लोकसभा चुनाव में युवा और महिलाएं दो सबसे महत्वपूर्ण मतदान समूह हैं। लेकिन जब औपचारिक क्षेत्र में बेहतर वेतन वाली नौकरियों की बात आती है, तो दोनों समूह पिछड़ते नजर आ रहे हैं। हाल ही देखा गया कि कर्मचारी भविष्य निधि यानि ईपीएफओ योजना के कुल नामांकन में, 21 वर्ष से कम उम्र वालों की हिस्सेदारी, वित्त वर्ष 2024 के पहले पांच महीनों में घटकर 22.6 फीसद हो गई है। यह आंकड़ा कोविड महामारी से पहले एक तिहाई के करीब था। पिछले साल की तुलना में 2023 में लगभग 10 प्रतिशत कम नई औपचारिक नौकरियां बनी, जो औपचारिक नौकरी सृजन में होते तेजी से गिरावट को दिखाती है। आंकड़ों से ये भी पता चलता है कि नई महिला ग्राहकों की संख्या 2022 में 3.14 मिलियन से लगभग 11 प्रतिशत घटकर 2023 में 2.8 मिलियन हो गई।
ईपीएफओ के जारी आंकड़ों से पता चलता है कि जनवरी और दिसंबर 2023 के बीच कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) में 10.78 मिलियन नए ग्राहक शामिल हुए। पिछले वर्ष इसी समय में यह आंकड़ा 11.93 मिलियन था। वहीं 18-28 आयु वर्ग के नए युवा ग्राहकों की संख्या 2023 में 9.2 प्रतिशत घटकर 7.2 मिलियन हो गई, जो पिछले वर्ष की इसी समय में 7.93 मिलियन थी। यह संख्या महत्वपूर्ण है क्योंकि इस उम्र के ग्राहक आमतौर पर श्रम बाजार में पहली बार आते हैं, जो बाजार की मजबूती को दर्शाता है।
हालांकि वैतनिक कार्यबल में काम करना महिलाओं के लिए और देश के अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी है। लेकिन अक्सर ये पाया जाता है कि शिक्षित महिलाएं कार्यबल में कम हैं। भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आईएसआई) के नेतृत्व में दिल्ली में शादीशुदा महिलाओं के साल 2019 के सर्वेक्षण में पाया गया कि देश के शहरी इलाकों में महिलाएं काम करना चाहती हैं। लेकिन वे महत्वपूर्ण संख्या में श्रम बल में नहीं हैं। सर्वेक्षण में शामिल 1500 विवाहित जोड़ों में से 74 फीसद महिलाएं न तो काम कर रही थीं, और न ही नौकरी की तलाश में थीं। ये हालात इस तथ्य के बावजूद था कि इनमें से अधिकतर महिलाओं के पति चाहते थे कि वे काम करें और परिवार की आय में बढ़ोतरी हो।
महिलाओं के औपचारिक क्षेत्र में काम से कौन से कारक जुड़े हैं
औपचारिक क्षेत्र में काम करने के लिए जहां सबसे जरूरी शिक्षा है, वहीं घरवालों और समाज का समर्थन और बढ़ावा भी एक जरूरी कारक है। हमारे देश में इन दोनों मामलों में महिलाओं को अधिक मेहनत करनी पड़ती है। कई बार महिलाओं की नौकरी, विशेषकर औपचारिक कार्यबल में नौकरी शिक्षा, शादी, परिवार का आय और बच्चों की उम्र या संख्या से तय होती है। परिवारों में सांस्कृतिक समानता और वही पितृसत्तात्मक विचारधारा से बावजूद, अशिक्षित वर्ग की महिलाएं अक्सर अपने जीवनसाथी के साथ दिहाड़ी मजदूरी या खेती करती नजर आती हैं। घर में आर्थिक तंगी महिलाओं को काम पर जाने के लिए मजबूर करता है। हालांकि इससे उनपर घर के कामों का बोझ और बच्चों या बुजुर्गों के देखभाल की जिम्मेदारी में कमी नहीं होती।
