ब्रेस्टफीडिंग को एक बहुत ही ‘सामान्य प्रक्रिया’ माना जाता है, जिसे दुनिया भर में माँएं अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए करती हैं। लेकिन अमूमन माँओं से सुनने को मिलता है कि वे ब्रेस्टफीड कराना तो चाहती हैं पर इसमें उन्हें कठिनाई हो रही है। हमारे समाज में ये धारणा मौजूद है कि माँ बनते ही एक महिला प्राकृतिक तरीके से ब्रेस्टफीड कर पाएंगी, जबकि असल में ये एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे सीखने की जरूरत होती है। हमारे सांस्कृतिक रूढ़ियों के कारण अधिकतर महिलाएं दूसरी महिलाओं को अपने जीवनकाल में ब्रेस्टफीड कराते हुए नहीं देखती हैं।
कई महिलाओं के लिए के लिए यह पता लगाना मुश्किल है कि यह प्राकृतिक प्रक्रिया कैसे की जाती है। सभी बच्चे यह जानते हुए पैदा नहीं होते कि क्या करना है, और कभी-कभी प्रसव, जन्म की प्रक्रिया और दवाएं पहले कुछ दिनों में बच्चे की सफलतापूर्वक ब्रेस्टफीडिंग कराने की क्षमता को प्रभावित कर सकती हैं। यह महत्वपूर्ण है कि महिलाओं को आसान और सुरक्षित ब्रेस्टफीडिंग कराने के लिए जरूरत अनुसार जरूरी चिकित्सकीय सहायता और जानकारी हो।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (एनएफएचएस) के अनुसार, पिछले पांच सालों में एक घंटे के भीतर अपने नवजात बच्चों को ब्रेस्टफीड कराने वाली महिलाओं की संख्या में कमी आई है। एनएफएचएस-5 की रिपोर्ट अनुसार 17 राज्यों और पांच केंद्र शासित प्रदेशों में से दादरा और नगर हवेली और दमन और दीव में तीन साल से कम उम्र के बच्चों का प्रतिशत सबसे कम था, जिन्हें जन्म के एक घंटे के भीतर ब्रेस्टफीड कराया गया था। इसके बाद बिहार, सिक्किम, त्रिपुरा, तेलंगाना और गुजरात का स्थान था। वैश्विक स्तर पर, हर साल ब्रेस्टफीड न कराने के कारण 59,5379 बच्चों की मौत होती है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के अनुसार अच्छी तरह से ब्रेस्टफीड में हर साल कैंसर और टाइप II डायबीटीज़ से होने वाली 98,243 माँओं की अतिरिक्त मृत्यु को रोकने की क्षमता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि ब्रेस्टफीड से छोटे बच्चों, उनकी माँओं और देशों के लिए स्वास्थ्य, मानव पूंजी और भविष्य के आर्थिक लाभ हैं।
ब्रेस्टफीडिंग से जुड़े मिथक और चुनौतियां
असल में ये एक मिथक है कि ब्रेस्टफीडिंग हर किसी के लिए आसान है। हजारों महिलाओं का अनुभव बताता है कि उन्हें ब्रेस्टफीडिंग कराते हुए शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक या सांस्कृतिक दिक्कतें हुई। हालांकि कभी-कभी ब्रेस्टफीड कराने वाली माँएं, या जो माँएं ब्रेस्टफीड नहीं करा सकतीं, यह तय कर सकती हैं कि उन्हें फ़ॉर्मूला का इस्तेमाल करने की जरूरत है। घरों में और चिकित्सकीय दुनिया में भी ब्रेस्टफीडिंग को लेकर विभिन्न मिथक और रूढ़ियां मौजूद हैं जो इसे और मुश्किल बनाता है। ब्रेस्टफीडिंग और फ़ॉर्मूला के इस्तेमाल से जुड़ी मिथकों और चुनौतियों के बारे में बात करते हुए ब्रेस्टफीडिंग सपोर्ट फॉर इंडियन मदर्स (बीएसआईएम) की संस्थापक और सीईओ आधुनिका प्रकाश कहती हैं, “समस्या ये है कि ब्रेस्टफीडिंग की समस्याओं पर कोई बात नहीं करता। हमारी पिछली पीढ़ी तक ब्रेस्टमिल्क के विकल्प का पुरजोर मार्केटिंग किया जा रहा था।”
