नरसंहार और सामूहिक हत्याएं तब होती हैं, जब लोगों का एक समूह या समुदाय किसी अन्य आबादी को अपने अधीन करना, उसका उन्मूलन करना, उससे बदला लेना या उस पर सत्ता और नियंत्रण स्थापित करना चाहता है या जब वह किसी अन्य समूह को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानता है। भारतीय समाज में विभिन्न जातियों के लोग रहते हैं। लेकिन बावजूद इसके यहां एक वर्चस्व देखा गया है, जहां सत्ता नियंत्रण के लिए तथाकथित सवर्ण लोग समय-समय पर दलित समुदाय के साथ हिंसा में संलिप्त होते हैं।
इतिहास से लेकर वर्तमान तक में यह हिंसा, अमूमन नरसंहार के रूप में समाज के सामने आती है। ऐसा ही एक नरसंहार ‘किल्वेनमनी नरसंहार’ है जो तमिलनाडु में साल 1968 में हुआ और इतिहास में दर्ज हो गया। इस नरसंहार में 44 लोगों की मौत हो गई, जिनमें 5 वृद्ध पुरुष, 16 महिलाएं और 23 बच्चे शामिल थे।
किल्वेनमनी नरसंहार का इतिहास
किल्वेनमनी नरसंहार, जिसे 1968 के किल्वेनमनी नरसंहार के रूप में भी जाना जाता है, भारत के इतिहास में जाति-आधारित हिंसा की सबसे दुखद घटनाओं में से और आज़ाद भारत की पहली वर्णित हिंसाओं में से एक है। भारत के तमिलनाडु के तंजावुर जिले के किल्वेनमनी गांव में मुख्य रूप से दलित रहते थे, जो अपनी जाति की स्थिति के कारण भारतीय समाज में पारंपरिक रूप से हाशिए पर हैं। यह गांव भूमिहीन कृषि मज़दूरों का घर था, जो मुख्य रूप से प्रमुख थेवर समुदाय से उच्च-जाति के ज़मींदारों के खेतों में काम करते थे। किल्वेनमनी नरसंहार की जड़ें ग्रामीण तमिलनाडु में व्याप्त गहरी सामाजिक-आर्थिक असमानताओं और जाति-आधारित भेदभाव में देखी जा सकती है। दलित मज़दूरों को शोषण का सामना करना पड़ता था। उन्हें कम मज़दूरी मिलती थी और उच्च-जाति के ज़मींदारों की ज़मीनों पर कठोर काम करने की स्थिति में रहना पड़ता था।
क्या थी घटना
दलितों द्वारा सामना किए जाने वाले शोषण और भेदभाव को भूमि स्वामित्व अधिकारों की अनुपस्थिति और शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक अवसरों तक पहुँच की कमी ने और बढ़ा दिया था। दिसंबर 1968 में, किल्वेनमनी में दलित मजदूरों और उच्च जाति के जमींदारों के बीच तनाव चरम पर पहुंच गया था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के बैनर तले संगठित दलित मजदूरों ने जमींदारों से अधिक वेतन और बेहतर काम करने की स्थिति की मांग की। उचित व्यवहार और वेतन की इस मांग ने जमींदारों द्वारा बनाए गए आर्थिक हितों और सामाजिक पदानुक्रम को खतरे में डाल दिया था।
25 दिसंबर, 1968 को, जिसे क्रिसमस दिवस के रूप में जाना जाता है, तनाव तब बढ़ गया जब दलित मजदूरों ने अपनी माँगों को लेकर विरोध प्रदर्शन करने और हड़ताल करने का फैसला किया। इस विद्रोह ने जमींदारों के अधिकार को चुनौती दी और उच्च जाति के समुदाय में रोष पैदा कर दिया था। दलित मजदूरों के विरोध के प्रतिशोध में, स्थानीय जमींदारों के नेतृत्व में कथित तौर पर सशस्त्र उच्च जाति के पुरुषों के एक समूह ने उस रात किल्वेनमनी में दलित बस्ती पर एक क्रूर हमला किया।
