इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत उत्तराखंड में बढ़ते पलायन की समस्या का कौन है जिम्मेदार?

उत्तराखंड में बढ़ते पलायन की समस्या का कौन है जिम्मेदार?

उत्तराखंड के ग्रामीण विकास एवं पलायन रोकथाम आयोग के अनुसार 2018 से 2022 तक राज्य के विभिन्न हिस्सों, खासकर पहाड़ियों से कुल 3.3 लाख लोगों ने पलायन किया और लगभग 700 खाली घर हैं। 2007 और 2017 के बीच लगभग 3.83 लाख से अधिक लोगों ने अपना घर छोड़ दिया है।

जबसे साल 2000 में उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग किया गया है, इस राज्य को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उत्तराखंड सरकार के रोजगार के अवसर पैदा करने के प्रयासों के बावजूद, उत्तराखंड पलायन की गंभीर समस्या से जूझ रहा है। राज्य में खराब स्वास्थ्य, बुनियादी शिक्षा की कमी, सीमित आर्थिक अवसर, कृषि संकट और जलवायु परिवर्तन की वजह से होते प्राकृतिक आपदाओं ने भी बड़े पैमाने पर पलायन को बढ़ावा दिया है। राज्य में पलायन के अलावा, मानव वन्यजीव मुठभेड़, जोशीमठ में कृषि भूमि का सिकुड़ना भी प्राथमिक समस्याओं में से एक है।

जहां एक ओर लोग गांवों से पलायन कर रहे हैं, वहीं पहाड़ी शहर आबादी के दबाव का सामना कर रहे हैं। पलायन की समस्या के समाधान की तलाश में राज्य सरकार ने एक पलायन आयोग का गठन भी किया था। चुनाव के मद्देनजर जनता हर बार इसी उम्मीद के साथ सरकार का चयन करती है कि सरकार आने के बाद उनके हालात में बदलाव होगा। लेकिन कहीं ना कहीं जनता को निराशा का मुंह देखना पड़ता है। 20वीं सदी में रहने के बावजूद, आज भी उत्तराखंड की जनता को स्वास्थ्य, पानी, शिक्षा, रोजगार की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

पिछले दस वर्षों में 500,000 से अधिक लोग उत्तराखंड से पलायन करने के लिए मजबूर हुए हैं। नतीजन, लोगों ने 3946 गांवों को स्थायी रूप से छोड़ दिया है, जो ‘घोस्ट विलेज’ कहलाने लायक हैं। आरटीआई से पता चलता है कि इन लोगों में से, लगभग 1,18,961 लोग वापस लौटने के इरादे के बिना, स्थायी रूप से राज्य से बाहर चले गए हैं।

उत्तराखंड का सबसे गंभीर विषय पलायन  

राज्य में बहुत से इलाके हैं, जहां ज्यादातर गांव खाली हो चुके हैं। उत्तराखंड में सूचना का अधिकार (आरटीआई) कार्यकर्ता हेमंत गौनिया के दायर एक आरटीआई के अनुसार, पिछले दस वर्षों में 500,000 से अधिक लोग उत्तराखंड से पलायन करने के लिए मजबूर हुए हैं। नतीजन, लोगों ने 3946 गांवों को स्थायी रूप से छोड़ दिया है, जो ‘घोस्ट विलेज’ कहलाने लायक हैं। आरटीआई से पता चलता है कि इन लोगों में से, लगभग 1,18,961 लोग वापस लौटने के इरादे के बिना, स्थायी रूप से राज्य से बाहर चले गए हैं। इसके अलावा, 3,83,726 से अधिक लोग बेहतर रोजगार की संभावनाओं के लिए पलायन कर चुके हैं।

हमें आज भी स्कूल में पढ़ने के लिए घर से 8 किलोमीटर पैदल जाना पड़ता है। बरसात के मौसम में हमें पैदल आने-जाने में काफी परेशानी होती है। हमें जंगल के रास्ते से भी पैदल जाना पड़ता है, जिसमें सुरक्षा का भी काफी डर रहता है।

वहीं ग्रामीण विकास एवं प्रवासन आयोग के 2019 की रिपोर्ट अनुसार पिछले 10 वर्षों में, 6338 ग्राम पंचायतों में कुल 3,83,726 व्यक्ति सेमी पर्मनन्ट यानि अर्ध-स्थायी आधार पर पलायन कर चुके हैं। हालांकि वे समय-समय पर गांवों में अपने घरों में आते हैं और स्थायी रूप से पलायन नहीं किया है। पिछले 10 वर्षों में 3946 ग्राम पंचायतों से 1,18,981 स्थायी प्रवासी हैं। डेटा बताता है कि राज्य के सभी जिलों में स्थायी प्रवासियों की तुलना में अर्ध-स्थायी प्रवासियों की संख्या अधिक है। पलायन आयोग की रिपोर्ट में आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि राज्य के विभिन्न गांवों में रहने वाले लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। इसके बाद मजदूरी और सरकारी नौकरियां है। वहीं राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान, हैदराबाद के किए गए एक अध्ययन के अनुसार, उत्तराखंड राज्य में 50.2 प्रतिशत पुरुष राज्य से बाहर पलायन कर चुके हैं।