वह आगे बताती हैं, “हमारी माँएं भी समझती थीं कि डब्बे का दूध ब्रेस्टमिल्क से बेहतर है। पिछले दौर के कई बाल रोग विशेषज्ञों और चिकित्सकों में लैक्टैशन एजुकेशन की कमी थी। हालांकि आज स्थिति में सुधार है पर समस्या आज भी मौजूद है। बच्चे का रोने का कारण कुछ भी हो सकता है। एक माँ को ये नहीं बताया जाता कि ब्रेस्टफीड सही और बेहतर तरीके से कैसे करें। चूंकि ब्रेस्टफीडिंग की समस्याओं का सामना महिलाएं करती हैं, इसलिए भी इस मुद्दे को महत्व नहीं दी जाती।” बाजार की रणनीति जिसके तहत फार्मूला जैसे उत्पादों को लॉन्च किया जाता है और जीवन में उनके उपयोग को बढ़ावा देने के लिए एक शून्य बनाया जाता है, एक चुनौती है जिसे संबोधित करने की जरूरत है।
ब्रेस्टफीडिंग पर अनुभव साझा करते हुए बैंगलोर में रह रही शैक्षिक सलाहकार नयन मेहरोत्रा कहती हैं, “मेरी ब्रेस्टफीडिंग की जर्नी काफी मुश्किल भरी रही है। मेरे एक ब्रेस्ट में दूध बन रहा था पर दूसरे में नहीं हो रहा था। अस्पताल में चार्ज लेने के बावजूद, मुझे प्रशिक्षित लैक्टैशन कन्सल्टन्ट की मदद नहीं मिली। जब नर्स ने मेरी ब्रेस्टफीडिंग की समस्या से निपटने के लिए कुछ नुस्खे अपनाए, तो मुझे और तकलीफ होने लगी। मेरी बेटी लैच नहीं कर पा रही थी और न ही मैं करा पा रही थी। मैंने अलग-अलग लैक्टैशन कन्सल्टन्ट से भी संपर्क की, पर ये एक प्रकार का बिजनस मॉडल बन गया है। मुझे ऐसे भी कन्सल्टन्ट मिले जो एक घंटे के लिए 2500 हजार रुपए लिए पर मेरी मदद नहीं की।”
आज भी घरों में उम्रदराज महिलाएं ब्रेस्टफीडिंग से जुड़ी मिथकों को जारी रखती हैं। कम उम्र की माँओं को पूरी तरह प्रोत्साहित या समर्थित नहीं किया जाता। आज सिर्फ महिलाओं को ही नहीं, दूसरे सदस्यों और खासकर पिताओं को ब्रेस्टमिल्क और ब्रेस्टफीड पर वैज्ञानिक जानकारी होनी चाहिए।
ब्रेस्टमिल्क और ब्रेस्टफीडिंग पर मिले वैज्ञानिक जानकारी
मॉमप्रेसो के किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 70 प्रतिशत भारतीय माँओं को ब्रेस्टफीड कराते समय चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन, सार्वजनिक जगहों पर ब्रेस्टफीड और ब्रेस्टफीडिंग की समस्याओं पर बातचीत से जुड़ी झिझक के साथ महिलाओं की शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति जुड़ी है। ब्रेस्टफीडिंग पर बातचीत करते हुए फेमिनिज़म इन इंडिया की संस्थापक जपलीन पसरीचा कहती हैं, “आज भी घरों में उम्रदराज महिलाएं ब्रेस्टफीडिंग से जुड़ी मिथकों को जारी रखती हैं। कम उम्र की माँओं को पूरी तरह प्रोत्साहित या समर्थित नहीं किया जाता। आज सिर्फ महिलाओं को ही नहीं, दूसरे सदस्यों और खासकर पिताओं को ब्रेस्टमिल्क और ब्रेस्टफीड पर वैज्ञानिक जानकारी होनी चाहिए।” यूनिसेफ़ के 2017 की रिपोर्ट अनुसार देश में 6 महीने से कम उम्र के बच्चों में इक्स्क्लूसिव ब्रेस्टफीड कराने की 55 फीसद व्यापकता के बावजूद हर साल दस्त और निमोनिया के कारण लगभग 99,552 बच्चों की मौत हो जाती है, जिसे ब्रेस्टफीड से रोका जा सकता था।
