संस्कृतिकिताबें अदृश्य भारत: देश में महिला मैनुअल स्कैवेंजर्स के शोषण पर बात करती एक जरूरी किताब

अदृश्य भारत: देश में महिला मैनुअल स्कैवेंजर्स के शोषण पर बात करती एक जरूरी किताब

‘अदृश्य भारत’ एक आज़ाद देश के नागरिक होने के बावजूद मैनुअल स्कैवेंजिंग और मैनुअल स्कैवेंजर्स की मजबूर समुदाय की ओर से लोकतांत्रिक शासन प्रणाली पर भी सवाल खड़ा करती है, जो उन्हें आज तक गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार नहीं दे पाई।

20 जून, 1971 को दिल्ली में जन्मीं पत्रकार, लेखक और डॉक्यूमेंट्री फ़िल्ममेकर भाषा सिंह की परवरिश और शिक्षा लखनऊ में हुई। इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए और एलएलबी की डिग्री हासिल की। साल 1996 से ही पत्रकारिता में सक्रिय सिंह ने 2012 में आई अपनी पहली ही किताब ‘अदृश्य भारत’ से देशभर में अपनी पहचान बना मजबूत कर ली। इन्होंने अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, आउटलुक, नई दुनिया जैसे पत्र-पत्रिकाओं में काम किया है। पेंगुइन प्रकाशन से हिंदी में प्रकाशित किताब ‘अदृश्य भारत’ का अंग्रेज़ी, तमिल, तेलुगू और मलयालम में अनुवाद किया जा चुका है। यह किताब मैनुअल स्कैवेंजिंग और मैनुअल स्कैवेंजर्स की अमानवीय और क्रूर प्रथा पर आधारित है।

भाषा को सर्वश्रेष्ठ पत्रकार का ‘रामनाथ गोयनका पुरस्कार’, उत्तर भारत में कृषि संकट और किसानों की आत्महत्या पर काम के लिए ‘नेशनल फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया फ़ेलोशिप’ से भी सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा इनकी दूसरी किताब ‘शाहीन बाग: लोकतंत्र की नई करवट’ भी काफ़ी चर्चा में रही। इसके साथ ही भाषा सिंह की कविता और कहानी लेखन में भी गहरी रुचि है।

अपनी किताब की भूमिका में इन्होंने यह बात साफ तौर पर स्वीकार की है कि किस तरह 33 साल की उम्र होने के बाद इन्हें इस जातिगत अमानवीय कुप्रथा के बारे में जानकारी मिली।

किताब की प्रेरणा

मैनुअल स्कैवेंजिंग की कुप्रथा की तरफ भाषा सिंह का ध्यान तब गया जब आउटलुक साप्ताहिक पत्रिका में काम करते हुए राजस्थान में भ्रूण हत्या के संदर्भ में एक स्टोरी कवर करने के दौरान इनकी मुलाक़ात ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन’ की राष्ट्रीय अध्यक्ष और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा माले) की नेता श्रीलता स्वामीनाथन से हुई। स्वामीनाथन ने इनको बताया कि किस तरह से राजस्थान के झुंझुनू इलाके में यह प्रथा आज भी ज़ारी है और महिलाओं को मैनुअल स्कैवेंजिंग के लिए मजबूर होना पड़ता है। यही नहीं इनके साथ जिस तरह से अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता है और इनकी सामाजिक-आर्थिक तौर पर दुर्दशा के बारे में भी उन्होंने अवगत कराया। इस तरह स्वामीनाथन की प्रेरणा ने भाषा सिंह को मैनुअल स्कैवेंजिंग और मैनुअल स्कैवेंजर्स की इस अदृश्य दुनिया के लिए जिज्ञासा से भर दिया। अपनी किताब की भूमिका में इन्होंने यह बात साफ तौर पर स्वीकार की है कि किस तरह 33 साल की उम्र होने के बाद इन्हें इस जातिगत अमानवीय कुप्रथा के बारे में जानकारी मिली।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इस घटना ने इन्हें बेचैन कर दिया और इस तरह इस बारे में ज़मीनी हक़ीक़त को करीब से देखने के लिये इनके सफ़र की शुरुआत हुई। किताब का शीर्षक ‘अदृश्य भारत’ पूरी तरह तर्कसंगत और प्रासंगिक है। लेखिका ने ख़ुद भी यह महसूस किया कि अपनी परवरिश के दौरान लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद से लेकर पटना जहां भी इन्हें रहने का मौका मिला, वहां सब जगह यह मैनुअल स्कैवेंजिंग करने वाली औरतें मौजूद रहीं लेकिन ज़ाहिर तौर पर ये उनकी उपस्थिति से अनजान रहीं। यह हमारे समाज की कड़वी सच्चाई को दिखाता है। आज भी हमारे समाज में एक ऐसा तबका है जो पीढ़ी दर पीढ़ी मैनुअल स्कैवेंजिंग के लिए अभिशप्त है और जो मुख्यधारा के समाज के लिए अदृश्य है। ये अदृश्य इसलिए हैं क्योंकि इन्हें तथाकथित सभ्य समाज देखना ही नहीं चाहता।