कैसे आग में जलने के लिए इंतजाम किया गया
इस रोज जमींदार और उनके लगभग 200 गुंडे लॉरियों में आए और झोपड़ियों को घेर लिया, जिससे भागने के सभी रास्ते बंद हो गए। हमलावरों ने मजदूरों पर गोली चला दी, जिससे उनमें से दो गंभीर रूप से घायल हो गए। मजदूर और उनके परिवार खुद को बचाने के लिए सिर्फ पत्थर फेंक सकते थे या फिर मौके से भाग सकते थे। कई महिलाओं, बच्चों और कुछ बूढ़ों ने एक छोटी सी (8 फीट x 9 फीट) झोपड़ी में शरण ली। लेकिन हमलावरों ने उसे घेर लिया और उसमें आग लगा दी, जिससे जलने से उनकी मौत हो गई। कई लोग जो बाहर आने में कामयाब थे, उन्हें दरांती और अन्य हथियारों से हमला कर मार डाला गया, जबकि अन्य लोगों की मौत आग की लपटों में जलने से हो गई। किल्वेनमनी हत्याकांड ने पूरे देश को झकझोर दिया और इसकी व्यापक निंदा की गई थी। इसने भारतीय समाज में व्याप्त जाति-आधारित भेदभाव और हिंसा को उजागर किया। पालनीवेल, इस नरसंहार को झेलकर ज़िंदा रहने वालों में से एक हैं, वे उस वक्त 22 वर्ष के थे।
घटना का क्रूर अंत
द हिंदू को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि मैं भागने में कामयाब रहा। लेकिन जमींदार गोपालकृष्ण नायडू के गुंडों ने दरांती से मेरी जांघ पर हमला किया और इसे काट दी। मैं घने अंधेरे का फायदा उठाकर भाग गया और कुछ अन्य मजदूरों के साथ धान के खेतों में छिप गया। इस नरसंहार के होने के बाद, कम्युनिस्ट नेता मैथिली शिवरामन पहली थी जिन्होंने उस क्षेत्र में कदम रखा था। उस स्थिति को याद करते हुए वे लिखती हैं कि वह दृश्य अजीब तरह से श्मशान घाट की याद दिलाता था। कोई साधारण श्मशान घाट नहीं जहां शवों को बिना दर्द के दफनाया जाता है, बल्कि वह एक भयावह स्थान था जहां कोमल बचपन, लज्जापूर्ण युवावस्था और प्रेममय मातृत्व पीड़ा और निराशा में अपने अचानक, क्रूर अंत में मिल गए थे।
कोर्ट की भूमिका
इस हत्याकांड के पीछे धान उत्पादक संघ के नेता गोपालकृष्णन नायडू को कथित रूप से दोषी बताया गया। नागपट्टिनम सत्र अदालत ने आरोपी को 10 साल कैद की सजा सुनाई। गया। नागापट्टिनम जिला अदालत के 1970 के 10 साल के कारावास के फैसले को रद्द कर दिया। अभियुक्त ने मद्रास उच्च न्यायालय में अपील की और 1973 में मामला रद्द कर दिया। 1975 में मद्रास उच्च न्यायालय ने हत्या के मामले में सभी 25 आरोपियों को बरी कर दिया। लेकिन इस अविश्वसनीय अत्याचार के विरुद्ध महिला अधिकार और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता मैथिली शिवरामन ने शक्तिशाली और व्यापक विश्लेषण लिखना जारी रखा, जिससे न केवल नरसंहार बल्कि वर्ग और जाति उत्पीड़न के अंतर्निहित मुद्दों को भी प्रकाश में लाया गया। 1980 में बदले के हमले में गोपालकृष्णन की हत्या कर दी गई।
किल्वेनमनी नरसंहार समाज में क्यों पनपते हैं
1968 में तमिलनाडु में किल्वेनमनी नरसंहार भारतीय समाज में गहराई से व्याप्त सामाजिक-आर्थिक और जातिगत गतिशीलता के जटिल अंतर्विरोध के कारण हुआ था। भारत में जाति व्यवस्था, अपनी कठोर पदानुक्रमिक संरचना के साथ, असमानता और भेदभाव को कायम रखती है। एम.एन. श्रीनिवास और लुइस ड्यूमॉन्ट जैसे समाजशास्त्रियों ने जाति व्यवस्था का व्यापक अध्ययन किया है, जिसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि यह सामाजिक संबंधों और सत्ता की गतिशीलता को कैसे आकार देती है।
