह का हिस्सा बन गई है। द फेमिनिस्ट किलजॉय हैडबुक में वह इस मूवमेंट की आइसोलेशन से क्लेक्टिव तक जांच करती है।
दुनिया में सेक्सिजम और नस्लवाद को बदलना होगा
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एक वेबसाइट में दिए इंटरव्यू में सारा अहमद कहती हैं, “दुनिया में सेक्सिजम और नस्लवाद है अगर हमें इसे बदलना है तो हमें दुनिया के साथ जुड़ना होगा, इसे जानना होगा, इसे समझना होगा। हम सेक्सिजम और नस्लवाद से पीछे नहीं हट सकते हैं। हम लगे रह सकते हैं और जिसे चुनौती दे सकते है उसका आनंद भी ले सकते हैं। कभी-कभी एक फेमिनिस्ट किलजॉय होने के नाते ऐसा महसूस हो सकता है कि आप अपनी खुशी के रास्ते में आ रहे हैं और अगर खुशी का मतलब अपने आस-पास के अन्यायों पर ध्यान न देना है, तो ऐसा ही होगा। यह नारीवादी कहानी बताने का एकमात्र तरीका नहीं है, क्योंकि नारीवादी दृष्टिकोण से दुनिया को समझने का मतलब कम नहीं बल्कि अधिक की आशंका है। नारीवादी जीवन जीने से एक अधिक संपूर्ण तस्वीर बनाने में मदद मिलती है क्योंकि हम कोशिश करते हैं कि हम उस चीज से मुंह न मोड़े जो हमारी खुशी से समझौता करती है। कभी-कभी बहुत सारी चीजों से नाखुश होना थका देने वाला भी हो सकता है लेकिन मुझे नारीवादी जीवन जीने की पूर्णता में खुशी मिलती है।”
वह फेमिनिस्ट किलजॉय की श्रेणी में शामिल हो गई, वह एक वर्ग की नहीं तो एक समूह का हिस्सा बन गई है। द फेमिनिस्ट किलजॉय हैडबुक में वह इस मूवमेंट की आइसोलेशन से क्लेक्टिव तक जांच करती है।
अहमद का अधिकांश काम ऑर्ड्रे लॉर्डे की कविता और गद्य से प्रभावित है। विशेष रूप से उनके निबंध द यूज ऑफ एंगरः वीमेन रिस्पॉन्डिंग टू रेसिज्म को उनकी किताब द फेमिनिस्ट किलजॉय हैंडबुक में पाया जा सकता है। इसमें वह गुस्से के बीच भी सोचती है और उस गुस्से को खुद की सोच को परिशोधित (रिफाइन) और नई दिशा देने का काम करती है। उनका अबतक क्वीयर थ्योरी, भावनाओं की सांस्कृतिक राजनीति (कल्चर पॉलिटिक्स) और विश्वविद्यालय के भीतर नस्लीय उत्पीड़न पर विविधता से भरा काम प्रकाशित हो चुका है। साल 2016 में उन्होंने लंदन यूनिवर्सिटी के गोलस्मिथ में सेंटर फॉर फेमिनिस्ट रिसर्च के डॉयरेक्टर के पद को छोड़ दिया था। उन्होंने कहा था कि यह स्कूल यौन उत्पीड़न को एक संस्थागत समस्या के रूप में संबोधित करने में विफल है। अपने तमाम काम के ज़रिये उन्होंने खुद को एक नारीवादी और क्वीयर सिद्धांतकार के रूप में स्थापित करते हुए काम किया।
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