हाल ही में गूगल ने डूडल बनाकर भारत की पहली महिला पेशेवर पहलवान हमीदा बानो को याद किया। 1900 के दशक की शुरुआत में जन्मी हमीदा बानो एक सशक्त महिला थीं। उन्होंने सभी बाधाओं और सामाजिक रूढियों को चुनौती देते हुए भारत की पहली पेशेवर महिला पहलवान बनने का गौरव प्राप्त किया, जो न केवल देश में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रसिद्ध थीं। 1920 में उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर में जन्मी हमीदा बाद में अलीगढ़ में रहने लगी थीं। इन्होंने 10 वर्ष की आयु से ही कुश्ती में अपना हाथ आज़माना शुरू कर दिया था। इनके पिता नादेर पहलवान ने इनको कुश्ती की बारीकियां समझानी शुरू कर दी थीं। मार्शल आर्ट्स की शिक्षा भी इन्होंने अपने पिता से ली थी।
इस वर्ष 4 मई को हमीदा बानो को याद करते हुए, गूगल ने उनकी याद में एक खूबसूरत डूडल जारी किया। दिव्या नेगी द्वारा चित्रित, गूगल डूडल में हमीदा के पहनावे को गहरे गुलाबी रंग से दर्शाया गया है। हमीदा बानो को भारत की पहली महिला पहलवान होने का गौरव प्राप्त है। 1954 में उन्होंने महज 1 मिनट 34 सेकंड में कुश्ती मुकाबला जीतकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई थी। इस जीत ने हमीदा बानो को वैश्विक मंच पर पहुंचा दिया और खेल इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए अपना नाम दर्ज करा लिया। इस मैच में उन्होंने प्रसिद्ध पहलवान बाबा पहलवान को हराया, जिन्होंने अपनी हार के बाद कुश्ती से संन्यास ले लिया था।
कौन थीं हमीदा बानो
1950 के दशक के दौरान भारत में अधिकतर महिलाएं पर्दे के पीछे ही नज़र आती थीं। जिस समय महिलाओं के लिए घर से बाहर कदम निकलना मुश्किल था, महिलाएं घूंघट और पर्दे में रहा करती थीं, ऐसे समय में कोई महिला न केवल पहलवानी करती थी बल्कि पुरुष पहलवानों को पछाड़ भी रही थी। हमीदा 1940 और 1950 के दशक की महिला पहलवान थी जो उस समय मीडिया और जनता के लिए एक महत्वपूर्ण चेहरा बनकर उभरीं। भारत के खेल प्रेमी उन्हें सफल होते देखना चाहते थे और बड़ी संख्या में उनके मुकाबलों को देखने के लिए आते थे। 1900 के दशक में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ के पास पहलवानों के परिवार में जन्मी बानू ने छोटी उम्र से ही सामाजिक मानदंडों को चुनौती दी। एथलेटिक्स में महिलाओं की भागीदारी को लेकर प्रचलित नकारात्मक रवैया के बावजूद, उन्होंने निडर होकर कुश्ती के प्रति अपने जुनून को आगे बढ़ाया। हमीदा ने पुरुषों को खुली चुनौतियां दीं। उनसे प्रतिस्पर्धा की और यहां तक कि उन्हें हराने वाले पहले पुरुष से शादी की पेशकश भी की।
पुरुष पहलवानों के खिलाफ लड़ना और हराना
वह उत्तर प्रदेश में ‘अलीगढ़ की अमेज़न’ के नाम से मशहूर हो गई। वह मूल रूप से मिर्जापुर की रहने वाली थी, लेकिन बाद में अलीगढ़ में रहने लगी और उसने अपने खेल से मशहूर हो गई। बीबीसी के एक लेख के अनुसार हमीदा उस समय स्टारडम पर पहुँची, जब यह खेल के मैदान पुरुषों का गढ़ हुआ करता था। खेल के क्षेत्र में महिलाओं के लिए बहुत कम गुंजाइश थी। लेकिन वह अक्सर पुरुष पहलवानों के खिलाफ लड़ती थीं और उन्हें हरा देती थीं। उन्होंने जो मुकाबले जीते, उसका आहार और उसका प्रशिक्षण कार्यक्रम व्यापक रूप से कवर किया गया। एक रिपोर्ट के अनुसार, उनका वजन 108 किलोग्राम था और उनकी लंबाई 5 फीट 3 इंच थी। एक ब्रिटिश मीडिया आउटलेट के अनुसार उनके दैनिक आहार में 5.6 लीटर दूध, 2.8 लीटर सूप, 1.8 लीटर फलों का रस, मांस, बादाम, आधा किलो मक्खन, अंडे, रोटियां और बिरयानी भी शामिल होती थी।
हमीदा ने जीवनसाथी के लिए क्या रखा प्रस्ताव
