इंटरसेक्शनलजेंडर इन महिला ई-रिक्शा ड्राइवरों ने चुनी अपनी आर्थिक आज़ादी

इन महिला ई-रिक्शा ड्राइवरों ने चुनी अपनी आर्थिक आज़ादी

ये महिलाएं डटकर पितृसत्तात्मक समाज के रास्तों पर अपने स्वाभिमान का ई-रिक्शा दौड़ा रही हैं।

सालों से औरतों को यही कहकर पुरुषों की गुलामी करवाई गई है कि वे कमाते हैं। इसीलिए महिलाएं पुरुषों पर आश्रित हैं। आर्थिक निर्भरता के कारण बड़ी संख्या में महिलाएं आज भी घरों में हिंसा और शोषण सहने को मजबूर हैं। ऐसे मामलों में महिलाओं को सबसे अधिक इस बात की चिंता होती है कि अगर वे इस हिंसात्मक और शोषणकारी रिश्ते निकल भी गईं तो उनकी आजीविका का क्या होगा? उत्तर भारत के कुछ इलाकों में पति के लिए एक और शब्द का प्रयोग होता है। वह शब्द है ‘भरतार’ यानि भरण पोषण करने वाला। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में परिवार के कमाने वाले सदस्य की सेवा और अधीनता स्वीकार करनी ही पड़ती है।

हालांकि नारीवादी कभी भी इस तर्क को स्वीकार नहीं करते कि घरों में बिना वेतन काम करने वाली औरतों का योगदान कम है लेकिन यह विचारधारा यह ज़रूर मानती है कि आर्थिक रूप से स्वावलंबी बने बिना महिलाएं कभी उस आज़ादी और बराबरी को हासिल नहीं कर पाएंगी जिनका सपना हम सब देखते हैं। इस मुद्दे पर लखनऊ स्थित हमसफ़र महिला सहायता केंद्र की केस वर्कर और कोऑर्डिनेटर ऋचा रस्तोगी कहती हैं, ‘हम अमूमन यह देखते थे कि संघर्षशील महिलाएं इसलिए तलाक़ या अन्य ठोस कदम नहीं उठा पाती थी क्योंकि उनके पास आय का कोई और ज़रिया नहीं था। खास कर तब जब उनके साथ बच्चे हो और तो और मायके वाले भी साथ ना दे रहे हो।’

साल 2003 में संघर्षशील और सामाजिक गैरबराबरी से जूझ रही महिलाओं और किशोरियों के गरिमापूर्ण जीवन और लैंगिक समानता के अपने सपने के साथ हमसफ़र सहायता केंद्र ने लखनऊ में अपना काम शुरू किया। इसी क्रम में पराधीनता को नारीमुक्ति के रास्ते की सबसे बड़ी चुनौती मानते हुए हमसफ़र ने एकल महिलाओं को स्वरोज़गार से जोड़ने का निर्णय किया पर इस के साथ ही समाज में प्रचलित अन्य नारीविरोधी मानसिकता को तोड़ने के लिए उन्होंने इस कार्य को अलग तरह से करने की ठानी। हमसफ़र ट्रस्ट द्वारा महिलाओं को ई-रिक्शा चलाने की ट्रेनिंग दी गई। अमूमन हमें सड़कों पर ई-रिक्शा चलाते हुए पुरुष ही नज़र आते हैं।

ये महिलाएं डटकर पितृसत्तात्मक समाज के रास्तों पर अपने स्वाभिमान का ई-रिक्शा दौड़ा रही हैं।