उत्तराखंड के ग्रामीण विकास एवं पलायन रोकथाम आयोग के अनुसार 2018 से 2022 तक राज्य के विभिन्न हिस्सों, खासकर पहाड़ियों से कुल 3.3 लाख लोगों ने पलायन किया और लगभग 700 खाली घर हैं।

उत्तराखंड के ग्रामीण विकास एवं पलायन रोकथाम आयोग के अनुसार 2018 से 2022 तक राज्य के विभिन्न हिस्सों, खासकर पहाड़ियों से कुल 3.3 लाख लोगों ने पलायन किया और लगभग 700 खाली घर हैं। 2007 और 2017 के बीच लगभग 3.83 लाख से अधिक लोगों ने अपना घर छोड़ दिया है। साल 2011 के बाद से राज्य से बाहर प्रवास करने वाले कुल 5,02,707 लोगों में से, सबसे अधिक 89,830 लोग टिहरी जिले से पलायन कर गए। इसके बाद पौडी में 73072, अल्मोडा से 69818, चमोली से 46290, पिथौरागढ से 41669, रुद्रप्रयाग से 30570, बागेश्वर से 29300, देहरादून से 28,583, चंपावत से 28218, नैनीताल से 25774, उत्तरकाशी से 22620, हरिद्वार से कुल 9312 लोग और उधम सिंह नगर से 7016 पलायन कर चुके हैं।

ग्रामीण इलाकों में पलायन के मुख्य कारण

तस्वीर साभार: FoxTales

ग्रामीण विकास और पलायन आयोग के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन को बढावा देने वाला सबसे बड़ा  कारण आजीविका की कमी है। इसके बाद शैक्षिक  संस्थानों की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है। वहीं राज्य के आम जनता तक सरकार की विभिन्न योजनाओं के फायदे नहीं पहुंच पा रहे हैं। उत्तराखंड में पलायन की सबसे बड़ी वजह रोजगार और आजीविका की कमी है। राज्य के मैदानी इलाकों की ओर सबसे अधिक पलायन युवाओं का होता है। आंकड़ों से पता चलता है कि इन युवाओं में 29 फीसद 25 या उससे कम उम्र के हैं, 42 फीसद 26 से 35 के बीच के हैं और 29 फीसद 35 साल से अधिक के हैं।

उत्तराखंड में  पलायन का कारण कहीं ना कहीं सरकार से जुड़ा हुआ है। यहां पर कई वर्षों से भाजपा सरकार है। वह कहीं ना कहीं हमेशा अपने वादों से चुकी है। राज्य में बहुत से ऐसे ग्रामीण क्षेत्र है जहां अभी भी स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सुविधाओं का अभाव है। इसकी वजह से भी लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता  है। इस वजह से लोग गांव छोड़कर पलायन करने पर मजबूर हैं।

पर्यावरण में हो रहे बदलाव के कारण खेती में नुकसान

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में 32.22  फीसद लोग मजदूरी और 45.59 फीसद लोग खेती करते हैं। लगातार जलवायु में परिवतर्न होने के कारण किसानों को भारी नुकसान हो रहा है। ग्रामीण इलाकों में घटती खेती वहां रह रहे लोगों को अर्थव्यवस्था पर दवाब डाल रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति की आय में कमी  उनके लिए एक चुनौती बन गई है। यहाँ के खेतों में ज्यादातर काम  किसान खुद करते हैं, जिसमें श्रम लागत और मेहनत ज्यादा लगती है। पहाड़ी इलाकों के खेतों में किसानों को इतना ज्यादा अनाज प्राप्त नहीं होता कि जिसे बेचकर वो कमा सकें। अपने खेतों से उनको जितनी फसल की लागत प्राप्त होती है, उसी से वे अपना गुजारा करते हैं। वे वही खाते हैं, जो वो उगाते हैं। आजीविका के लिए वे अपने खेतों पर निर्भर नहीं रह पा रहे हैं और मजबूर होकर आजीविका के लिए मैदानी इलाकों में पलायन करना पड़ रहा है।

तस्वीर साभार: फोर्बस

इस विषय पर अल्मोड़ा की निवासी प्रेमा देवी कहती हैं, “कई वर्षों से पर्यावरण में बदलाव के कारण अनियमित बारिशों की वजह से खेती में भारी नुक्सान हो रहा है जिसकी वजह से किसानों का खेती में कुछ भी फायदा नहीं हो रहा है। सरकार की तरफ से भी उनको कोई मुआवजा नहीं मिलता है, कि वो अपने नुक्सान की भरपाई कर सकें। इस वजह से बहुत से किसान अपनी खेती छोड़कर शहरों में पैसा कमाने चले गये हैं। काफी समय से  खेत खाली पड़े रहने के कारण खेत बंजर भी हो रहे हैं। अब वो खेत खेती करने लायक भी नहीं रहे।”

