इंटरसेक्शनलजेंडर भारत में #MeToo आंदोलन और परिदृश्य से गायब हाशिये पर रह रही महिलाएं

भारत में #MeToo आंदोलन और परिदृश्य से गायब हाशिये पर रह रही महिलाएं

भारत में 2017 और 2018 में कई महिलाओं ने, जो अधिकतर मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय से थीं, साथ ही साथ सामाजिक पहुंच में सक्षम अन्य महिलाओं ने सोशल मीडिया में अपने साथ हुए यौन हिंसा के बारे में बात करने के लिए हैशटैग का उपयोग करना शुरू कर दिया। इससे हाई-प्रोफाइल पुरुषों के खिलाफ़ भी शिकायतें मिलीं।

भारत में #MeToo आंदोलन ने लैंगिक समानता और कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा को लेकर एक नई बहस शुरू की। यह आंदोलन 2017 में हॉलीवुड से प्रेरित होकर भारत में आया और तेजी से कई क्षेत्रों में फैल गया। इस आंदोलन ने महिलाओं को यौन उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के खिलाफ़ अपनी आवाज़ उठाने का साहस दिया। अमेरिकी कार्यकर्ता तराना बर्क ने यौन शोषण का सामना करने वाली महिलाओं का समर्थन करने के लिए 2006 में माइस्पेस पर ‘#MeToo’ का उपयोग करना शुरू किया। तराना यौन हिंसा और अन्य प्रणालीगत मुद्दों को रोकने की प्रतिबद्धता से प्रेरित थीं, जो हाशिये पर रहने वाले लोगों – विशेष रूप से अश्वेत महिलाओं और लड़कियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे थे। वह सर्वाइवर महिलाओं तक यह संदेश पहुंचाना चाहती थी कि आपको सुना और समझा गया है। साल 2017 में अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने समस्या की भयावहता पर जोर देने के लिए आंदोलन के वर्तमान चरण को शुरू करने में मदद की।

उसके बाद, यह उन महिलाओं के लिए एक जमीनी स्तर का अभियान बन गया, जिन्होंने यौन उत्पीड़न का अनुभव किया था लेकिन उसके खिलाफ़ बोलने में असमर्थ थीं। #MeToo मूवमेंट सोशल मीडिया के सकारात्मक प्रभाव का एक आदर्श उदाहरण है। न्याय की मांग करते हुए विरोध की इस आवाज ने सर्वाइवर को सोशल मीडिया पर कहानी का अपना पक्ष साझा करने में मदद की, जिससे कुछ बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली लोगों पर सवाल खड़े किये जा सके। भारत में 2017 और 2018 में कई महिलाओं ने, जो अधिकतर मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय से थीं, साथ ही साथ सामाजिक पहुंच में सक्षम अन्य महिलाओं ने सोशल मीडिया में अपने साथ हुए यौन हिंसा के बारे में बात करने के लिए हैशटैग का उपयोग करना शुरू कर दिया। इससे हाई-प्रोफाइल पुरुषों के खिलाफ़ भी शिकायतें मिलीं। शिकायत मिलने के बाद कई लोगों की सार्वजनिक जांच हुई और कुछ लोगों के खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई हुई और कुछ लोगों को अपने पद से इस्तीफ़ा भी देना पड़ा।  

लेकिन, #MeToo आंदोलन मूल रूप में शहरी, शिक्षित और मध्यम वर्ग की महिलाओं तक सीमित रहा। हाशिए पर मौजूद समुदायों, जैसेकि दलित, आदिवासी और ग्रामीण महिलाओं की आवाज़ इस आंदोलन में बहुत कम सुनाई दी।

#MeToo आंदोलन का दायरा

लेकिन, #MeToo आंदोलन मूल रूप में शहरी, शिक्षित और मध्यम वर्ग की महिलाओं तक सीमित रहा। हाशिए पर मौजूद समुदायों, जैसेकि दलित, आदिवासी और ग्रामीण महिलाओं की आवाज़ इस आंदोलन में बहुत कम सुनाई दी। सामाजिक असमानताओं ने आंदोलन की पहुंच को सीमित कर दिया। इस आंदोलन ने अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाली महिला श्रमिकों को भी इससे बाहर कर दिया, जबकि आँकड़े बताते हैं कि इन क्षेत्रों में 95 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

ऐसा इसीलिए भी हुआ क्योंकि इस आंदोलन का नेतृत्व आंशिक रूप से सोशल मीडिया पर किया गया था। अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की पहुंच इस प्लेटफार्म तक कम ही है। फैक्ट्री कर्मचारी, घरेलू कामगार, निर्माण श्रमिक आदि के साथ रोजाना यौन उत्पीड़न, शोषण या शारीरिक हिंसा होती है और इनका कोई दस्तावेजीकरण भी करने वाला नहीं है। औपचारिक क्षेत्र में अधिक महिलाएं यौन उत्पीड़न के खिलाफ बोल रही हैं, और कंपनियां धीरे-धीरे कानून का पालन करने के लिए कदम उठा रही हैं। इसके बावजूद औपचारिक क्षेत्र में महिलाओं को अभी भी सामाजिक कलंक, प्रतिशोध, करिअर में आगे बढ़ने के मूक न मिलने का डर और बदनाम किए जाने का डर, न्याय से दूर करता है।