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हमसफ़र द्वारा कई इच्छुक महिलाओं को ई-रिक्शा चलाने की ट्रेनिंग देनेवाली टीम की सदस्य अफ़रोज़ बताती हैं, ‘हमारे लिए यह काम आसान नहीं था। इन महिलाओं को ई-रिक्शा चलाने की ट्रेनिंग के साथ-साथ जेंडर और कई दूसरी क्षमता वर्धन ट्रेनिंग भी दी जाती है।’ ई-रिक्शा ड्राइवर ललिता बताती हैं, ‘मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे इस तरह का सम्मान मिलेगा। आज मैं अपनी दो बेटियों को अकेले पढ़ा रही हूं। अपने और अपने परिवार का खर्चा उठाती हूं। मुझे पति तो क्या अपने पूरे परिवार के किसी पुरुष के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता। साथ ही जहां घर में रहने की वजह से यह माना जाता था कि औरतों को व्यवहारिक ज्ञान नहीं होता। वहीं, दूसरी ओर अब मैं बाहर-बाहर घूमकर इतनी दुनियादारी सीख गई हूं कि लोग अब मेरे पास सलाह लेने आते हैं।’

ममता गौतम, स्वीर साभार: ऋत्विक दास

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एक और ई-रिक्शा ड्राइवर रशीदा अपने अनुभव हमसे साझा करते हुए बताती हैं, ‘मैं जब नई-नई सड़क पर ई-रिक्शा लेकर गई और एक कॉलेज के सामने खड़ी हुई तो मन में काफ़ी संकोच था पर जैसे ही युवाओं के समूह ने मुझे देखा और उनमें से कुछ ने आकर कहा कि क्या हम आपके साथ सेल्फी ले सकते हैं तो मेरी आंखों में आसूं आ गए। कभी सोचा नहीं था कि इतना अच्छा लगता हैं और गर्व महसूस होता हैं अपने पैरों पर खड़े होकर।’ हालांकि इस रास्ते में चुनौतियां कम कभी नहीं थी। पुष्पा अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बताती हैं, ‘कई बार लोग, खासकर पुरुष ई-रिक्शा ड्राइवर कहते थे कि औरत क्या ई-रिक्शा चला पाएंगी? यूं तो हर रोज़ सड़कों पर कई घटनाएं घटती हैं पर हमसे जरा सी गाड़ी लहर जाए, सबसे पहले लोगों के मुंह से यही निकलता है कि औरत चला रही है न इसलिए।’

पुष्पा तस्वीर साभार: ऋत्विक दास

हमसफ़र की ट्रस्टी अरुंधति धुरू कहती हैं, ‘समाज में कोई भी परिवर्तन एक दिन में नहीं आता पर हम बदलाव लाने का प्रयास ही न करें तो यह गलत होगा। हमसफ़र ने सिर्फ इनको अपने पैरों पर खड़े होने में इनकी सहायता की है पर वास्तव में इन्होंने अपनी लड़ाई लड़ी है और अपने मेहनत और हौसले के बल पर अपने जीवन और समाज में परिवर्तन लेकर आईं है। ये महिलाएं न सिर्फ खुद को आज़ाद करेंगी बल्कि इन्हें देखकर इनके आस-पास की जो औरतें पराधीनता के चलते अत्याचार सहने को मजबूर हैं, उन्हें भी आज़ाद करेंगी। इन ई-रिक्शा ड्राइवरों से बात करके पता चला कि इनके ई-रिक्शा चलाने से न सिर्फ इन्हें बल्कि अन्य महिलाओं को काफ़ी सुविधा मिली। कई कामकाजी औरतें जो देर तक काम इसलिए नहीं कर पाती थी क्योंकि उन्हें अंधेरे में पुरुष ड्राइवर की गाड़ियों में सुरक्षित महसूस नहीं होता था, जबसे इन लोगों से मिलीं तो झट से इनका नंबर ले लिया। अब वे आराम से काम खत्म करके इनकी ई-रिक्शा में बिना हिचकिचाहट के आती-जाती हैं। ये महिलाएं डटकर पितृसत्तात्मक समाज के रास्तों पर अपने स्वाभिमान का ई-रिक्शा दौड़ा रही हैं।

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तस्वीर साभार : ऋत्विक दास

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