सरकार की तरफ से भी उनको कोई मुआवजा नहीं मिलता है, कि वो अपने नुक्सान की भरपाई कर सकें। इस वजह से बहुत से किसान अपनी खेती छोड़कर शहरों में पैसा कमाने चले गये हैं। काफी समय से  खेत खाली पड़े रहने के कारण खेत बंजर भी हो रहे हैं। अब वो खेत खेती करने लायक भी नहीं रहे।

 सरकारी योजनाओं का क्या प्रभाव हो रहा है  

तस्वीर साभार: Scroll.in

सरकार के अनुसार होम स्टे योजना के तहत स्थानीय लोगों को स्वरोजगार मिलेगा और आर्थिक स्थिति में सुधार आएगी। इस योजना में राज्य सरकार स्थानीय लोगों को बैंक ऋण देकर लोगों को होम स्टे स्थापित करने में मदद करती है। योजना के पीछे मकसद ये था कि होम स्टे चलाने वाले लोग  पर्यटकों को राज्य के खान-पान, संस्कृति और पारंपरिक पहाड़ी शैली से अवगत कराएगी। लेकिन शहरी इलाकों के तुलना में ग्रामीण इलाकों में  सुविधाओं की कमी होने की वजह से टूरिस्ट कम आते हैं। इस कारण वहां होम स्टे में इतना मुनाफा नहीं होता। बेरोजगार युवाओं के लिए ये योजना कामयाब साबित नहीं हो रही है। वहीं उनमें बैंक ऋण नहीं चुका पाने का डर भी है। इस योजना का फायदा वहीं लोग उठा रहे हैं, जिनके पास  होम स्टे के अलावा कमाई का अन्य साधन है। वहीं स्वरोजगार योजना राज्य सरकार ने 2023 में शुरू की थी। इस योजना के तहत राज्य सरकार राज्य के प्रवासी मजदूरों स्वरोजगार शुरू करने के लिए ऋण मुहैया करती है। लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों के लोग अभी भी मुश्किलों में हैं क्योंकि पहाड़ी इलाके में कोई भी रोजगार शुरू करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

रोजगार और शिक्षा की समस्या 

आंकड़ों  के मुताबिक उत्तराखंड से लोग सबसे ज्यादा रोजगार के लिए पलायन किए हैं। इस विषय पर अल्मोड़ा जिले की बघाड़ गांव की रहने वाली 30 वर्षीय दया कहती हैं, “उत्तराखंड में  पलायन का कारण कहीं ना कहीं सरकार से जुड़ा हुआ है। यहां पर कई वर्षों से भाजपा सरकार है। वह कहीं ना कहीं हमेशा अपने वादों से चुकी है। राज्य में बहुत से ऐसे ग्रामीण क्षेत्र है जहां अभी भी स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सुविधाओं का अभाव है। इसकी वजह से भी लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता  है। इस वजह से लोग गांव छोड़कर पलायन करने पर मजबूर हैं। लोगों को मजबूरी में अपने खेत और घर छोड़कर शहरों में जाना पड़ रहा है। पलायन की वजह से पुरे गाँव खाली हो चुके हैं।”

अल्मोड़ा के बघाड़ गांव की दिव्या अपने गाँव के ही सरकारी स्कूल में नवमी कक्षा में पढ़ती हैं। अपने रजत में शिक्षा की व्यवस्था पर वो कहती हैं, “हमें आज भी स्कूल में पढ़ने के लिए घर से 8 किलोमीटर पैदल जाना पड़ता है। बरसात के मौसम में हमें पैदल आने-जाने में काफी परेशानी होती है। हमें जंगल के रास्ते से भी पैदल जाना पड़ता है, जिसमें सुरक्षा का भी काफी डर रहता है। स्कूल से हमारे गाँव तक रोड तो हैं। लेकिन वो कच्ची है, जिसमें बहुत ही कम गाड़ियां आती-जाती हैं। गाड़ी में स्कूल तक आने-जाने के लिए  1 दिन में ही 100 रूपए किराया लग जाता है। हमारे पास इतने पैसे नहीं होते कि रोजाना हम गाड़ी में स्कूल जाएं। सरकार मंदिर बनाने में पैसे खर्च कर रही है। उन्हें ये पैसा  शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं पर लगाना चाहिए ताकि ग्रामीण क्षेत्र लोग भी आराम से अपना जीवन व्यतीत कर  सकें।” अपने इन कठिनाइयों के बावजूद, हजारों लोग आशावादी हैं, जो अपने गाँव में रहना चाहते हैं। देखना ये है कि क्या भाजपा सरकार जनता की उम्मीदों को पूरा कर पाएगी।

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