महिलाओं की शिक्षा और श्रम बल भागीदारी के बीच संबंधों की जांच के लिए साल 1993-94 के भारतीय राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता लगाने की कोशिश की गई। आम तौर पर ये माना जाता है कि शिक्षा दक्षिण एशियाई देशों में महिलाओं की श्रम बल में कम भागीदारी से जुड़ी है। लेकिन इसके पीछे के कारणों पर कम ही विचार किया गया है। सांस्कृतिक कारण बताते हैं कि महिलाओं का श्रम बल से बाहर हो जाना, परिवार की सामाजिक स्थिति में सुधार से जुड़ा है। उच्च सामाजिक और आर्थिक दर्जे वाले परिवार अपनी बेटियों को शिक्षित करना चुनते हैं। लेकिन साथ ही, श्रम बल में उनकी भागीदारी पर रोक लगाकर, उनकी आज़ादी पर रोक भी लगाते हैं। आज महिलाएं पहले से कहीं अधिक साक्षर और शिक्षित हैं। वे अधिक संख्या में स्कूलों और कॉलेजों में दाखिला ले रही हैं और पिछली पीढ़ियों की तुलना में अधिक समय तक स्कूल या कॉलेज में रह रही हैं। लेकिन, इससे वे और भी ज्यादा कार्यबल से बाहर हो जाती हैं।
साइंस डायरेक्ट ने भारत मानव विकास सर्वेक्षण (आईएचडीएस) से 2005 और 2012 के व्यक्तिगत स्तर के पैनल डेटा का उपयोग करते हुए, ये पाया गया कि देश में महिलाएं कार्यबल में न केवल पुरुषों की तुलना में बहुत कम भाग ले रही हैं, बल्कि वे खतरनाक दर से श्रम बल से बाहर भी हो रही हैं। ये दिखाता है कि उनका श्रम बाजार से लगाव कम है। इस शोध में यह भी पाया गया कि धन के साथ-साथ घर के अन्य सदस्यों के आय में बढ़ोतरी से, महिलाओं की कार्यबल में प्रवेश की संभावना कम और बाहर चले जाने की संभावना अधिक होती है। इसके अलावा, घर में उच्च शैक्षिक स्तर वाले वयस्क पुरुष की उपस्थिति महिलाओं को श्रम बाजार में प्रवेश करने या बने रहने में नकारात्मक तौर पर प्रभावित करती है। नवजात बच्चे होने से महिलाओं को रोजगार छोड़ना पड़ता है, जो बताता है कि कार्यस्थल पर चाइल्डकेअर सुविधाओं का प्रावधान महिलाओं के श्रम बल में टिके रहने के लिए कितना महत्वपूर्ण है।
महिलाओं का औपचारिक कार्यबल में होना क्यों जरूरी है
हैरानी की बात है कि भारत में गरीब और अशिक्षित महिलाएं हमेशा श्रम बल में सक्रिय रही हैं। लेकिन शिक्षित महिलाओं के बीच, श्रम बल में भागीदारी दर तुलनामूलक रूप से कम है। भारत में 90 प्रतिशत लोग अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। कामकाजी जनसंख्या का सिर्फ 4 फीसद औपचारिक क्षेत्र में काम करता है, जिनके पास नौकरी की सुरक्षा और पेंशन है। 2021 में, भारत में 43.96 प्रतिशत कार्यबल कृषि में लगा था, जबकि अन्य आधा फीसद दो अन्य क्षेत्रों- उद्योग और सेवाओं के बीच समान रूप से बंटे थे। हालांकि कृषि में काम करने वाले भारतीयों की हिस्सेदारी पहले की तुलना में घट रही है। लेकिन आज भी यह रोजगार का मुख्य क्षेत्र है। द वायर में छपी सीएमआईई के प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी महेश व्यास के साथ इंटरव्यू में वे बताते हैं कि असंगठित क्षेत्रों में अधिकांश नौकरियां कम वेतन देती हैं और अनौपचारिक तरीके की होती हैं। ऐसे में ये और भी जरूरी है कि महिलाएं न सिर्फ आय बल्कि जॉब सिक्युरिटी और भविष्य को सुरक्षित करने के लिए औपचारिक क्षेत्र से जुड़े और टिके रहें।
