समाजकानून और नीति क्या है नारीवादी न्यायशास्त्र और कानूनी प्रणालियों को नारीवादी नज़रिये से देखने की क्यों है ज़रूरत

क्या है नारीवादी न्यायशास्त्र और कानूनी प्रणालियों को नारीवादी नज़रिये से देखने की क्यों है ज़रूरत

नारीवादी न्यायशास्त्र इस विश्वास पर आधारित है कि कानून महिलाओं की ऐतिहासिक अधीनता में मौलिक रहा है। नारीवादी कानूनी सिद्धांत की परियोजना दोहरी है। सबसे पहले, नारीवादी न्यायशास्त्र उन तरीकों की व्याख्या करना चाहता है जिसमें कानून ने महिलाओं की पूर्व अधीनस्थ स्थिति में भूमिका निभाई।

नारीवादी न्यायशास्त्र जिसे नारीवादी कानूनी सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है। यह आंदोलनों और विचारधाराओं का एक संग्रह है जिसका उद्देश्य महिलाओं के लिए समान सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, कानूनी अधिकारों की स्थापना और बचाव करना है। यह महिलाओं के लिए समान अधिकारों का समर्थक है। नारीवादी न्यायशास्त्र हमारे समाज द्वारा निर्मित शून्यता, पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर को उजागर करता है। यह एक ऐसा विषय है जो पिछले कुछ वर्षों में प्रकाश में आया है लेकिन तथ्य यह है कि यह लंबे समय से विकसित हो रहा था। नारीवादी सिद्धांत, नारीवादी आंदोलनों का परिणाम है। इसका उद्देश्य महिलाओं की सामाजिक भूमिकाओं और उनकी जीवित अनुभव की जांच करके लैंगिक असमानता की प्रकृति को समझना है।

नारीवादी न्यायशास्त्र लिंगों की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समानता पर आधारित कानून की फिलोसॉफी है।नारीवादियों का मानना ​​है कि सदियों पुराने कानून और प्रथाएं पुरुषों के कानूनी दृष्टिकोण से बनाई गई हैं और महिलाओं के दृष्टिकोण और इतिहास (महिलाओं द्वारा सामना की जा रहीं मुश्किलों और परेशानियों को) में उनकी भूमिका को प्रतिबिंबित नहीं करती हैं। पुरुष-लिखित इतिहास ने मानव स्वभाव, लैंगिक क्षमता और सामाजिक व्यवस्था की अवधारणाओं में पूर्वाग्रह पैदा कर दिया है। नारीवादी न्यायशास्त्र का मानना है कि मौजूदा अधिकतर कानून की भाषा, तर्क और संरचना पुरुष-निर्मित हैं और पुरुष मूल्यों को पुष्ट करती हैं।

नारीवादी न्यायशास्त्र दर्शन और सिद्धांत के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है। यह विमर्श के एक अन्य क्षेत्र यानी कानून और न्याय में महिला प्रतिबिंबों और भाषण की भागीदारी का एक स्वाभाविक विस्तार है।

नारीवादी न्यायशास्त्र इस विश्वास पर आधारित है कि कानून महिलाओं की ऐतिहासिक अधीनता में मौलिक रहा है। नारीवादी कानूनी सिद्धांत की परियोजना दोहरी है। सबसे पहले, नारीवादी न्यायशास्त्र उन तरीकों की व्याख्या करना चाहता है जिसमें कानून ने महिलाओं की पूर्व अधीनस्थ स्थिति में भूमिका निभाई। दूसरा, नारीवादी कानूनी सिद्धांत कानून के पुनर्रचना और लिंग के प्रति इसके दृष्टिकोण के माध्यम से महिलाओं की स्थिति को बदलने के लिए समर्पित है। 

नारीवादी न्यायशास्त्र में विचार के तीन प्रमुख स्कूल हैं:

