हाल ही में आई खबर अनुसार केन्द्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) आपातकालीन गर्भनिरोधक गोलियों या मॉर्निंग-आफ्टर पिल्स की ओवर-द-काउंटर (ओ.टी.सी.) बिक्री पर; प्रतिबंध लगाने की सिफारिश करने की योजना बना रहा है। छह सदस्यीय सीडीएससीओ विशेषज्ञ उप-समिति की स्थापना तमिलनाडु सरकार के सितंबर 2023 में 62वीं ड्रग्स कंसल्टेटिव कमिटी की बैठक के दौरान, ‘अतार्किक उपयोग’ पर चिंताओं का हवाला देते हुए ओ.टी.सी. हार्मोनल गर्भ निरोधकों पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव रखने के बाद की गई थी। भारत जैसे देश में जहां सेक्स शादी के लिए बाद ‘अनिवार्य’ और शादी के पहले ‘गलत’ समझा जाता है, वहां बालिग लोगों के सहमति के साथ भी शारीरिक संबंध का जिक्र मुश्किल है।
सेक्स एजुकेशन की कमी, न सिर्फ अनचाहे गर्भ, बल्कि कई समस्याओं को जन्म देती है, जिसका मूल रूप से महिलाएं और हाशिये के समुदाय सामना करती हैं। हालांकि सीडीएससीओ की चिंता जायज़ है, लेकिन आपातकालीन गर्भनिरोधक गोलियों (ई.सी.पी.) को प्रिस्क्रिप्शन दवाई बनाने का प्रस्ताव करने से पहले, गोलियों के कथित अंधाधुंध इस्तेमाल के कारणों की जांच की जानी चाहिए। साथ ही, इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि ईसीपी को गर्भनिरोधक के विकल्प के रूप में नहीं माना जा सकता है। ये सिर्फ आपातकालीन उपयोग के लिए है, जिनपर प्रतिबंध महिलाओं और क्वीयर लोगों के शरीर, जीवन के साथ-साथ यौन और प्रजनन अधिकारों पर और अधिक नियंत्रण का कारण बनेगा।
भारत में ई.सी.पी. की शुरुआत, प्रयोग और जागरूकता
भारत में, ई.सी.पी. को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2002 में पेश किया गया था और 2005 में इसे ओवर-द-काउंटर दवा बना दिया गया। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के अनुसार एक तिहाई से भी कम महिलाओं को ई.सी.पी. के बारे में जानकारी है और एक प्रतिशत से भी कम ने कभी भी इसका उपयोग किया है। वहीं वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2010-11 में शामिल 8 राज्यों के आंकड़ों से पता चलता है कि लगातार ई.सी.पी. का उपयोग 0.2 प्रतिशत से भी कम हो रहा है। खुदरा बाजार से ई.सी.पी. बिक्री की वर्तमान स्थिति पर एसी नील्सन ओआरजी मार्ग की शॉप ऑडिट रिपोर्ट से पता चलता है कि पिछले 5 सालों में ई.सी.पी. की बिक्री लगभग 4 गुना बढ़ गई है। साल 2008 में 4.9 मिलियन से यह बढ़कर 2013 में 16.4 मिलियन हो गई।
लेकिन आज भी भारत में चुनिंदा राज्यों और लोगों के अलावा, ई.सी.पी. की सही जानकारी और पहुंच लोगों तक नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार कुल बिक्री का 71 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में है, जो राष्ट्रीय जनसंख्या का मात्र 29.8 प्रतिशत है। रिपोर्ट बताती है कि 18 बड़े मेट्रो शहर कुल बिक्री में 29 प्रतिशत का योगदान देते हैं। दिल्ली एनसीआर कुल बिक्री में 8.6 प्रतिशत का योगदान देता है। मुंबई और कोलकाता का स्थान इसके बाद है। वहीं चेन्नई में ई.सी.पी. की बिक्री न के बराबर थी क्योंकि तमिलनाडु में इसकी बिक्री पर प्रतिबंध है। सरकार अपने स्वास्थ्य सुविधा केंद्रों पर ई.सी.