कहा जाता है कि पढ़ा-लिखा व्यक्ति किसी देश के लिए एक ऐसेट है। लेकिन महिलाओं का शिक्षित होने के बावजूद औपचारिक क्षेत्र से दूरी, किसी देश के लिए चिंता की सबसे बड़ी वजह होनी चाहिए। जब शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार होते हैं, तो न सिर्फ उनके परिवारों की आय कम होती है, बल्कि वे देश के अर्थव्यवस्था से भी बाहर हो जाते हैं। बेरोजगार व्यक्ति के पास खर्च करने का स्त्रोत और शक्ति नहीं होता, जिससे अन्य लोगों का रोजगार प्रभावित हो सकता है क्योंकि एक व्यक्ति का खर्च दूसरे की आय है। इससे घरेलू अर्थव्यवस्था पर भी व्यापक प्रभाव पड़ता है। साथ ही, आर्थिक रूप से सशक्त न होने के कारण महिलाओं के फैसले लेने के अधिकार कम होते चले जाते हैं। यानि बेरोजगार लोग रोजगार में लगे लोगों की जीवन को प्रभावित करते हैं।
ऐसा नहीं है कि कोविड के पहले महिलाओं की स्थिति बहुत बेहतर थी। 2012 विश्व बैंक के एक पेपर के अनुसार, 2004-05 और 2011-12 के बीच, लगभग 19.6 मिलियन महिलाओं ने वैतनिक काम को छोड़ दिया था। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2021 से सिर्फ 5 में से 1 से भी कम भारतीय महिलाएं औपचारिक रूप से काम करती हैं। देश में महिला श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) दुनिया में सबसे कम है। साल 2000 और 2019 के बीच महिला एलएफपीआर में पुरुषों के 8.1 की तुलना में 14.4 प्रतिशत की गिरावट आई। लेकिन, इसके बाद इस प्रवृत्ति में बदलाव देखी गई जहां 2019 और 2022 के बीच पुरुषों के एलएफपीआर के लिए 1.7 प्रतिशत की तुलना में महिला एलएफपीआर में 8.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई। लेकिन फिर भी 2022 में पुरुषों की तुलना में शिक्षित युवा महिलाओं में अधिक बेरोजगारी दर पाया गया। विशेष रूप से महिला स्नातकों में पुरुषों की तुलना में अधिक बेरोजगारी पाई गई।
2030 तक, भारत का अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का अनुमान है। ऐसे में महिलाओं का अर्थव्यवस्था में ही नहीं, नीति और योजनाओं के निर्माण में भी अहम भूमिका होनी चाहिए। बात सिर्फ प्रतिनिधित्व तक खत्म नहीं होती। बेहतर नौकरी के साथ-साथ महिलाओं के काम में आड़े आता यातायात की सुविधा, कार्यस्थल पर सुरक्षा, समाज और परिवार का समर्थन, बच्चे की देखभाल के लिए चाइल्डकेयर, घरों में मदद और घर के कामों का समान बंटवारा जरूरी है। इसके साथ ही ये भी अहम है कि हम महिलाओं को भी पढ़ने और रोजगार शुरू करने के लिए पर्याप्त वक्त दें। मातृत्व के बाद, महिलाओं के लिए दफ्तर के दरवाजे बंद न हो, जेंडर पे गैप या भेदभाव न हो। चूंकि महिलाएं शिक्षा के बाद भी निर्णायक भूमिका नहीं निभा पाती, इसलिए उनके अनुकूल कामकाजी नियम और माहौल तैयार करने के लिए सभी को प्रयास करना होगा।