बिहार की संस्कृति और परंपरा की महत्वपूर्ण पहचान बन चुकी शारदा सिन्हा को बिहार की कोकिला कहा जाता हैं। बिहार की लोकगीत और छठ की कल्पना उनके गीतों के बिना नहीं की जा सकती हैं। सिन्हा की गायकी करियर की शुरुआत 1970 के दशक में हुई थी। तब से लेकर आजतक शारदा सिन्हा की आवाज छठ के पर्व में बनी रही है और बनी रहेंगी। सिन्हा ने भोजपुरी, मैथिली और हिंदी भाषा में लोकगीत गाए हैं। उनके गाने और गीतों ने न केवल बिहार, बल्कि दुनिया के अलग-अलग इलाकों में बसे लोकगीत प्रेमियों के दिलों में एक अलग ही जगह बनाई है। उनकी गायकी में बिहार से पलायन, स्त्रियों के संघर्ष और बिहार के समाज की काफी बात है।
बिहार, जो अपने गौरवशाली अतीत की चादर से वर्तमान की फटेहाली को ढकने का प्रयास करता है, उसके मुकुट में तो कुछ ही रत्न बचे हैं, जिसमें से एक शारदा सिन्हा थीं। उस बिहार के लिए तो यकीनन शारदा सिन्हा का जाना अपूरणीय क्षति है। अब उनकी अनुपस्थिति ने मंथन के लिए कई प्रश्न छोड़े हैं, मसलन बिहार के समाज में शारदा सिन्हा होने का क्या अर्थ है? इस प्रश्न पर विद्वानों में कोई मतभेद नहीं है, सब एक स्वर में मानते हैं कि बिहार के समाज में शारदा सिन्हा का होना धारा के विपरीत जाना है।
वरिष्ठ पत्रकार निराला बिदेसिया, शारदा सिन्हा की यात्रा को याद करते हुए कहते हैं, “जिस तरीके से उन्होंने गीतों का चयन किया, जड़ता को तोड़ा, स्त्रियों को गाने के लिए सार्वजनिक मंच तक लेकर आईं, उनके पहले ऐसा दिखता ही नहीं है। उनसे पहले अलग ही युग था। उस दौर में जब भोजपुरी गीत स्त्रियों के तन की ओर जा रहे थे, वह उसे स्त्रियों के मन की ओर लेकर आईं। गांव की आम महिलाओं की आवाज बनीं, उनके मनोभाव पर गीत गाए। इस तरह देखें तो उन्होंने क्रांतिकारी परिवर्तन लाए है।” बातचीत में बिदेसिया, शारदा सिन्हा को एक बेहद मर्मस्पर्शी उपमान देते हैं- लोकनायिका। वह कहते हैं, “वह जड़ता तोड़ने वाली गायिका थीं, जो अपने काम की वजह से नायिका की परिधि में आई, जिसे लोकनायिका कहते हैं।” इस उपमान को सुनते ही शारदा सिन्हा की छवि मन में अचानक ही ताजा हो जाती है और याद आता है कि जब वह केवल सुर साध रही होती थीं, तब भी दो और चीजें बड़ी खूबसूरती से साध जाती थीं- साड़ी और पान। उस पर माथे की लाल टिकुली (बिंदिया) के तो क्या ही कहने।
घर में हुआ था गाने का विरोध
शारदा सिन्हा की सास उनके गाने के खिलाफ थीं। वह समय ही ऐसा था। उस वक्त मंच पर सिर्फ बायजी लोग गाया करती थीं, जिन्हें अच्छा नहीं माना जाता था। शारदा सिन्हा इसका कोई प्रतिरोध नहीं किया कि मेरी शादी कैसे घर में हो गई, या सास से बात न करना या फिर गीत गाना छोड़ देना क्योंकि सास मना कर रही है, उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से परिवार के माहौल को प्रेम में बदल दिया। हालांकि, उनके पति ने उनका हमेशा साथ दिया। निराला एक किस्सा बताते हैं, “घर में उनका विरोध हुआ था, लेकिन बाद में जब उनके इलाके में उनका प्रोग्राम हुआ तो लोग शारदा सिन्हा के स्वागत में डेढ़ किलोमीटर लंबी लाइन लगाकर फूल की माला लिए खड़े थे।”
शारदा सिन्हा ने उठाया अलोकप्रिय होने का खतरा