सांस्कृतिक (Cultural) नारीवाद: यह विचारधारा पुरुषों और महिलाओं के मोरल और एथिकल मूल्यों को वॉइस देने पर केंद्रित है। यह स्कूल पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर की सराहना करता है और उसका जश्न मनाता है।

उदार (liberal) नारीवाद: यह स्कूल व्यक्ति की स्वतंत्रता, पुरुष सत्ता की पुरानी धारणा से मुक्ति को बढ़ावा देता है और लिंग आधारित भेदभाव को मिटाने का प्रयास करता है।

कट्टरपंथी (radical) और प्रमुख (dominant) नारीवाद: यह स्कूल कुछ मायनों में सांस्कृतिक नारीवाद के समान है, वे महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली असमानता के खिलाफ भी खड़े हैं, वे उन पारंपरिक प्रथाओं को त्यागने में विश्वास करते हैं जो पुरुषों के दृष्टिकोण से बनाई गई थीं और पुरुषों को श्रेष्ठ मानती हैं।

नारीवादी घरेलू हिंसा, बलात्कार, तलाक, भरण-पोषण, प्रजनन अधिकार और रोजगार से संबंधित कानूनों पर सवाल उठाने की कोशिश करते हैं। समय के साथ-साथ उन्होंने लिंग भेदभावपूर्ण कानूनों को लिंग तटस्थ कानून में महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया है।

कानूनी प्रणालियों को नारीवादी नज़रिए से देखने की ज़रूरत क्यों है?

तस्वीर साभारः Lawpinion

नारीवादी न्यायशास्त्र दर्शन और सिद्धांत के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है। यह विमर्श के एक अन्य क्षेत्र यानी कानून और न्याय में महिला प्रतिबिंबों और भाषण की भागीदारी का एक स्वाभाविक विस्तार है। भारतीय दंड संहिता जो 1860 में लॉर्ड मैक्युले द्वारा लिखी गई थी, पितृसत्ता का प्रतिबिंब है। यह संहिता समाज की पुरुष-केंद्रित संरचना का प्रतिनिधित्व करती है। भारत में पुरुष केंद्रित मूल्यों को लागू करने वाले कानूनों का पता 5वीं शताब्दी ई.पू. में लगाया जा सकता है, जब मनुस्मृति विकसित की गई थी। इसके अंतर्गत पुरुषों और महिलाओं की भूमिकाओं और जिम्मेदारी को वर्गीकृत किया गया था। मनुस्मृति में कई जगह महिलाओं को हीन बताया गया और साथ ही उनकी तुलना जानवरों से भी की गयी।

महिलाओं के लिए कानूनों की संरक्षणवादी व्याख्या

भारतीय अदालतें स्वयं कानूनों की व्याख्या करते समय बड़े पैमाने पर समाज को इसे समझाना कठिन बना देती हैं। न्याय प्रदान करने के तंत्र के रूप में न्यायालय एक संरक्षणवादी की भूमिका निभाता है। महिलाएं कमजोर हैं और पुरुषों से अलग हैं, इस आधार पर अलग-अलग कानूनों की व्याख्या समाज में असंतुलन पैदा करती है। कुछ बातें पढ़कर साधारण विवेक वाला आदमी यह जरूर सोचेगा कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में कमजोर होती हैं और उनके लिए आगे भी कानून इसी प्रकार के बनाए जाते हैं। जब ऐसी विचारधारा दिमागों में चलती है, तो भेदभाव और पितृसत्ता निर्णयों में सामने आती है।

नारीवादी घरेलू हिंसा, बलात्कार, तलाक, भरण-पोषण, प्रजनन अधिकार और रोजगार से संबंधित कानूनों पर सवाल उठाने की कोशिश करते हैं। समय के साथ-साथ उन्होंने लिंग भेदभावपूर्ण कानूनों को लिंग तटस्थ कानून में महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया है।