पिछले दौर के कई बाल रोग विशेषज्ञों और चिकित्सकों में लैक्टैशन एजुकेशन की कमी थी। हालांकि आज स्थिति में सुधार है पर समस्या आज भी मौजूद है। बच्चे का रोने का कारण कुछ भी हो सकता है। एक माँ को ये नहीं बताया जाता कि ब्रेस्टफीड सही और बेहतर तरीके से कैसे करें। चूंकि ब्रेस्टफीडिंग की समस्याओं का सामना महिलाएं करती हैं, इसलिए भी इस मुद्दे को महत्व नहीं दी जाती।
क्या खुले तौर पर ब्रेस्टफीड कराना विशेषाधिकार है
ब्रेस्टफीड पर अपने अनुभव बताते हुए जपलीन कहती हैं, “मैं समझती हूं कि मैं एक विशेषाधिकार वाली महिला हूं। इसलिए, जिन जगहों पर मैं जाती हूं वहां मुझे अपने बच्ची को सार्वजनिक तौर पर ब्रेस्टफीड कराने में परेशानी नहीं होती। असल में एक समय पर ब्रेस्टफीडिंग सार्वजनिक तौर पर आसान था। आज वेस्टर्न नैरेटिव के कारण ये मुश्किल हो गया है।” विश्व स्वास्थ्य संगठन बच्चे के जीवन के पहले 6 महीनों तक सिर्फ ब्रेस्टफीड कराने की बात कहता है, और पहले 6 महीनों के बाद 2 साल की उम्र तक ब्रेस्टफीड और पूरक आहार जारी रखने की सलाह देता है।
ब्रेस्टफीडिंग के लिए आधुनिका कहती हैं, “हम ‘फ्रीडम टू नर्स’ पिटिशन पर काम कर रहे हैं जिसमें हम सार्वजनिक तौर पर ब्रेस्टफीड कराने वाली माँओं की सुरक्षा के लिए कानून की मांग कर रहे हैं। उन्हें कोई भेदभाव का सामना न करना पड़े। ब्रेस्टफीड कराती महिलाओं को उस जगह से जाने के बाध्य नहीं किया जा सकता। ब्रेस्टफीड से 100 फीसद लोग प्रभावित होते हैं। इसलिए, ब्रेस्टफीडिंग और सुरक्षित ब्रेस्टफीड पर खर्च करना ताकि आम आबादी का का बेहतर स्वास्थ्य हो और चिकित्सकीय खर्च कम हो, एक समझदार कदम है।”
ब्रेस्टफीड कराती महिलाओं को उस जगह से जाने के बाध्य नहीं किया जा सकता। ब्रेस्टफीड से 100 फीसद लोग प्रभावित होते हैं। इसलिए, ब्रेस्टफीडिंग और सुरक्षित ब्रेस्टफीड पर खर्च करना ताकि आम आबादी का का बेहतर स्वास्थ्य हो और चिकित्सकीय खर्च कम हो, एक समझदार कदम है।”
ब्रेस्टफीड की समस्याएं और चुनौतियां
ब्रेस्टफीडिंग की समस्याओं पर अपना अनुभव साझा करते हुए एक राष्ट्रीय परोपकारी संस्था में काम कर रही हैदराबाद की रहने वाली डिवेलप्मेनल प्रोफेशनल तथागता बासु कहती हैं कि ब्रेस्टफीडिंग की समस्या असल में प्रसव के पहले से ही शुरू हो जाती है। वह बताती हैं, “मेरी डेलीवेरी काफी कॉम्प्लेक्स थी। मेरी स्थिति का अंदाज़ा करते हुए और सर्जरी की तैयारी करते हुए मुझे डेलीवेरी से एक दिन पहले से फ्लूइड पर रखा गया। डेलीवेरी के बाद, लैक्टैशन काउन्सलर आए और मुझे लैचिंग के तरीके बताए गए पर चूंकि मैं पहली बार माँ बनी थी, मुझे समझ नहीं आया कि बच्चा पर्याप्त रूप से दूध नहीं पी रहा था और मैं पर्याप्त ब्रेस्टमिल्क नहीं बना रही थी। मुझे डॉक्टर, लैक्टैशन कन्सल्टन्ट और सारी सुविधाओं के बावजूद, समस्याओं की जानकारी पूरी तरह नहीं दी गई। मेरी शिक्षित और जागरूक होने के बावजूद, जब भी ब्रेस्टफीड में दिक्कत हुई, मुझे बहुत ज्यादा मॉम गिल्ट होता था। एक समस्या ये भी है कि महिलाओं को जरूरत अनुसार पोस्टपार्टम सपोर्ट नहीं मिलता।”
