भारत में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल में आस्था के आधार पर नीम हकीम चिकित्सकों की भूमिका एक जटिल और विवाद वाला विषय है। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए चिकित्सक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन अमानवीय उपचार विधियों का सहारा लेने की खबरें सामने आती रहती हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, इस विषय पर चर्चा बहुत कम होती है। दक्षिण एशिया में पूजा स्थल – मंदिर, चर्च, दरगाह और मस्जिद – विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के लोगों को आकर्षित करते हैं, जो विभिन्न प्रकार की मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं और विकारों से पीड़ित हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए मदद लेने वाले भारतीयों की पहली पसंद हमेशा थेरपी या सामान्य एलोपैथी चिकित्सा नहीं होती है।
अधिकांश भारतीय आस्था के आधार पर उपचार करने वालों को प्राथमिकता देते हैं और यह सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़ा है और स्वास्थ्य क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं की कमी से प्रेरित है। बहुत से लोग धर्म और आध्यात्मिकता को अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए मददगार मानते हैं, लेकिन वही कई लोगों के लिए धर्म मनोवैज्ञानिक तनाव, दर्दनाक यादों और ट्रॉमा का स्रोत है। उन लोगों के लिए आगे का रास्ता क्या है जिन्हें धर्म ने ठीक होने के बजाय नुकसान पहुंचाया है? इस मामले में मेरा खुद का निजी अनुभव यह कहता है कि जब मैं शारीरिक और मानसिक बीमारी से पीड़ित थी, तब तमाम चिकित्सीय उपचार के बाद घरवालों ने धार्मिक तरीके से उपचार कराना चाहा। उन्हें लग रहा था कि दवा के साथ दुआ भी ज़रूरी है, जो मेरे लिए किसी ट्रॉमा से कम नहीं था।
मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सक बनाम धार्मिक चिकित्सा
चेन्नई स्थित सिज़ोफ्रेनिया रिसर्च फाउंडेशन की निदेशक थारा श्रीनिवासन कहते हैं कि शोध से पता चला है कि 70 फीसद से ज़्यादा लोग मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों के पास जाने से पहले कुछ हफ़्तों या महीनों तक आस्था या पारंपरिक चिकित्सकों से मदद लेते हैं। यह दिखाता है कि लोग अक्सर नीम हकीम की ओर रुख करते हैं जब वे मानसिक समस्याओं से पीड़ित होते हैं। हालांकि मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों के पास मानसिक बीमारियों के इलाज के लिए वैज्ञानिक और सिद्ध तरीके होते हैं। वे मनोवैज्ञानिक उपचार और दवाओं का उपयोग करके मानसिक समस्याओं का इलाज करते हैं, वहीं धार्मिक चिकित्सा उनके लिए नुकसानदेह हो सकती है।
शोध से पता चला है कि कई लोगों का धार्मिक आस्था, आध्यात्मिकता और मानसिक स्वास्थ्य के बीच सकारात्मक संबंध है। किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य चाहने वाला व्यवहार धर्म और सांस्कृतिक प्रथाओं, पारिवारिक दबाव और वित्तीय बाधाओं द्वारा प्रदान की जाने वाली सहायता प्रणालियों और मुकाबला करने के तंत्रों द्वारा निर्धारित होती है। हालांकि, मानसिक स्वास्थ्य के उपचार में आस्था चिकित्सा की भूमिका पर बहस विभाजित है। विवाद का मुख्य कारण अमानवीय अनुष्ठान और उपचार के तरीके हैं। उदाहरण के तौर पर, 2001 में तमिलनाडु के एरावाडी में एक आस्था-आधारित मानसिक स्वास्थ्य शरण में आग लगने से 28 रोगियों की मौत हो गई थी, जिन्हें उपचार के लिए खंभों से जंजीरों से बांध दिया गया था।
मुस्लिम समुदायों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं
मुस्लिम समुदायों के बीच आत्माओं द्वारा कब्जे के बुरे प्रभावों को लेकर चिंताएं आम हैं। सेज जर्नल ने अपने ईस्ट लंदन बांग्लादेशियों के सामुदायिक अध्ययन में पाया है कि लोग अक्सर शारीरिक और मानसिक बीमारियों के लिए पारंपरिक चिकित्सकों का सहारा लेते हैं, खासकर जब जिन्न का कब्जा या जादू-टोना शामिल होने की बात महसूस हो। आस्था के उपचारक जिन्न की पीड़ा के इलाज के लिए धार्मिक हस्तक्षेपों का उपयोग करते हैं, जैसे कि दम किया हुआ पानी पीने को देना आदि। इन उपचारों का उद्देश्य जिन्न की पीड़ा को दूर करना और व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ बनाना होता है। लेकिन इसका दुष्प्रभाव भी ज्यादा देखने को मिला है।
मानसिक स्वास्थ्य देखभाल और पारंपरिक चिकित्सकों की भूमिका