गायकों पर अक्सर लोगों की जुबान पर बने रहना दबाव होता है। डर लगता है कि लोग उन्हें भूल न जाएं। लेकिन शारदा सिन्हा ने अलोकप्रिय होने का खतरा उठाया। जब बालेश्वर जैसे गायक ‘मोटका मुअरवा’ गाकर प्रसिद्ध हो रहे थे, उस समय भी शारदा सिन्हा उन गीतों को गा रही थी, जिसमें न नाम था, न दाम। मूलरूप से भोजपुरी भाषी न होने के बावजूद उन्होंने कभी इस भाषा को पराया न समझा, कुछ भी ऐसा नहीं किया, जिससे इस भाषा की गरिमा गिरे। बदले में भोजपुरी भाषियों ने दिल खोलकर शारदा सिन्हा से प्रेम किया।
शारदा सिन्हा की परंपरा
शारदा सिन्हा ने अपनी गायकी से दुनिया भर में नाम कमाया हैं, साथ ही अपनी परंपरा और स्वाभिमान को हमेशा बनाए रखा है। पिछले दो-तीन दशक में भोजपुरी संगीत के नाम पर अश्लीलता परोसकर ‘स्टार’ बने गायकों को हमने सत्ता का चारण गाते देखा है। सत्ता से सटकर कुछ-कुछ पाते, नेता बनते और साम्प्रदायिक होते देखा है, लेकिन शारदा सिन्हा इससे दूर रहीं। उन्होंने न बदलते समय का हवाला देखकर ‘गंदे’ गाने गए। न कोई लालच उन्हें कभी किसी सत्ता के दरबार तक खींच पाया। स्वाभिमान इतना कि जिंदगी भर समस्तीपुर में नौकरी करती रह गईं, लेकिन कभी पटना ट्रांसफर के लिए किसी से पैरवी नहीं लगाई। उनके लिए यह कितना ही मुश्किल था, इशारा भर करना था, लेकिन उन्होंने इस रास्ते को नहीं चुना।
लोकल को ग्लोबल बना दिया
शारदा सिन्हा ने 70 के दशक में जब छठ के गीतों को रिकॉर्ड किया, तब तक छठ के गीत निहायत ही निजी तौर पर गाए जा रहे थे। निराला याद करते हैं कि विंध्यवासिनी देवी ने भी छठ के गीतों में प्रयोग किया था, लेकिन वह प्रयोग नवाचार का था। उसे उस तरह की स्वीकृति नहीं मिली। दरअसल, छठ पारंपरिक गीतों का पर्व है। शारदा सिन्हा ने सीधा गांव के गीतों को उठाया और रिकॉर्ड कर दिया, ये नई बात थी। हजारों-लाखों महिलाओं ने इन गीतों से सीधा जुड़ाव महसूस किया, क्योंकि ये वो गीत थे, जो वो पूजा के दौरान अपने छोटे-छोटे समूहों में गाती थीं और अब छठ घाट पर सब के सामने लाउडस्पीकर में बजने लगा था।
निराला इसे परिवर्तनकारी काम मानते हैं। वह कहते हैं, “बिहारियों के लिए छठ सबसे बड़ा पर्व है। छठ के गीत ही पूजा के मंत्र और शास्त्र दोनों होते हैं। क्योंकि इनके अलावा कोई मंत्र या किताब होती नहीं है। जैसे आप ठेकुआ के बिना छठ नहीं कर सकते, वैसे गीत के बिना छठ नहीं होती। उन गीतों को सबसे पहले सुव्यवस्थित करने और लोकप्रिय बनाने का काम शारदा सिन्हा ने किया। आलम ये हो गया कि पलायन कर चुकी, जिन लड़कियों को छठ के गीत नहीं आते थे, वो शारदा सिन्हा के गीत बजाकर छठ करने लगीं।”
वह केवल कला और संगीत तक महदूद नहीं थीं, एक लंबे सफर के बाद वह पूरे पूर्वांचल की एकता, संस्कृति और पहचान का प्रतीक बन चुकी हैं। उनकी आवाज और उनके गीत बिहार की ‘आत्मा’ में गहरे रचे-बसे हैं। उनकी आवाज़ ने न केवल भोजपुरी संगीत को एक नई पहचान दी, बल्कि लोक गीतों की सजीवता और सार्थकता को भी सहेजा है। उन्होंने लोकगीतों और संगीत को समाज के भीतर एक नया आयाम दिया। बिहार के समाज और भोजपुरी संगीत पर उनका प्रभाव क्या है और उसके महत्व के बारे में बिहार की प्रतिष्ठित लोक गायिका चंदन तिवारी का कहना है, “बिहार के समाज में शारदा सिन्हा होने का अर्थ है, लोक की असल धारा