इतिहास ज़ीनत महल:अपनी सल्तनत बचाने की ख़ातिर अँग्रेज़ों के खिलाफ कोशिश करने वाली महिला#IndianWomenInHistory

ज़ीनत महल:अपनी सल्तनत बचाने की ख़ातिर अँग्रेज़ों के खिलाफ कोशिश करने वाली महिला#IndianWomenInHistory

ज़ीनत महल बहादुर शाह ज़फ़र की सभी बेग़मों में सबसे छोटी और कहा जाता है कि सबसे पसन्दीदा बेगम थीं। उनके बारे में कहा जाता है कि वे बुद्धिमान और हिम्मती थीं और उनके सामने किसी की नहीं चलती थी। वे दरबार की राजनीति से वाक़िफ़ थीं और असलियत में बादशाह की तरफ़ से सल्तनत का राज-काज सम्भालने का काम वे ही किया करती थीं। 

ज़ीनत महल अपने पति, मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की ओर से मुगल साम्राज्य की एकमात्र पत्नी और वास्तविक शासक थीं। कहा जाता है कि उन्होंने सम्राट को बहुत प्रभावित किया और, युवराज मिर्जा दारा बख्त की मौत के बाद, उन्होंने अपने बेटे मिर्जा जवान बख्त को सम्राट के शेष सबसे बड़े बेटे मिर्जा फतह-उल-मुल्क बहादुर के स्थान पर सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में बढ़ावा देना शुरू कर दिया।

ज़ीनत महल बहादुर शाह ज़फ़र की सभी बेग़मों में सबसे छोटी और कहा जाता है कि सबसे पसन्दीदा बेगम थीं। उनके बारे में कहा जाता है कि वे बुद्धिमान और हिम्मती थीं और उनके सामने किसी की नहीं चलती थी। वे दरबार की राजनीति से वाक़िफ़ थीं और असलियत में बादशाह की तरफ़ से सल्तनत का राज-काज सम्भालने का काम वे ही किया करती थीं। 

उनके बारे में कहा जाता है कि वे बुद्धिमान और हिम्मती थीं और उनके सामने किसी की नहीं चलती थी। वे दरबार की राजनीति से वाक़िफ़ थीं और असलियत में बादशाह की तरफ़ से सल्तनत का राज-काज सम्भालने का काम वे ही किया करती थीं। 

मेहर के तौर पर लिए थे 15 लाख रुपए 

इस्लाम में मेहर महिलाओं का हक़ होता है। मेहर की राशि तय करने का अधिकार पत्नी पक्ष का होता है। दि मुग़ल्स: लाइफ, आर्ट एण्ड कल्चर नामक किताब में बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र और ज़ीनत महल के निकाह के अरबी और फ़ारसी भाषा में लिखे हुए एक काबीन-नामे (वह दस्तावेज जिसमें निकाह की शर्तों और मेहर का विवरण होता है) का ज़िक्र मिलता है। इसके मुताबिक़ ज़ीनत महल ने बहादुरशाह ज़फ़र से मेहर के तौर पर 15 लाख रुपए लिए थे।

1857 के संग्राम में योद्धाओं को किया था संगठित 

तस्वीर साभार: The Patriot

कहा जाता है कि 1857 की क्रान्ति में विद्रोहियों को संगठित करने में ज़ीनत महल की अहम भूमिका थी। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत  में 10 मई 1857 की रात मेरठ के कुछ सिपाहियों की एक टोली घोड़ों पर सवार होकर दिल्ली पहुँच गई। वे लाल किले के आस-पास इकट्ठा हो गए। वे बहादुरशाह ज़फ़र से मिलना चाहते थे। बादशाह का मानना था कि काफ़ी ख़ून-ख़राबा होगा। इसलिए वे इस युद्ध में शामिल होने के लिए तैयार नहीं थे। कहा जाता है कि उस समय ज़ीनत महल ने ही सिपाहियों के लिए लाल किले के दरवाज़े खोले थे और सिपाहियों ने महल में घुसकर बहादुरशाह ज़फ़र को अपना नेता घोषित कर दिया था।

दि मुग़ल्स: लाइफ, आर्ट एण्ड कल्चर नामक किताब में बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र और ज़ीनत महल के निकाह के अरबी और फ़ारसी भाषा में लिखे हुए एक काबीन-नामे का ज़िक्र मिलता है। इसके मुताबिक़ ज़ीनत महल ने बहादुरशाह ज़फ़र से मेहर के तौर पर 15 लाख रुपए लिए थे। 