रिपोर्टों के अनुसार भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की कमी है। यहां प्रशिक्षित मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों की कमी के कारण, लोग आस्था आधारित उपचार की ओर बढ़ते हैं। भारत में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल एक जटिल और विविध क्षेत्र है, जहां पारंपरिक चिकित्सक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वहीं मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं अक्सर अनुपलब्ध होती हैं, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, और मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं अक्सर महंगी होती हैं, जिससे लोग उन्हें अफोर्ड नहीं कर पाते हैं। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के इलाज में पारंपरिक चिकित्सकों का उपयोग किया जाता है, लेकिन उनकी प्रभावकारिता और एलोपैथिक उपचार के साथ उनके संबंधों पर सवाल उठाए जाते हैं। एक अध्ययन में पाया गया कि लगभग दो तिहाई लोग और उनके परिवार मानसिक बीमारी के अलौकिक कारणों में विश्वास रखते हैं और पारंपरिक चिकित्सकों से परामर्श करते हैं।
यह दर्शाता है कि पारंपरिक चिकित्सकों का उपयोग मानसिक बीमारी के इलाज के लिए किया जाता है। एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि लगभग 88 फीसद रोगियों ने आस्था चिकित्सकों से परामर्श किया, लेकिन केवल 2.12 फीसद रोगियों ने उनके द्वारा उपचार के बाद सुधार की सूचना दी। ग्रामीण गुजरात में एक अध्ययन में पाया गया कि जिन रोगियों और परिवारों का इलाज चिकित्सक और पारंपरिक चिकित्सक दोनों ने किया, उनमें से अधिकांश ने जैव-चिकित्सा उपचार को प्राथमिकता दी। अधिकांश उत्तरदाताओं ने कहा कि पारंपरिक चिकित्सक मानसिक बीमारी के इलाज में प्रभावकारी नहीं हैं। यह दर्शाता है कि एलोपैथिक उपचार को अधिक प्रभावकारी माना जाता है।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवा की स्थिति और अनदेखी
भारत में रिपोर्टों से पता चलता है कि यहां पेशेवरों की भारी कमी है। प्रशिक्षित मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों की कमी के कारण लोग आस्था आधारित उपचार की ओर बढ़ते हैं, जो अक्सर जानकर नहीं होते हैं। मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की कमी, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता, और उनकी महंगी दरें इस समस्या के मुख्य कारण हैं। मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं अक्सर अनुपलब्ध होती हैं, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, और मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं महंगी होती हैं, जिससे लोग उन्हें अफोर्ड नहीं कर पाते हैं। भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र को सबसे कम प्राथमिकता दी जाती है और इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में बहुत कम निवेश होता है।
मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति और भी खराब है। 2017-18 में भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के लिए मात्र 5 मिलियन डॉलर आवंटित किए गए थे। लेकिन खर्च केवल 650,000 डॉलर से थोड़ा अधिक हुआ। इस कमी के कारण मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और उपलब्धता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इससे मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों को उचित उपचार और समर्थन नहीं मिल पाता है, जिससे उनकी स्थिति और भी खराब हो सकती है।
धर्म और स्वास्थ्य के बीच संबंध
धर्म और स्वास्थ्य के बीच एक जटिल और बहुस्तरीय संबंध है। धर्म जहां कुछ लोगों को मानसिक शांति और आशा प्रदान करता है, वहीं धार्मिक तरीके से इलाज स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव भी डाल सकता है, खासकर महिलाओं और पितृसत्तात्मक समाज के संदर्भ में। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को अक्सर अपने स्वास्थ्य के बारे में निर्णय लेने के लिए पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे उन्हें उचित उपचार नहीं मिल पाता है और स्वास्थ्य समस्याएं और बढ़ सकती हैं।
साथ ही, धार्मिक तरीके से इलाज में अक्सर महिलाओं की स्वायत्तता और अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है, जिससे उनके स्वास्थ्य और कल्याण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए, स्वास्थ्य समस्याओं के लिए धार्मिक तरीके से इलाज के बजाय वैज्ञानिक उपचार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जो साक्ष्य-आधारित और सुरक्षित हो। लोगों को अपने स्वास्थ्य के बारे में जागरूक रहना चाहिए और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए, ताकि वे स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जी सकें। धार्मिक और पारंपरिक तरीके से इलाज सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है।