पी. मुफ़्त देती है। साल 2011 से आशा कार्यकर्ता के माध्यम से सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर तक पहुंचने की कोशिश कर रही है। लेकिन, 2010 में वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार महज 0.12 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं ने कभी ई.सी.पी. का उपयोग किया था। एसी नीलसन की रिपोर्ट अनुसार हालांकि बाजार में ओ.सी.पी. के 42 ब्रांड बेचे जा रहे हैं, लेकिन सिर्फ कुछ ही ब्रांड बाजार में प्रमुख हिस्सेदारी में अपना योगदान देते हैं। इस कारण भी ई.सी.पी. तक लोगों की पहुंच नहीं बन पा रही है।
क्यों ई.सी.पी. की हमें सख्त ज़रूरत है
किशोरियों के समय से गर्भवती होने के मामलों पर गौर करें, तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, भारत सहित दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र में 15 से 19 वर्ष की आयु की लगभग 60 लाख किशोरियां प्रतिवर्ष बच्चों को जन्म देती हैं। ई.सी.पी. या मॉर्निंग आफ्टर पिल्स का उद्देश्य असुरक्षित यौन संबंध के बाद, 72 घंटे के भीतर लेकर गर्भधारण को रोकना है। इसलिए, इसे प्रिस्क्रिप्शन पिल बनाने से, महिलाओं के लिए अनचाहे और दुर्घटनावश गर्भधारण से खुद को बचाना मुश्किल हो सकता है। परिवार नियोजन, सूचना और शिक्षा सहित यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करना और राष्ट्रीय रणनीतियों और कार्यक्रमों में प्रजनन स्वास्थ्य का एकीकरण, संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में से एक है। ऐसे में इनपर प्रतिबंध महिलाओं को यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं से दूर करना और मानवाधिकारों का हनन है।
ई.सी.पी. और भारत में चिकित्सक और सामाजिक रुकावटें
हर साल निम्न और मध्यम आय वाले देशों में रहने वाली 74 मिलियन महिलाएं दुर्घटनावश गर्भवती हो जाती हैं। डबल्यूएचओ के अनुसार, हर साल 25 मिलियन असुरक्षित गर्भपात और 39,000 मातृ मृत्युएं होती हैं। स्क्रॉल में छपी खबर के अनुसार साल 2015 में भारत में 2.2 मिलियन यानी 14 फीसद सर्जिकल गर्भपात देखा गया। हालांकि लगभग 800,000 गर्भपात असुरक्षित तरीकों का उपयोग करके किया गया था। यह साबित करता है कि प्रगतिशील कानूनों के बावजूद, देश में अभी भी असुरक्षित गर्भपात किए जाते हैं। सुरक्षित गर्भपात तक पहुंच एक ऐसा पहलू है जो भारत में एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता का विषय है। वहीं, ई.सी.पी. को लेकर जागरूकता की बात करें, तो आज भी चिकित्सक तक न सिर्फ ई.सी.पी. बल्कि अन्य यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के विषयों को लेकर पितृसत्तातमक रवैया अपनाते हैं।
उत्तर प्रदेश में किए गए एक अध्ययन में, 96 फीसद डॉक्टरों को आपातकालीन गोली के काम करने के तरीके के बारे में सही जानकारी नहीं थी। पॉपुलेशन काउंसिल इंस्टीट्यूट के स्त्री रोग विशेषज्ञों के बीच किए गए एक अन्य अध्ययन से भी पता चलता है कि विशेषज्ञों के बीच भी 96 फीसद डॉक्टर इस गोली की सटीक मेकनिज़म से अनजान थे। भारत में आज भी गर्भनिरोध महिलाओं की जिम्मेदारी मानी जाती है। विभिन्न सरकारी या गैर सरकारी विज्ञापनों पर गौर करें, तो समझ आता है कि कैसे गर्भनिरोध आज भी महिलाओं की एकल जिम्मेदारी मानी जाती है। इंडियन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ के एक रिपोर्ट अनुसार आपातकालीन गर्भनिरोधक गोलियों के बार-बार इस्तेमाल का अनुपात 12 फीसद से 69 फीसद तक था। पांच अध्ययनों में ई.