इंटरसेक्शनलजेंडर महिलाओं के भोजन विकल्पों को आकार देने और नियंत्रित करने में पितृसत्ता की भूमिका

महिलाओं के भोजन विकल्पों को आकार देने और नियंत्रित करने में पितृसत्ता की भूमिका

कुछ खाद्य पदार्थों को कथित औरतों या पुरुषों के खाने की चीज़ के रूप में लेबल किए जाने जैसे इन पूर्वाग्रहों ने महिलाओं के लिए पोषण सुरक्षा को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। भोजन से जुड़े पूर्वाग्रह और रूढ़ियों ने महिलाओं के लिए पोषण और स्वायत्तता को सीमित कर दिया है।

भोजन मानव समाज और संस्कृति में उसकी पहली ज़रूरत है। उस सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में एक स्त्री और खाने का रिश्ता कुछ ऐसा जोड़ा गया है कि आप बिना स्त्री के रसोई की कल्पना ही नहीं कर सकते। लेकिन जब नाम और पैसे कमाने की बात आई, तो उसी स्त्री को पितृसत्ता ने खाद्य उद्योग में जगह बनाने नहीं दी। जीने के लिए खाना तो सभी खाते हैं। लेकिन खाने के साथ-साथ घर के सदस्यों के लिए खाना पकाने का जिम्मा आमतौर पर केवल घर की औरतों का तय किया गया है। इसके साथ-साथ पितृसत्ता ने कुछ खाद्य पदार्थों पर ‘फेमिनिन’ या औरतों के खाने की चीज़ जैसा टैग भी जोड़ दिया गया। आपने कभी-न-कभी किसी-न-किसी को यह कहते तो ज़रूर सुना होगा कि ये औरतों के खाने की चीज़ है या ये सिर्फ़ लड़कियां खाती हैं। या फिर ये भाई खाएगा।

जेंडर और भोजन विकल्पों के बीच संबंध जटिल और बहुआयामी है। भले ही भूख एक सार्वभौमिक मानव अनुभव हो, लेकिन खाना तैयार करने, उपभोग और वितरण से जुड़े सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंड अक्सर गहराई से जेंडर से प्रभावित होते हैं। पारंपरिक रूप से खाना बनाने की ज़िम्मेदारी बड़ी संख्या में महिलाओं पर आती है। साथ ही, अधिकतर घरों में आज भी हमेशा अच्छी खाने की चीज़ें अक्सर पहले पुरुष के हिस्से ही आती है। खाना बनाने वाली भले ही स्त्री हो, लेकिन घर में क्या बनेगा यह अक्सर पुरुष के मन मुताबिक़ ही तय होता है। महिलाओं और लड़कियों में कुपोषण के लिए जैविक, सामाजिक-आर्थिक और व्यवहारिक जोखिम कारक पुरुषों और लड़कों की तुलना में अधिक हैं। जैविक जोखिम कारकों के संबंध में, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को सामान्य से अधिक प्रोटीन, ऊर्जा और सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है।

अक्सर मुझे और मेरे साथ की लड़कियों को खट्टा या चटपटा खाने से मना किया जाता रहा है। उनकी साथी को तो इमली-अचार जैसे चीजों को खाने पर उसकी पिटाई तक कर दी जाती थी। समाज में इसको लेकर एक आम धारणा बनी हुई है कि खट्टा या चटपटा खाने से लड़कियों के ब्रेस्ट का आकार बढ़ जाता है।

पौष्टिक भोजन से महिलाओं की दूरी

वैश्विक संकट महिलाओं की पौष्टिक भोजन तक पहुंच को लगातार बाधित कर रहे हैं। साल 2021 में, पुरुषों की तुलना में 126 मिलियन अधिक महिलाएं खाद्य असुरक्षित थीं, जबकि 2019 में 49 मिलियन अधिक थीं, जो खाद्य असुरक्षा के लैंगिक अंतर को दोगुना करने से भी अधिक है। साथ ही, पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में यह ध्यान रखा जाता है कि एक लड़का और लड़की क्या खा सकते हैं और क्या नहीं। कई खाने की चीज़ों को ‘फेमिनिन’ और ‘मैस्कुलिन’ का टैग दिया जाता रहा है। उदाहरण के लिए पुरुषों के लिए अक्सर मांसाहारी और उच्च कैलोरी वाले व्यंजनों को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि महिलाओं के लिए शाकाहारी हल्के विकल्पों को प्राथमिकता दी जाती है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