औपचारिक क्षेत्र में अधिक महिलाएं यौन उत्पीड़न के खिलाफ बोल रही हैं, और कंपनियां धीरे-धीरे कानून का पालन करने के लिए कदम उठा रही हैं। इसके बावजूद औपचारिक क्षेत्र में महिलाओं को अभी भी सामाजिक कलंक, प्रतिशोध, करिअर में आगे बढ़ने के मूक न मिलने का डर और बदनाम किए जाने का डर, न्याय से दूर करता है।

भारत में #MeToo आंदोलन की शुरुआत

अक्टूबर 2017 में, उस समय कानून की छात्रा, नारीवादी और जाति-विरोधी कार्यकर्ता राया सरकार ने भारतीय शिक्षा जगत के प्रोफेसरों की एक क्राउड सोर्स्ड सूची प्रकाशित (LoSHA) की, जिसमें उन पर अपने विद्यार्थियों का यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगाया गया। यह शिक्षाविदों की एक लंबी सूची थी, जिन्होंने अपने विद्यार्थियों का यौन उत्पीड़न किया था। इसकी संकलनकर्ता ने इस तथ्य को सार्वजनिक किया कि सूची संकलित करने में उनकी मदद करने वाली कई महिलाएं दलित/बहुजन/आदिवासी महिलाएं थीं, जिन्होंने उन पर इतना भरोसा किया कि वे उनके साथ अपनी कहानियां साझा कर सकीं। LoSHA और इसपर प्रमुख नारीवादियों की प्रतिक्रिया दोनों ने सोशल मीडिया पर हंगामा खड़ा कर दिया। एक तरफ, कुछ नारीवादियों ने शिक्षा क्षेत्र में महिलाओं की सराहना की कि वे आखिरकार अपनी चुप्पी तोड़ने के लिए साहस बना सकीं, वहीं दूसरी ओर, आरोप लगे कि LoSHA में कोई सत्यता नहीं थी, और यह कानून की ‘उचित प्रक्रिया’ के विरुद्ध था।

#MeToo आंदोलन की सीमाएं

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

आश्चर्यजनक रूप से, और जैसाकि समाजशास्त्री रूपाली भंसोडे (2020) ने टिप्पणी की है कि लोशा के खिलाफ़  नारीवादियों ने दलित साक्ष्यों की कमी की आलोचना करने के बजाय इसे केवल ‘उचित प्रक्रिया’ के बारे में बोलने तक ही सीमित रखा। हमारे देश में दलित महिलाओं का शोषण होना आम बात है। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक विचार दलित महिलाओं का यौन शोषण करने को आसान और सामान्य समझते हैं। LoSHA के खिलाफ़ आधिकारिक जांच शुरू होने पर सूची में उल्लिखित कुछ शिक्षाविदों को दोषी पाया गया, वहीं दूसरी ओर अधिकांश अन्य लोगों को कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ा और उनके खिलाफ़ किसी भी जांच शुरू होने की कोई खबर नहीं थी। हालांकि यह चर्चा नामकरण और शर्मिंदगी से आगे नहीं बढ़ने के कारण, कुछ ही समय बाद बंद हो गई। 2013 के POSH कानून के लागू होने के कई साल बीत जाने के बाद भी, सरकार ने स्थानीय समितियों के कामकाज या प्रभावशीलता पर कोई डेटा या जानकारी प्रकाशित नहीं की है जो अनौपचारिक क्षेत्र में यौन उत्पीड़न की शिकायतों से निपटने के लिए जिम्मेदार हैं।

एक तरफ, कुछ नारीवादियों ने शिक्षा क्षेत्र में महिलाओं की सराहना की कि वे आखिरकार अपनी चुप्पी तोड़ने के लिए साहस बना सकीं, वहीं दूसरी ओर, आरोप लगे कि LoSHA में कोई सत्यता नहीं थी, और यह कानून की ‘उचित प्रक्रिया’ के विरुद्ध था।