एक माँ के लिए ब्रेस्टफीडिंग की अलग-अलग समस्या हो सकती है। ये समझने की जरूरत है कि ब्रेस्टफीडिंग चुनौतीपूर्ण, मुश्किल और दर्दनाक भी हो सकता है। जहां एक ब्रेस्टफीड कराने वाली महिला के लिए बच्चे का लैच न करना समस्या हो सकती है, वहीं किसी दूसरी कामकाजी माँ के लिए काम के या सार्वजनिक जगहों पर ब्रेस्टफीडिंग रूम न होना चुनौती हो सकती है। एक माँ कहां या किस तरह ब्रेस्टफीड कराना चाहती हैं, ये पूरी तरह उनका निर्णय होना चाहिए। समाज और परिवार का महिलाओं को इस बात का अपराधबोध महसूस नहीं करवाया जाना चाहिए कि वे खुदको बिना ढके बच्चे को दूध पिला रही हैं।
डेलीवेरी के बाद, लैक्टैशन काउन्सलर आए और मुझे लैचिंग के तरीके बताए गए पर चूंकि मैं पहली बार माँ बनी थी, मुझे समझ नहीं आया कि बच्चा पर्याप्त रूप से दूध नहीं पी रहा था और मैं पर्याप्त ब्रेस्टमिल्क नहीं बना रही थी। मुझे डॉक्टर, लैक्टैशन कन्सल्टन्ट और सारी सुविधाओं के बावजूद, समस्याओं की जानकारी पूरी तरह नहीं दी गई।
अध्ययनों से पता चलता है कि है कि ब्रेस्टफीडिंग से अकादमिक प्रदर्शन में सुधार होता है, दीर्घकालिक आय और उत्पादकता में भी बढ़ोतरी होती है। मेडिकल पत्रिका लैंसेट ने पाया कि ब्रेस्टफीड न कराने से होने वाली काग्निटिव नुकसान, जो कमाई के क्षमता को प्रभावित करती है, हर साल 302 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाती है। लैंसेट के अनुसार भारत बेहतर आईक्यू के माध्यम से सालाना 0.6285 बिलियन अमेरिकी डॉलर जोड़ सकता है। निम्न और मध्यम आय वाले देशों को ब्रेस्टफीडिंग की कम दर के कारण हर साल 70 बिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान होता है, जबकि उच्च आय वाले देशों को हर साल 230 बिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान होता है।
बाजार विश्लेषकों ने पाया है कि 2008 से 2012 तक भारत में दूध के फार्मूले की बिक्री 24,428 टन से बढ़कर 27,783 टन हो गई है। भारत ने 1992 में एक कानून और संशोधन अधिनियम 2003 बनाया है जो 2 साल से कम उम्र के सभी शिशु आहारों के प्रचार पर प्रतिबंध लगाता है। जरूरी है कि हर राज्य में इसे प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। ब्रेस्टफीडिंग से जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए तत्काल सार्वजनिक और निजी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों में ब्रेस्टफीड सलाहकारों की नियुक्ति होनी चाहिए, जो माँओं को शिक्षित और जागरूक करे और कुशल व्यावहारिक सहायता प्रदान करे। कार्यस्थल पर में पर्याप्त ब्रेस्टफीडिंग अवकाश और जगह मुहैया कराकर मातृत्व सुरक्षा प्रदान किया जा सकता है। ये भी जरूरी है कि ब्रेस्टफीडिंग के मामले में हम ‘ब्रेस्ट’ को आब्जेक्टिफाइ न करें और ब्रेस्ट और ब्रेस्टफीडिंग के अंतर को समझें और सार्वजनिक या निजी जगहों पर महिलाओं के ब्रेस्टफीडिंग के सफर को आसान बनाने में अपनी भूमिका निभाएं।