नारीवादी कानूनी सिद्धांत और साहित्य अकादमिक संस्थानों में ही विकसित हुआ है और फला-फूला है। नारीवादी कार्यकर्ता और वकील देश में हुए क़ानूनों में बड़े बदलावों के लिए जिम्मेदार हैं, इसके बावजूद नारीवादी तर्क का न्यायिक निर्णय लेने पर कम स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। अधिकतर, अदालतें ‘पूर्व-निर्णय’ लेने के सिद्धांत और ‘स्पष्ट तटस्थता’ की भाषा पर भरोसा करती हैं। दोनों दृष्टिकोण कानून में अंतर्निहित और संरचनात्मक पूर्वाग्रहों को छुपाने का काम करते हैं, जिससे यह देखना मुश्किल हो जाता है कि नारीवाद न्यायिक निर्णय लेने के लिए क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण विस्तार कैसे प्रदान करता है।

उदाहरण के लिए डब्ल्यू.कल्याणी के मामले में, यह माना गया था कि व्यभिचार के अपराध (यह व्यभिचार का कानून अब असंवैधानिक है) के लिए केवल पुरुषों पर मुकदमा चलाया जा सकता है और महिलाओं पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। नारीवादी समूहों द्वारा इस मामले में न्यायालय द्वारा महिलाओं के बारे में एक मजबूत लैंगिक पूर्वाग्रह दिखाने के आधार पर फैसले की आलोचना की गई। यह एक विवाहित महिला की स्थिति को लगभग उसके पति की संपत्ति बना देता है।

तस्वीर साभारः Theshorthorn.com

यह एक लैंगिक पूर्वाग्रह था कि महिलाओं को पुरुषों के अधीन और उनके अधिकार क्षेत्र के रूप में देखा जाता था। भारतीय अदालत को यह समझने में लगभग 160 साल लग गए कि महिलाएं, पुरुषों की कोई संपत्ति नहीं हैं और उनका दर्जा निश्चित रूप से पुरुषों के बराबर है। अनुच्छेद 14 में समानता का प्रावधान होने के बाद न्यायालय ने कानून की आधारहीन व्याख्या करना जारी रखा। बाद में अदालत ने माना कि बेटी पर पितृसत्तात्मक राजतंत्र नहीं हो सकता है या, उस मामले के लिए, पत्नी पर पति का राजतंत्र नहीं हो सकता है। इसके अलावा, मर्दाना प्रभुत्व का सामुदायिक प्रदर्शन नहीं हो सकता। न्यायालय ने धारा 497 को असंवैधानिक क़रार कर दिया। धारा 497 पर पारित निर्णय लैंगिक तटस्थता की दिशा में एक कदम है, लेकिन निश्चित रूप से, उन पूर्वाग्रहों की पहचान करने में पहले ही बहुत देर हो चुकी है जिनसे एक महिला गुज़री है। संविधान में दिए गए प्रावधानों के बाद भी न्यायालयों द्वारा लैंगिक तटस्थता की अवधारणा को न समझ पाने के कारण प्रथम दृष्टया महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन हुआ है।

महिलाओं की सुरक्षा हमेशा संविधान की मानसिकता रही है लेकिन समस्या उसकी व्याख्या में आती है। न्यायालय यदि पूर्वाग्रहों को ध्यान में नहीं रखें तो महिलाओं के हक़ में अच्छा फैसला देते हैं। परन्तु यदि यही न्यायालय पूर्वाग्रहों के आधार पर चलते हैं तो एक 15 साल की पत्नी के साथ पति द्वारा किया गया यौन संबंध भी वैध क़रार कर देती हैं। लेकिन समय के साथ न्यायालय फैसलों में नारीवादी समझ का दायरा बड़ा कर रही हैं। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को अधिक संजीदगी से उजागर किया जा रहा है। अपनी पत्नी के साथ ज़बरदस्ती सम्भोग हो या फिर 18 वर्ष से काम आयु कि पत्नी के साथ किया गया संभोग, दोनों को ही क़ानून कि दृष्टि में अपराध माना जाने लगा है।