कितना कारगर है पॉश अधिनियम

देश के 655 जिलों में सूचना के अधिकार अनुरोधों के आधार पर मार्था फैरेल फाउंडेशन और सोसाइटी फॉर पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया द्वारा 2018 के एक अध्ययन में पाया गया कि कई जिले समितियों की स्थापना करने या कानूनी प्रावधानों के अनुरूप उनका गठन करने में विफल रहे हैं। यहां तक ​​कि जहां वे मौजूद थे, उनके नाम और स्थान प्रदर्शित करने वाली वेबसाइटों या सार्वजनिक स्थानों पर कोई भी जानकारी प्राप्त करना मुश्किल है। इसके अलावा,  केंद्र और राज्य सरकारें, जो स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सामाजिक कल्याण से संबंधित योजनाओं को लागू करने के लिए लाखों महिलाओं को रोजगार देती हैं, इन श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कदम उठाने में विफल रही हैं। महिलाओं को अंशकालिक या स्वयंसेवक माना जाता है, कम वेतन पाती हैं और अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा बनती हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इसमें 2.6 मिलियन आंगनवाड़ी कार्यकर्ता शामिल हैं जो 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को भोजन, पूर्वस्कूली शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल, टीकाकरण और स्वास्थ्य जांच प्रदान करने के लिए सरकार की एकीकृत बाल विकास सेवाओं के तहत प्रारंभिक बचपन देखभाल और पोषण पर काम करते हैं। 1 मिलियन से अधिक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) जो सरकार के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं; और 25 लाख मध्याह्न भोजन रसोईए जो सरकारी स्कूलों में दिया जाने वाला मुफ़्त दोपहर का भोजन तैयार करते हैं। कई बार इन महिलाओं को अपने काम के क्षेत्र में यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। सरकार ने अपने ही श्रमिकों को यौन हिंसा से मुक्त कार्यस्थल नहीं दे पा रही और न ही इसके निवारण के लिए कोई ठोस कानूनी कार्रवाई है।

देश के 655 जिलों में सूचना के अधिकार अनुरोधों के आधार पर मार्था फैरेल फाउंडेशन और सोसाइटी फॉर पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया द्वारा 2018 के एक अध्ययन में पाया गया कि कई जिले समितियों की स्थापना करने या कानूनी प्रावधानों के अनुरूप उनका गठन करने में विफल रहे हैं।

ह्यूमन राइट्स वॉच ने औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं, ट्रेड यूनियन अधिकारियों, श्रमिक और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और शिक्षाविदों के साथ 85 साक्षात्कारों के आधार पर, कानून को लागू करने के लिए सीमित सरकारी प्रयासों और महिलाओं की सुरक्षा के तंत्र में कमियों को पाया। जब महिलाएं यौन हिंसा की शिकायत करने जाती हैं तो उन्हें अक्सर पुलिस स्टेशनों में अपमान और अविश्वास का सामना करना पड़ता है, और आपराधिक मामले अदालतों में अमूमन वर्षों तक खिंच जाते हैं। सर्वाइवर के सुनवाई में शामिल होने पर धमकियों और काम के दिनों में नुकसान होता है। यही तथ्य अधिकांश महिला घरेलू कामगारों को शिकायत करने में बाधा डालती है। कई बार महिलाएं अपने साथ होने वाली घटना को दूसरों को बता नहीं पाती क्योंकि समाजिक या कार्यस्थल पर पावर डाइनैमिक्स में वह कमतर पायदान पर होती हैं।

भारत में न्यायिक प्रणाली जटिल और धीमी है। #MeToo आंदोलन के तहत लगाए गए कई आरोप कानूनी कार्रवाई में बदलने में विफल रहे। सबूत की कमी, लंबी प्रक्रियाएं और सामाजिक दबाव के कारण कई सर्वाइवर न्याय पाने से वंचित रहीं।

#MeToo आंदोलन में कहां चुके हम

भारत में न्यायिक प्रणाली जटिल और धीमी है। #MeToo आंदोलन के तहत लगाए गए कई आरोप कानूनी कार्रवाई में बदलने में विफल रहे। सबूत की कमी, लंबी प्रक्रियाएं और सामाजिक दबाव के कारण कई सर्वाइवर न्याय पाने से वंचित रहीं। वहीं कई आलोचकों का मानना है कि यह आंदोलन सभी पुरुषों को ‘अपराधी’ के रूप में पेश करता है। इससे आंदोलन की छवि को नुकसान पहुंचा और इसे ‘पुरुषों के खिलाफ’ अभियान के रूप में देखा जाने लगा। #MeToo आंदोलन के बाद कई कार्यस्थलों ने महिलाओं को काम पर रखने या उनके साथ सीधे संवाद करने से बचने का रुख अपनाया। यह महिलाओं के पेशेवर विकास में बाधा बना और आगे के लिए उनका रास्ता मुश्किल बना दिया। कई महिलाओं को #MeToo आंदोलन  के तहत अपने अनुभव साझा करने के बाद प्रतिशोध का सामना करना पड़ा। उनके करियर, सामाजिक स्थिति और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।

#MeToo आंदोलन का सोशल मीडिया पर छा जाने की सबसे महत्वपूर्ण वजह उन कठिनाईयों को भी सामने लाना था जिसके कारण महिलाएं कार्यस्थल पर हिंसा का सामना करने के बावजूद उसके खिलाफ़ नहीं बोल पाती हैं या फिर कानून की परतों के बीच उनकी आवाज़ दब जाती है। अब #MeToo युग के कारण, वे महिलाएं जो सोशल मीडिया तक पहुंच रखती हैं, इसके खिलाफ बोल पाती हैं। इसलिए, ऐसे अभियान भले सोशल मीडिया और एक तबके की महिलाओं के साथ शुरू हुए हों, इसे समावेशी बनाने के लिए हमें जाति, वर्ग और लिंग की सीमाओं को तोड़ने की जरूरत है।

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