किल्वेनमनी में, नरसंहार उच्च जाति के जमींदारों की दलित मजदूरों पर अपना प्रभुत्व और नियंत्रण बनाए रखने की इच्छा का नतीजा था, जिन्हें सामाजिक रूप से निम्न माना जाता था। लेकिन बात सिर्फ निम्न जाति की नहीं बल्कि दो जातियों के बीच में आर्थिक संबंध, व्यापार केंद्रित फायदे की भी है। भूमि स्वामित्व का असमान वितरण, जिसमें अधिकांश भूमि पर उच्च जाति के जमींदारों का नियंत्रण है, सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को बढ़ाता है।
आखिर जमीनों पर सवर्ण लोगों का अधिकार क्यों
किल्वेनमनी में, दलित मजदूरों द्वारा उच्च मजदूरी और बेहतर कार्य स्थितियों की मांग ने जमींदारों के आर्थिक हितों को चुनौती दी, जिसके कारण हिंसक प्रतिशोध हुआ। लेकिन ऐसी हिंसा होने के बाद भी इतने वर्षों में इस असमान भूमि वितरण के परिपेक्ष्य में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। 2015-16 की कृषि जनगणना के अनुसार दलितों के पास कुल कृषि भूमि का केवल 9 फीसद हिस्सा है। भारत की जनगणना द्वारा प्रकाशित हालिया आंकड़ों के अनुसार, 71 फीसद दलित भूमिहीन मजदूर हैं जो ऐसी भूमि पर काम करते हैं जो उनकी अपनी नहीं है।
ग्रामीण क्षेत्रों में, 58.4 फीसद दलित परिवारों के पास बिल्कुल भी भूमि नहीं है। भूमि और संघर्ष निगरानी संस्था के अनुसार, देश भर में भूमि को लेकर आज तक में 31 संघर्ष चल रहे हैं, जिनसे 92,000 से अधिक दलितों का जीवन प्रभावित हुआ है। दलितों के साथ हिंसा इस देश में आम बात है और विभिन्न रिपोर्ट यह दावा भी करती है। व्यवहारिक नज़र से इस नरसंहार को देखें, तो जो लोग हिंसा कर रहे हैं उनके अंदर करूणा और मानवीय संवेदनाओं की कमी है जिसकी जड़ इस विचार में है कि धर्म शास्त्रों के अनुसार दलित उनसे निम्न हैं और निम्न ही रहने चाहिए। दूसरा इसका एक बड़ा कारण सरकारी व्यवस्था की विफलता भी है कि वे ऐसी हिंसा के खिलाफ़ कोई खास मिसाल पेश नहीं कर पाई है।
अधिकांश दैनिक समाचार पत्रों -तमिल और अंग्रेजी दोनों ने इस घटना को किसानों के दो गुटों के बीच एक घटना के तौर पर कवर किया। इसके जाति और वर्ग के आयामों को कम करके आंका गया। किल्वेनमनी हत्याकांड ने भारत में जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ दलित अधिकार आंदोलनों और सक्रियता के लिए उत्प्रेरक का काम किया। इसने भूमि सुधार, सामाजिक न्याय और हाशिए पर पड़े समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया। यह नरसंहार दलितों द्वारा सामना किए जाने वाले प्रणालीगत अन्याय और समानता और सम्मान के लिए चल रहे संघर्ष की एक मार्मिक याद दिलाता है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) इस नरसंहार की याद में हर साल “वेनमनी शहीद दिवस” मनाती है। स्मारक की आधारशिला 1969 में ज्योति बसु ने रखी थी, जब वे पश्चिम बंगाल के उपमुख्यमंत्री थे।