न्यायालयों द्वारा नारीवादी तर्क न्याय की क्षमता बढ़ाता है 

कुछ साल पहले कैंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा एक दिलचस्प परियोजना शुरू की गई थी, जिसे द यूनाइटेड स्टेट्स फेमिनिस्ट जजमेंट्स प्रोजेक्ट के नाम से जाना जाता है। उन्होंने नारीवादी तर्क का उपयोग करते हुए 1800 के दशक से लेकर आज तक लिंग पर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के सबसे महत्वपूर्ण मामलों को फिर से लिखने के लिए विद्वानों और वकीलों के एक समूह को एक साथ लाये थे। इस परियोजना ने सर्वोच्च न्यायालय के 21 मामलों को उठाया और उन मामलों में शामिल मुद्दों पर नारीवादी तर्क लागू किया। उस आधार पर निर्णयों को दोबारा लिखा गया और निष्कर्ष यह निकला कि पहले से स्वीकृत न्यायिक परिणाम आवश्यक या अपरिहार्य नहीं थे। इससे यह भी निष्कर्ष निकला कि नारीवादी तर्क न केवल महिलाओं के लिए, बल्कि कई अन्य उत्पीड़ित समूहों के लिए भी न्याय की न्यायिक क्षमता बढ़ाता है।

महिलाओं की सुरक्षा हमेशा संविधान की मानसिकता रही है लेकिन समस्या उसकी व्याख्या में आती है। न्यायालय यदि पूर्वाग्रहों को ध्यान में नहीं रखें तो महिलाओं के हक़ में अच्छा फैसला देते हैं। परन्तु यदि यही न्यायालय पूर्वाग्रहों के आधार पर चलते हैं तो एक 15 साल की पत्नी के साथ पति द्वारा किया गया यौन संबंध भी वैध क़रार कर देती हैं।

उच्चतम न्यायालय के पूर्व जस्टिस ए के सीकरी कहते हैं, “नारीवादी चेतना न्याय करने के गुणों को आत्मसात करने में मदद करती है; जो दया से युक्त है- न्याय जिसमें करुणा का गुण है। यह स्त्रीत्व का गुण है जो वांछित संवेदनशीलता पैदा करता है जिसकी विभिन्न प्रकार के मामलों और विभिन्न परिस्थितियों में आवश्यकता होती है। यह सर्वविदित है कि महिलाओं में छठी इंद्रिय होती है। न्यायिक कार्यों का निर्वहन करते समय, समय बीतने के साथ न्यायाधीशों में न्याय की भावना आ जाती है, जो उनकी छठी इंद्रिय है। हालांकि इसके लिए एक पूर्व शर्त है, अर्थात् यह कि आपको न्याय के प्रति स्त्री दृष्टिकोण रखने की आवश्यकता है। भाषा के संदर्भ में, कुछ नारीवादी न्यायाधीश अलंकारिक रणनीतियों का उपयोग कर सकते हैं जो सामान्य कथा से कुछ अलग हैं। साथ ही, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि कानून न केवल पहले से मौजूद लिंग-केंद्रित वास्तविकताओं पर काम करता है, बल्कि उन वास्तविकताओं के निर्माण में भी योगदान देता है।”

भारत में भी, नारीवादी विद्वानों, चिकित्सकों और कानून और अन्य क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं द्वारा इसी तरह की एक पहल की गई थी, जिसे द इंडियन फेमिनिस्ट जजमेंट्स प्रोजेक्ट (आईएफजेपी) नाम दिया गया था। इस तरह की परियोजनाएं समान संवैधानिक और कानूनी बाधाओं का पालन करते हुए अलग-अलग निर्णय लेने के लिए न्यायाधीश के कार्य की मौलिक रूप से पुनर्कल्पना करके नारीवादी सिद्धांत और व्यवहार के बीच विभाजन को पाटने के लिए एक महत्वपूर्ण शिक्षण उपकरण के रूप में कार्य करती हैं।


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