कुछ ऐतिहासिक स्रोतों में यह भी उल्लेख मिलता है कि 1857 के विद्रोह में भागीदारी के लिए बेग़म ज़ीनत महल ने ही बहादुर शाह को प्रोत्साहित किया था। उन्होंने उनसे कहा था कि यह समय ग़ज़लें कह कर दिल बहलाने का नहीं है, बिठूर से नाना साहब का पैग़ाम लेकर देशभक्त सैनिक आए हैं, आज सारे हिन्दुस्तान की आँखें दिल्ली की ओर व आप पर लगी हैं, ख़ानदान-ए-मुग़लिया का ख़ून हिन्द को ग़ुलाम होने देगा तो इतिहास उसे कभी क्षमा नहीं करेगा। अँग्रेज़ चाहते थे कि बहादुरशाह ज़फ़र चुपचाप आत्मसमर्पण कर दें, ऐसे में ज़ीनत महल ने ही उन्हें आत्मसमर्पण न करने और लड़ाई लड़ने की सलाह दी थी। इस तरह, ज़ीनत महल ने अपनी सल्तनत को अँग्रेज़ों से बचाने की हर सम्भव कोशिश की थी।

ज़ीनत के नाम पर बनी मुग़लों की आख़िरी इमारत 

तस्वीर साभार: Delhi Archives

ज़ीनत महल ने बहादुरशाह ज़फ़र को अपने लिए एक हवेली बनाने का आदेश दिया, जिसके बाद 1846 में ज़ीनत महल की देखरेख में दिल्ली के लाल कुआँ इलाक़े में उनके रहने के लिए उनके नाम पर एक हवेली बनाई गई। ज़ीनत महल ज़्यादातर समय इसी हवेली में रहा करती थीं और यह काफ़ी भव्य थी। महल की भव्यता का ज़िक्र बशीरुद्दीन अहमद देहलवी ने अपनी पुस्तक वाकेयात-ए-दार-उल-हुकुमत-ए-देहली में भी किया है कि यह हवेली चार एकड़ ज़मीन पर फैली हुई थी और इसमें फव्वारे, मेहराबदार कमरे और बड़े-बड़े तहख़ाने थे। 

अँग्रेज़ चाहते थे कि बहादुरशाह ज़फ़र चुपचाप आत्मसमर्पण कर दें, ऐसे में ज़ीनत महल ने ही उन्हें आत्मसमर्पण न करने और लड़ाई लड़ने की सलाह दी थी। इस तरह, ज़ीनत महल ने अपनी सल्तनत को अँग्रेज़ों से बचाने की हर सम्भव कोशिश की थी।

कहा जाता है कि यह आलीशान हवेली उस समय बनवाई गई जब मुग़ल सल्तनत तंगहाली के दौर से गुज़र रही था, इसी से पता चलता है कि बादशाह पर अपनी इस रानी का कितना ज़बरदस्त प्रभाव था। लेकिन यह अफ़सोस की बात है कि ज़ीनत महल इस भव्य इमारत में ज़्यादा दिन नहीं रह सकीं। साल 1857 में दिल्ली पर अँग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया और उन्हें और बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून जेल में भेज दिया। वर्तमान में ज़ीनत महल की हवेली में कक्षा छठवीं से बारहवी की लड़कियों के लिए सर्वोदय कन्या विद्यालय नाम का उर्दू मीडियम का एक स्कूल चलाया जाता है। 

डंका बेगम के नाम से प्रसिद्ध 

ज़ीनत महल की शान-ओ-शौकत का आलम यह था कि जब भी वे पालकी में बैठकर अपनी हवेली आती थीं, तो उनके आने से पहले ही ढोल-ताशे, शहनाइयाँ और तरह तरह के संगीत बजने लगते थे। यह लोगों को उनके आने की सूचना देने का एक तरीक़ा था। इसे सुनकर लोग बेग़म के स्वागत और उनकी झलक देखने के लिए हवेली के आसपास जमा हो जाते थे। इसी वजह से लोगों ने उनका नाम डंका बेग़म रख दिया था। 

ज़ीनत महल की शान-ओ-शौकत का आलम यह था कि जब भी वे पालकी में बैठकर अपनी हवेली आती थीं, तो उनके आने से पहले ही ढोल-ताशे, शहनाइयाँ और तरह तरह के संगीत बजने लगते थे।

अधूरी रह गई थी सल्तनत बचाने की उनकी इच्छा 

ज़ीनत महल चाहती थीं कि बहादुरशाह ज़फ़र के बाद मुग़ल सल्तनत को उनका बेटा मिर्ज़ा जवान बख्त संभाले। लेकिन उनकी यह इच्छा नहीं पूरी हो सकी। अँग्रेज़ों ने भारत के शासन की ज़िम्मेदारी अपने हाथ में ले ली थी। उनके परिवार को लाल किले से निकालने का आदेश दे दिया और बहादुरशाह ज़फ़र के बाद किसी को भी बादशाह न मानने का फ़रमान सुना दिया। लेकिन अपनी डूबती हुई सल्तनत को बचाने के लिए जिस तरह से ज़ीनत महल ने कोशिशें की और अन्त तक ब्रिटिश हुकूमत के सामने घुटने नहीं टेके, वह क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। 

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