से जुड़ी गायिका होना, जिन्होंने गांव के गलियों में गुम गीतों को भी सहेजा, फैलाया और उतनी ही शिद्दत से लोक साहित्य को भी संगीत से जोड़ा है। आजकल आप देखती होंगी कि पैरोडी का चलन है, फिल्मी धुनों पर गीतों का गायन पर शारदा सिन्हा ने लोक के मर्म को जिंदा रखा। वे भोजपुरी को एक रास्ता देकर गयी हैं, जिस रास्ते अगर भोजपुरी लोक जगत चले तो उसकी पहचान वैश्विक बन सकती है। शारदा सिन्हा यह राह दिखाकर गयी हैं कि गायन कर कितना सम्मान कमाया जा सकता है, किसी ने उनके नाम के आगे अकार,एकार लगाकर कभी संबोधित नहीं किया। क्यों? क्योंकि उन्होंने वह गरिमा बनाये रखी, वे भोजपुरी को वह रास्ता दिखाकर गयी हैं, जिस रास्ते चलकर कोई भी समाज अपनी स्त्रियों की गरिमा, सम्मान को बनाए और बचाये रख सकता है।”
गीतों से समाज को संदेश देने की कोशिश
शारदा सिन्हा ने गीत और संगीत को साहित्य से जोड़ने का काम किया है। उन्होंने लोक साहित्य को समृद्ध किया हैं। उन्होंने महाकवि विद्यापति, महेंदर मिसिर, स्नेहलता जैसे रचनाकारों की रचनाओं को लोकसंगीत में लाया है। उन्होंने दर्जनों लोक साहित्यकारों को अपने गायन में लाया। शारदा सिन्हा ने हमेशा अपने गीतों से समाज को संदेश देने की कोशिश की है। इस पर गायिका चंदन तिवारी का कहना है, “उनके गीतों में हमेशा संदेश था, स्त्री को तन का भूगोल मानने की बजाय उसके मन के विराट स्वरूप को देखिए, उस मन में विरह है, दुख है, सुख है, प्रेम है, प्रेम की आस है। शारदा जी स्त्रियों के मन की गायिका बनी, उन्होंने यह संदेश दिया कि मन ही प्रमुख होता है।”
शारदा सिन्हा के गीतों में पलायन और प्रवासी बिहारी हमेशा शामिल रहे हैं। प्रवासी बिहारियों के लिए शारदा सिन्हा के क्या मायने है इस पर चंदन कहती हैं, “उनके अधिकांश लोकप्रिय गीत प्रवासी बिहारियों पर ही केंद्रित हैं, चाहे वह ‘पनिया के जहाज पलटनिया बनी अइहा’ हो या फिर ‘हमनी के रहब जानी दुनो परानी’ या फिर ‘रोई-रोई पतिया लिखावे रजमतिया’ या फिर जो बिदेसिया उन्होंने गाया, गवना कराई सइयां, उनके गायन का एक बड़ा हिस्सा पलायन के समाजशास्त्र पर ही है।
बिहार की प्रतिष्ठित लोक गायिका चंदन तिवारी का कहना है, “बिहार के समाज में शारदा सिन्हा होने का अर्थ है, लोक की असल धारा से जुड़ी गायिका होना, जिन्होंने गांव के गलियों में गुम गीतों को भी सहेजा, फैलाया और उतनी ही शिद्दत से लोक साहित्य को भी संगीत से जोड़ा है।”
शारदा सिन्हा के योगदान को शब्दों में बांधना कठिन है। उन्होंने लोकगायिक के तौर पर दुनिया भर में नाम कमाया लेकिन अपनी जिम्मेदारी को हमेशा जाने रखा। उन्होंने भोजपुरी गीतों का नया दौर देखा ज़रूर लेकिन उस जमाने को कभी अपनाया नहीं। उन्होंने अपनी शास्त्रीयता से कोई समझौता नहीं किया। अश्लीलता और फूहडपन पर हमेशा सवाल खड़े किए। उन्होंने नये दौर में कला की प्रस्तुति और प्रसिद्धि के पैमानों को कभी नहीं अपनाया हमेशा अपने अंदाज पर टिकी रहीं। अपनी ख़ास तरह की आवाज़ और पांरपारिकता को बचाए रखने वाली शारदा सिन्हा एक थीं। पदम श्री और पदम विभूषण से सम्मानित शारदा सिन्हा का योगदान न केवल उनके संगीत में, बल्कि बिहार के समाज और संस्कृति में एक स्थायी विरासत के रूप में जीवित रहेगा।