सी.पी. के उपयोग न करने के कारणों की रिपोर्ट की गई, जिसमें सबसे आम कारण धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताएं थीं। इसके बाद, इसके साइड इफ़ेक्ट का डर और इसे लेकर अपर्याप्त जानकारी थी।
देश में महिलाओं पर गर्भनिरोध की एकल जिम्मेदारी
वहीं राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) से पता चलता है कि 15 से 49 वर्ष की आयु के बीच के हालांकि 99 फीसद से अधिक शादीशुदा पुरुष और महिलाएं गर्भनिरोधक की कम से कम एक आधुनिक विधि के बारे में जानते हैं। साथ ही, उनका उपयोग साल 2015-16 और 2019-21 के बीच 47.8 फीसद से बढ़कर 56.5 फीसद दर्ज हुआ। सर्वेक्षण के अनुसार देश में हर 10 में से एक से भी कम पुरुष कंडोम का उपयोग करते हैं। इसलिए, आज भी महिला गर्भनिरोधक स्टेरलाइज़ेशन तरीका की सबसे लोकप्रिय प्रक्रिया बनी हुई है। पिछले पांच सालों में यह 36 फीसद से बढ़कर 37.9 फीसद हो गई है। पुरुषों का स्टेरलाइज़ेशन प्रक्रिया महिलाओं के प्रक्रिया से सुरक्षित और आसान होने के बावजूद, आज भी 0.3 फीसद है। वहीं सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश, बिहार और तेलंगाना जैसे राज्यों में 50 फीसद पुरुषों ने यह भी कहा कि गर्भनिरोधक महिलाओं का मामला है और पुरुषों को इसके बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए।
ऐसे में जब ई.सी.पी. पर प्रतिबंध लगाने की बात सोची जाती है, तो सीधे तौर पर इससे महिलाओं के यौन और प्रजनन स्वास्थ्य पर नियंत्रण की रणनीति दिखाई पड़ती है। साथ ही, ये महिलाओं को सर्जिकल तरीके से गर्भनिरोधक स्टेरलाइज़ेशन चुनने के लिए और ज्यादा बाध्य करेगी। ये सामाजिक रूढ़िवाद और पितृसत्तातमक सोच ही है, जो ओवर-द-काउंटर ई.सी.पी. इस्तेमाल करने को नैतिकता से जोड़ती है, विशेषकर इसलिए कि इसे आपातकालीन स्थिति में इस्तेमाल किया जाता है। बात जब सेक्स से जुड़ी हो और शादी के बिना हो, या शादी में महिलाओं की एजेंसी की बात हो, तो ये हमारे सामाजिक व्यवस्था में नकारा जाता है। आम धारणा के उलट, डबल्यूएचओ के मुताबिक आपातकालीन गर्भनिरोधक के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवाएं भविष्य में प्रजनन क्षमता को नुकसान नहीं पहुंचाती हैं।
ई.सी.पी. का प्रयोग सिर्फ असुरक्षित यौन संबंध के बाद गर्भावस्था से बचने के लिए ही नहीं, बल्कि संभावित गर्भनिरोधक विफलता के बारे में चिंता, गर्भनिरोधकों का गलत उपयोग, और गर्भनिरोधक कवरेज के बिना यौन उत्पीड़न में महत्वपूर्ण है। सभी महिलाओं और किशोरियों को अनचाहे गर्भधारण के जोखिम से बचने का अधिकार है और इसलिए इन दवाओं तक पहुंच आसान और किफ़ायती होनी चाहिए। ओ.टी.सी. आपातकालीन गर्भनिरोधक पर व्यापक जांच और सर्वेक्षण के बिना इसपर प्रतिबंध लगाने के बजाय, सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि इन विधियों को सभी राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रमों में नियमित रूप से शामिल किया जाए और बढ़ावा दिया जाए।