संस्कृतिसिनेमा लर्निंग टू स्केटबोर्ड इन ए वॉरज़ोनः युद्ध से घिरे अफगानिस्तान में लड़कियों के संघर्ष को बयां करती फिल्म

लर्निंग टू स्केटबोर्ड इन ए वॉरज़ोनः युद्ध से घिरे अफगानिस्तान में लड़कियों के संघर्ष को बयां करती फिल्म

बाफ़्टा और अकेडमी अवार्ड जीत चुकी यह डाक्यूमेंट्री अफगानिस्तान में लोगों की दिनचर्या और उनकी चुनौतियों को दिखाती है। 40 मिनट की ये फ़िल्म धारावाहिक की तरह बढ़ती है, जहां छोटी बच्चियों और अफगानी युवतियों के सफ़र से आप खुद को घिरा हुआ पाते है, जहां स्केटबोर्डिंग एक वैश्विक भाषा है, जो पिछले कईं वर्षों में एक अकल्पनीय स्थानों पर पहुंच गई है।

जब कभी हम युद्ध का सामना कर रहे देशों के बारे में सोचते हैं तो सबसे पहला ख़्याल हमें वहां के लोगों के बारे में आता है, उनके जीवन की अनिश्चितता हमारा ध्यान खींचती है और युद्धग्रस्त देशों में रहने वाले बच्चों की याद दिलाती हैं। युद्ध का सामना करने वाले देशों में हज़ारों ऐसी कहानियां होती हैं जो जीने के लिए लड़ती है, संघर्ष करती है और कभी नहीं झुकती। ऐसी ही कहानियां युद्ध से पीड़ित देशों पर बनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म “लर्निंग टू स्केटबोर्ड इन ए वॉरज़ोन” में दर्शायी गई है। कैरल डाइसिंगर द्वारा निर्देशित और एलेना आंद्रेइचेवा द्वारा निर्मित यह एक शॉर्ट ब्रिटिश डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म है जो 92वें अकादमी पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म के लिए अकादमी पुरस्कार जीत चुकी है। इस फिल्म में अफगानी लड़कियों और बच्चियों के जीवन को दिखाया गया है।

कवि पाश अपनी कविता ‘घास’ में लिखते है, “मैं घास हूँ, मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा, बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर, बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर” ऐसे ही ये लड़कियां युद्ध के बीच में मानो किसी बंजर ज़मीन में फूल की तरह उग आयी हो। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में जब महिलाओं पर वर्षों से अन्याय होता रहा तब कुछ महिलाओं ने मिल कर “स्केटिस्तान” नाम से एक संगठन बनाया। इस संगठन ने काबुल में 7000 से अधिक गरीब परिवारों के बच्चों को शिक्षा देने का ज़िम्मा उठाया जहां वे बच्चों को कुरान पढ़ाने के साथ-साथ प्राथमिक शिक्षा भी देती है। पढ़ाई के अलावा उन्हें वहां स्केटिंग सिखाई जाती हैं, ताकि युद्ध से पीड़ित बच्चें जो की कई बार मानसिक रूप से सशक्त नहीं हो पाते हैं उन्हें खेल के माध्यम से सशक्त बनाने और उनमें आत्मविश्वास पैदा करने पर जोर दिया जाता है।

कई लड़कियां जो कि काबुल के पिछड़े इलाकों से पढ़ने आती है वे बताती है कि मैं हमेशा छोटी रहना चाहती हूँ क्योंकि मुझे हमेशा स्केट करना हैं, हमारे कस्बे में लोग बड़ी लड़कियों को स्केट या पढ़ने नहीं देते और बाहर जाने से रोकते हैं। उनका मानना है कि औरतों को घर पर होना चाहिए न कि बाहर।