लिंग-आधारित खाद्य वर्गीकरण व्यक्तिगत खाद्य चयन को आकार देते हैं क्योंकि लोग अपने जेंडर के लिए उचित माने जाने वाले खाद्य विकल्पों को चुनते हैं और सामाजिक अपेक्षाओं का पालन करने का दबाव महसूस करते हैं। यूनिसेफ की मार्च 2023 की रिपोर्ट के मुताबिक़ संकटग्रस्त देशों में 2020 के बाद से तीव्र कुपोषण 25 प्रतिशत तक बढ़ गया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि किशोर लड़कियों और महिलाओं के पोषण आपूर्ति पर प्रगति बहुत धीमी गति से हो रहा है। मामला इतना गम्भीर है कि विश्व का कोई भी क्षेत्र 2030 तक एनीमिया और बच्चों के जन्म के समय वजन कम होने की समस्या के वैश्विक लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पाएगा।

ध्यान दें तो इमली, अचार, कैरी, गोलगप्पे जैसे चटपटी चीज़ें ‘औरतों के खाने की चीज़’ कहकर संबोधित किया जाता है। वहीं दूध-दही-घी जैसे उत्पादों या अण्डा और मांस-मछली जैसी ताकत देने वाली चीज़ों को एक अर्से से मर्दों से जोड़कर देखा जाता रहा है। डेयरी उत्पादों के भरण-पोषण वाले गुणों को महिलाओं के लैंगिक भूमिका के साथ जोड़कर देखा जाता है जबकि मांस के सेवन से जुड़ी ताकत और वीरता को पुरुष आदर्शों के साथ जोड़ा जाता है। लेकिन असल में इन धारणाओं का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

मेरे घर में किसी दूसरे के घर से आया खाना अक्सर पहले महिलाएं खाती हैं। इसके पीछे का कारण साफ़ है कि अगर खाने से कुछ होना होगा तो महिलाओं को होगा और पुरुष सुरक्षित रहेंगे। यह घर के पुरुषों की एक तरह से सुरक्षा करने जैसा है।

कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी के किए गए एक शोध में 1700 लोगों को शामिल किया गया। इस शोध में पाया गया कि महिलाओं के मुक़ाबले पुरुष मांस खाना अधिक पसंद करते हैं क्योंकि उनका मानना है कि इससे उनकी मर्दों वाली छवि मज़बूत होती है। भारत में भी मनोवैज्ञानिक तौर पर आज भी ऐसी मान्यताएं कायम है। इसके अलावा कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी का एक और रिसर्च ‘मैस्कुलिनिटी एण्ड मेन्स रेजिस्टेंस टू मीट रिडक्शन’ में यह पाया गया कि समाज भी मर्दों को शाकाहारी स्वीकारने में असहज है।

क्या खाने का भी जेंडर है

इस विषय पर मीडिया के क्षेत्र में काम करने वाली 24 वर्षीय अनमोल चौहान कहती हैं, “इमली को हमेशा महिलाओं से जोड़कर ही देखते हैं, ख़ासकर उनकी प्रेग्नेंसी से। ऐसे में अगर कोई लड़का इमली खाता दिख जाए तो बस उसका लोग मज़ाक बनाना शुरू कर देते हैं।” ध्यान देने वाली बात है कि इमली को खाने पर भी कई रोक-टोक हैं। वह आगे बताती हैं, “अक्सर मुझे और मेरे साथ की लड़कियों को खट्टा या चटपटा खाने से मना किया जाता रहा है। उनकी साथी को तो इमली-अचार जैसे चीजों को खाने पर उसकी पिटाई तक कर दी जाती थी। समाज में इसको लेकर एक आम धारणा बनी हुई है कि खट्टा या चटपटा खाने से लड़कियों के ब्रेस्ट का आकार बढ़ जाता है।”