हमीदा जब लगभग 30 वर्ष की थीं, उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व ने उन्हें वैश्विक स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई और उन्हें शादी के लिए कई प्रस्ताव मिले। लेकिन वह आने वाले सभी पुरुषों के लिए एक ही शर्त रखती थीं। वह कहती थीं कि अगर वे उन्हें कुश्ती में हरा पाए, तो उस व्यक्ति से वे शादी कर लेंगी । कई लोगों ने ऐसा करने की कोशिश भी की, लेकिन वे असफल रहे। 1954 में, मीडिया के माध्यम से, उन्होंने भारत के सभी पुरुष पहलवानों को खुली चुनौती दी। दो प्रसिद्ध कुश्ती चैंपियन, एक पंजाब के पटियाला से और दूसरा पश्चिम बंगाल के कोलकाता से, ने उनकी चुनौती स्वीकार की और उनसे बेहतर प्रदर्शन करने की कोशिश की। लेकिन दोनों बुरी तरह से हार गए। फिर हमीदा पुरुष चैंपियन पहलवान के खिलाफ अपने तीसरे मुकाबले के लिए बड़ौदा गईं। बड़े-बड़े अखबारों में उनके अद्भुत कारनामों की चर्चा हो रही थी। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने भी उन्हें कवरेज दी। सुधीर परब नाम के एक व्यक्ति, जो उस समय एक बच्चे थे, ने बीबीसी को बताया कि बड़ौदा में उनके आगमन का बैनर और पोस्टर के माध्यम से उनके आने का और कुश्ती का प्रचार किया गया था। उस समय तक वह 300 से अधिक प्रतियोगिताएं जीत चुकी थीं।
छोटा गामा और हमीदा के किस्से
उस समय बड़ौदा के महाराजा ने छोटा गामा पहलवान नामक पहलवान को संरक्षण दिया था। हमीदा और छोटा गामा एक-दूसरे के खिलाफ़ खड़े हो गए थे। हालांकि गामा ने यह कहते हुए मुकाबले से अपना नाम वापस ले लिया कि वह एक महिला के खिलाफ़ मुकाबला नहीं करना चाहते। हमीदा के प्रशंसक उनके प्रतिद्वंद्वी द्वारा इस कायरतापूर्ण वापसी से निराश हो गए थे। लेकिन उस समय कुछ लोग थे जो इस तथ्य से खुश नहीं थे कि वह नियमित रूप से पुरुष चैंपियन को हरा रही थीं।
बाबा पहलवान को दो मिनट में हरा दिया
अगला व्यक्ति जिसने उनसे मुकाबला करने का फैसला किया, वह बाबा पहलवान थे जो खुद एक प्रसिद्ध पहलवान था। दो मिनट से भी कम समय में हमीदा बानो ने बाबा पहलवान को धूल चटा दी और फिर जीत की खुशी में अपने हाथ ऊपर उठाकर चिल्लाई, “क्या इस शहर में कोई और है जो मेरी चुनौती स्वीकार करेगा?” हमीदा ने 1954 में मुंबई में रूस की ‘मादा भालू’ वीरा चेस्टेलिन को एक मिनट से भी कम समय में हरा दिया था। तब उन्होंने कहा था कि वह यूरोप जाकर यूरोपीय पहलवानों से कुश्ती लड़ेंगी।
पूर्वाग्रहों से आगे बढ़ती गईं हमीदा
स्वतंत्रता से पूर्व भारत में महिलाओं का खेल के मैदान में उतरना वर्जित माना जाता था। ऐसे में किसी पुरूष के साथ कुश्ती करना काफी कठिन था। इसे नापसंद किया जाता था और इसे अभद्र माना जाता था। साथ ही यह वह समय था जब उत्तर भारत में मुस्लिम महिलाओं को पर्दा प्रथा का पालन करने के लिए मजबूर किया जाता था। लेकिन उन्होंने किसी खिलाड़ी की तरह कड़ी मेहनत की, दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ती गईं। पुरुषों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर चलने को और पुरूषवादी समाज में कदम रखने के लिए उन्होंने हर कदम पर रूढ़िवादिता को चुनौती दी और पूर्वाग्रहों को तोड़ा। अपने शुरुआती दिनों में, जब वह अमृतसर के अखाड़े में उतरीं, जो भारतीय कुश्ती का गढ़ माना जाता है, तो उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वी से कहीं ज़्यादा वहां के दर्शकों के गुस्से का सामना करना पड़ा।
हमीदा का जीवन दृढ़ संकल्प शक्ति का प्रतीक था। सामाजिक मानदंडों और व्यक्तिगत कठिनाइयों का सामना करने के बावजूद, उन्होंने निडरता से कुश्ती के लिए अपने जुनून को नहीं छोड़ा। उनकी कहानी उन लोगों के लिए आशा की किरण है जो बाधाओं को दूर करने और अपने सपनों को लगातार आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं। हमीदा की एथलेटिक उपलब्धियों और अटूट भावना के लिए उन्हें लोग हमेशा याद रखेंगे। वे एक ऐसे समाज के निर्माण में सहायक भी हैं जहां महिलाओं को कमज़ोर और असहाय समझा जाता है। हमीदा ने समाज को बता दिया कि उनकी कुश्ती किसी एक जेंडर का खेल नहीं है। उन्होंने कुश्ती तो पुरुषों के साथ की मगर कहीं न कहीं समाज में पितृसत्ता को खत्म करने का काम भी किया। हमीदा तत्कालीन समाज की असमानताओं और शोषण के विरुद्ध नाम दर्ज करने वाली महिला के रूप में याद रखी जाएगी।