बाफ़्टा और अकेडमी अवार्ड जीत चुकी यह डाक्यूमेंट्री अफगानिस्तान में लोगों की दिनचर्या और उनकी चुनौतियों को दिखाती है। 40 मिनट की ये फ़िल्म धारावाहिक की तरह बढ़ती है, जहां छोटी बच्चियों और अफगानी युवतियों के सफ़र से आप खुद को घिरा हुआ पाते है, जहां स्केटबोर्डिंग एक वैश्विक भाषा है, जो पिछले कईं वर्षों में एक अकल्पनीय स्थानों पर पहुंच गई है। इसने नई पीढ़ियों को उस वातावरण को त्यागने की इजाज़त दी है जिसमें वे खुद को वर्षों से जकड़ा हुआ महसूस करते थे। हालांकि यह सच है कि अफगानी संस्कृति को युद्ध का सामना करना पड़ा है, जिसमें सबसे अधिक प्रभावित इसकी महिला आबादी रही है। ऐसी स्थिति में ज़्यादातर महिलाओं को पढ़ने से रोका जाता है, धर्म के नाम पर डराया जाता है और जल्दी शादी करने के लिए मजबूर किया जाता हैं। जिससे कई महिलाओं का जीवन पुरुषों पर निर्भर हो जाता है, उससे भी अधिक एक ऐसे समाज में जो पितृसत्तात्मक है और निडर महिलाओं से उखड़ता है।

काबुल जैसे शहर में स्केटबोर्डिंग लड़कों के लिए एक खोज है, जिसमें लड़कियों से अधिक पारंपरिक विनम्र शौक अपनाने की उम्मीद की जाती है। उन्हें एक ऐसे शहर में भी रहना पड़ता है जहां लड़कियों और युवा महिलाओं पर हमले और उनका अपहरण आम बात है। लेकिन स्केटिस्तान में छोटी बच्चियों का स्केट को अपनाने, उससे गिरने और फिर से खड़े उठने का सफ़र फ़िल्म को अपने विषय वस्तु के लिए अनूठा बनाती हैं। बाहर ये लड़कियां जो सहमी-सी रहती है स्केटिस्तान में ये नन्हीं लड़कियां हेलमेट पहनकर, स्केटबोर्ड पर कूदकर मजा ले सकती हैं। जिन देशों में किसी भी व्यक्ति का स्केटर होना एक आम बात है वहीं स्केटिस्तान के छात्र चार छोटे पहियों पर एक क्रांति का प्रतिनिधित्व करती दिखती हैं, ये छोटी काबुल की लड़कियां एक ऐसे देश में सच्चे नारीवादी आदर्शों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो लंबे अरसे से हिंसक, उथल-पुथल और स्वतंत्रता की कमी से प्रभावित है। स्केटिंग और कक्षा दोनों में, वे आत्मविश्वास सीखती हैं, अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीखती है और खुद को ढूँढने की यात्रा में सराबोर होती रहती हैं जहां वे पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देती हुई दिखाई पड़ती है।

जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है, यह स्पष्ट हो जाता है कि स्केटिस्तान एक स्कूल से अधिक है। यह एक ऐसा समुदाय है जहां लड़कियां आत्मविश्वास और जीवन कौशल प्राप्त करती हैं जो उन्हें अपने भविष्य को नेविगेट करने में मदद करेगी।

ये डॉक्यूमेंट्री न केवल फाउंडेशन की खेल शिक्षण प्रक्रिया को दिखाने पर केंद्रित है, बल्कि यह प्रत्येक लड़की की जीवन शैली और उनकी कहानी पर भी केंद्रित है। फ़िल्म में कई शिक्षक बच्चियों को पढ़ाते हुए दिखेंगी, जो उन्हें उनकी ग़लती पर विचार करना सिखाती हैं, उन्हें दोबारा से आत्माविश्वास से भरपूर करने के लिए पढ़ाते हुए हंसी-मज़ाक करती है ताकि वहां के जीवन से उनके मन में जो डर पैदा हुआ है वे उसका सामना कर सकें। कुछ शिक्षक साक्षात्कारों में अपने डर के बारे में बताती है, बच्चों के अत्मविश्वास को बढ़ाने में अपने प्रयास को साझा करते हुए वे जोड़ती हैं, उन्हें इन बच्चों को पढ़ाना अच्छा लगता है और उन्हें खुद भी हिम्मत मिलती है कि वे इतने मुश्किल समय में भी बच्चियों के लिए कुछ कर पाने में सक्षम हैं। दूसरी ओर स्केट शिक्षक अफगानिस्तान के सामाजिक ढांचों के बारे में जोड़ते हुए कहती हैं कि हमें यहां डर लगता है पता नहीं कब क्या हो जाए, लेकिन फिर भी हम हमारे बच्चों को सहेज कर रखते हैं, उन्हें उन्मुक्त तौर पर सोचना सिखाते हैं और आज़ादी का मतलब समझाते हैं।