तस्वीर साभार: University of Hudderfield

खाने के मामले में घरों में भी भेदभाव कम नहीं होता। बिहार के रहने वाले सुंदरम बताते हैं, “मेरे घर में किसी दूसरे के घर से आया खाना अक्सर पहले महिलाएं खाती हैं। इसके पीछे का कारण साफ़ है कि अगर खाने से कुछ होना होगा तो महिलाओं को होगा और पुरुष सुरक्षित रहेंगे। यह घर के पुरुषों की एक तरह से सुरक्षा करने जैसा है।” कई घरों में लड़कियों को लड़कों के बाद ही खाना मिलता है। कई बार आर्थिक तंगी में घर में अगर पौष्टिक खाने का बंदोबस्त हो तो भी, उसपर पहला अधिकार घर के पुरुषों का ही होता है। यूनिसेफ की द स्टेट ऑफ़ फ़ूड सिक्योरिटी एण्ड न्यूट्रीशन इन द वर्ल्ड 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक़ वैश्विक स्तर पर 2019 में, 15 से 49 आयु वर्ग की हर तीन में से लगभग एक महिला एनीमिया से प्रभावित थी। यूनिसेफ के 2024 के रिपोर्ट में बताया गया है कि वंचित और गरीबी में रहने वाली किशोरियों और महिलाओं को अल्पपोषण और एनीमिया का ख़ामियाजा अधिक भुगतना पड़ता है। 

वैसे तो इन चीज़ों को महिलाओं से जोड़ना पूर्वाग्रह ही है। अक्सर सुनते और देखते आए हैं कि अगर कोई महिला गर्भ से है तो उसको खट्टा या भुनी हुई मिट्टी खाने का मन करता है। मैंने महिलाओं को गर्भधारण के समय यह सब खाते देखा है। मुझे लगता है शायद इन वजहों से खट्टी या चटपटी चीजों को लड़कियों से जोड़ दिया जाता है।

जेंडर और खाने के बीच का संबंध और पूर्वाग्रह  

यह समझना जरूरी है कि जेंडर और खाने के बीच का ये संबंध अक्सर सामाजिक पूर्वाग्रहों और धारणाओं पर आधारित होते हैं, जिसे पितृसत्ता पोषण देते हैं। इस पर पिछले क़रीब सात सालों से दिल्ली में रहकर पढ़ाई कर रहे 23 वर्षीय डेविड शर्मा कहते हैं, “गोलगप्पे, अचार और चटपटी चीज़ें खाना मुझे बहुत पसंद है। इमली और चूरन बचपन में ख़ूब खाया है, अब भी कहीं दिखे तो खा सकता हूं।” इन खाद्य पदार्थों को केवल महिलाओं से जोड़कर देखने के विषय पर वे कहते हैं, “वैसे तो इन चीज़ों को महिलाओं से जोड़ना पूर्वाग्रह ही है। अक्सर सुनते और देखते आए हैं कि अगर कोई महिला गर्भ से है तो उसको खट्टा या भुनी हुई मिट्टी खाने का मन करता है। मैंने महिलाओं को गर्भधारण के समय यह सब खाते देखा है। मुझे लगता है शायद इन वजहों से खट्टी या चटपटी चीजों को लड़कियों से जोड़ दिया जाता है।” 

तस्वीर साभार: Lady Shri Ram College for Women

कुछ खाद्य पदार्थों को कथित औरतों या पुरुषों के खाने की चीज़ के रूप में लेबल किए जाने जैसे इन पूर्वाग्रहों ने महिलाओं के लिए पोषण सुरक्षा को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। भोजन से जुड़े पूर्वाग्रह और रूढ़ियों ने महिलाओं के लिए पोषण और स्वायत्तता को सीमित कर दिया है। खाने का कोई जेंडर है और न ही दिया जाना चाहिए। जैविक कारणों से महिलाओं को पौष्टिक भोजन की उतनी ही जरूरत है, जितना कि पुरुषों को। साथ ही, संभव है कि खाने की ये चीज़ें पुरुषों को भी उतनी ही पसन्द हो। हर व्यक्ति की आहार आवश्यकताएं और पसंद उसकी व्यक्तिगत पोषण आवश्यकताओं, पसंद और समग्र स्वास्थ्य पर आधारित होनी चाहिए। किसी व्यक्ति का भोजन उसके जेंडर से नहीं, बल्कि उसकी शारीरिक आवश्यकताओं, स्वाद और स्वास्थ्य लक्ष्यों से निर्धारित होना चाहिए। इसलिए, जेंडर के आधार पर भोजन के संबंधों की वैधता को चुनौती देना और इसे केवल सामाजिक पूर्वाग्रहों और धारणाओं के रूप में समझना जरूरी है।

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