फिल्म का एक दृश्य, तस्वीर साभारः IMDb

यहां, हम देखते हैं कि कैसे शिक्षक न केवल शैक्षिक पाठ्यक्रम को पूरा करने में बल्कि बच्चों को मानसिक और भावनात्मक ताकत देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। वे बच्चे जो हिंसा और असुरक्षा के माहौल में बड़े हो रहे हैं, उन्हें एक नई आशा और साहस मिलता है। शिक्षक उनके लिए प्रेरणा बन जाते हैं, उन्हें जीवन की कठिनाइयों से लड़ने का हौसला देते हैं। दूसरी ओर छोटी लड़कियां साक्षात्कार के दौरान स्केटबोर्ड में चढ़ने से लेकर उसके साथ नए स्टाइल को अपनाने के बारे में बताती हैं। ये कई लड़कियां जो कि काबुल के पिछड़े इलाकों से पढ़ने आती है वे बताती है कि मैं हमेशा छोटी रहना चाहती हूँ क्योंकि मुझे हमेशा स्केट करना हैं, हमारे कस्बे में लोग बड़ी लड़कियों को स्केट या पढ़ने नहीं देते और बाहर जाने से रोकते हैं। उनका मानना है कि औरतों को घर पर होना चाहिए न कि बाहर।

इन बच्चों की माँएं कहती नज़र आती है कि हमारी शादी बहुत कम उम्र में करवा दी गई और उसके बाद युद्ध होने की वजह से सब कुछ बिखर गया इसलिए अब हम चाहते हैं कि हमारे बच्चें कुछ सीख लें। ताकि वे आगे जा कर कुछ बन पाए। हम नहीं चाहते कि हमारी बेटियां भी वही कुछ सामना करे जो हमने किया है। हम चाहते हैं कि वे अपने सपनों को पूरा करें और अपनी आज़ादी से जिए। जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है, यह स्पष्ट हो जाता है कि स्केटिस्तान एक स्कूल से अधिक है। यह एक ऐसा
समुदाय है जहां लड़कियां आत्मविश्वास और जीवन कौशल प्राप्त करती हैं जो उन्हें अपने भविष्य को नेविगेट करने में मदद करेगी। स्केटिस्तान में शिक्षक और स्वयंसेवक इस परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो न केवल अकादमिक सहायता प्रदान करते हैं, बल्कि लड़कियों को खुद पर और अपनी क्षमताओं पर विश्वास करने के लिए भी सिखाते हैं।

बाहर ये लड़कियां जो सहमी-सी रहती है स्केटिस्तान में ये नन्हीं लड़कियां हेलमेट पहनकर, स्केटबोर्ड पर कूदकर मजा ले सकती हैं। जिन देशों में किसी भी व्यक्ति का स्केटर होना एक आम बात है वहीं स्केटिस्तान के छात्र चार छोटे पहियों पर एक क्रांति का प्रतिनिधित्व करती दिखती हैं।

डॉक्यूमेंट्री के आखिरी हिस्सों में दर्शक इन युवा लड़कियों और शिक्षक के सपनों और आकांक्षाओं को देखते हैं, जिसमें डॉक्टर और शिक्षक बनने से लेकर एथलीट और पत्रकार बनने तक के सपने शामिल हैं। यह फ़िल्म के व्यापक संदेश को रेखांकित करता है कि प्रतिबंधात्मक मानदंडों के प्रभुत्व वाले समाज में ये लड़कियां अपेक्षाओं की अवहेलना कर रही हैं और सपने देखने और हासिल करने के अपने अधिकार को अपना रही हैं। “लर्निंग टू स्केटबोर्ड इन अ वॉरज़ोन” संघर्ष क्षेत्रों में शैक्षिक और मनोरंजक पहलुओं के प्रभाव के लिए एक शक्तिशाली डाक्यूमेंट के रूप में काम करता है। जो दर्शाता है कि कैसे ऐसे कार्यक्रम सामान्य स्थिति की भावना प्रदान कर सकते हैं, व्यक्तिगत विकास को बढ़ावा दे सकते हैं और सबसे चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में भी बेहतर भविष्य की आशा को प्रेरित कर सकते हैं।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content