भाषा सिंह की यह किताब जाति व्यवस्था के सबसे बर्बर और घिनौने स्वरूप को हमारे सामने लाती है जो कथित निचली जाति के लोगों को मैनुअल स्कैवेंजिंग के काम के लिए मजबूर करता है। यह किताब असहज तो करती है लेकिन समाज को आईना दिखाने का काम भी बखूबी करती है।

‘अदृश्य भारत’ सिर्फ़ एक किताब नहीं बल्कि यह भारत के समाज की जातिगत जटिलताओं में  छिपी एक अनजानी दुनिया की गहन यात्रा है। इसके सभी पात्र वास्तविक हैं और यह किताब उनकी दुनिया को हाशिए से निकलकर मुख्यधारा में लाने का काम करती है। मैनुअल स्कैवेंजिंग करने वालों की ज़िंदगी पर आधारित यह पहली किताब है जो देश के हर एक हिस्से की यात्रा करवाती है। भाषा सिंह हाशिए के समुदायों जैसे दलित, आदिवासी विशेषकर महादलित समाज की महिलाओं की ज़िंदगी को परत दर परत सामने रखती हैं, जो किसी भी संवेदनशील इंसान को सोचने के लिए विवश कर सकती है।

देश के लोकतांत्रिक शासन प्रणाली पर सवाल

‘अदृश्य भारत’ एक आज़ाद देश के नागरिक होने के बावजूद मैनुअल स्कैवेंजिंग और मैनुअल स्कैवेंजर्स की मजबूर समुदाय की ओर से लोकतांत्रिक शासन प्रणाली पर भी सवाल खड़ा करती है, जो उन्हें आज तक गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार नहीं दे पाई। यह किताब 1993 में बने उस क़ानून के क्रियान्वयन पर प्रश्नचिन्ह लगाती है जो मैनुअल स्कैवेंजिंग और मैनुअल स्कैवेंजर्स को काम पर रखने और शुष्क शौचालय के निर्माण के निषेध से संबंधित हैं। यह देश के उन तमाम नागरिकों को भी कटघरे में खड़ा करती है, जो बड़ी चालाकी से अपनी सुविधा के लिए इन्हें नज़रंदाज़ करते हैं। यह किताब कथित उच्च वर्ण की उस मानसिकता पर भी प्रहार करती है जो कहते हैं कि देश में जातिवाद अब नहीं रहा।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

भाषा सिंह की यह किताब जाति व्यवस्था के सबसे बर्बर और घिनौने स्वरूप को हमारे सामने लाती है जो कथित निचली जाति के लोगों को मैनुअल स्कैवेंजिंग के काम के लिए मजबूर करता है। यह किताब असहज तो करती है लेकिन समाज को आईना दिखाने का काम भी बखूबी करती है। यह किताब जाति, वर्ग और लैंगिक असमानता और भेदभाव के मूर्त रूप को सामने लाती है। इस किताब की सबसे ख़ास विशेषताओं में से है, इसमें देश के अधिकतर राज्यों में मैनुअल स्कैवेंजिंग कर रहे लोगों की कहानियों को सहानुभूति और प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है।

भाषा सिंह ने 2004 से 2011 तक देश के विभिन्न भागों में न सिर्फ़ यात्राएं की बल्कि मैनुअल स्कैवेंजर्स की बस्ती में उनके घर उनके साथ रहीं और उनकी ज़िंदगी को करीब से महसूस किया, जिसका जिक्र हम ऊपर कर चुके हैं।

देश के हर कोने से मैनुअल स्कैवेंजर्स की बात

इसमें कश्मीर से लेकर कर्नाटक, गुजरात से लेकर पश्चिम बंगाल, झारखंड के सुदूर गांवों से से लेकर राजधानी दिल्ली तक उन लोगों को आवाज़ दी गई है जिनकी ज़िंदगी लंबे अरसे तक मुख्यधारा के लोगों के लिए अदृश्य रही है। इसमें कश्मीर, दिल्ली, बिहार, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम करती महिलाओं की वस्तुस्थिति को दर्शाया गया है। ग़ौरतलब है कि मैनुअल स्कैवेंजिंग के काम में अधिकतर दलित जाति की महिलाएं होती हैं। जाति के साथ-साथ पितृसत्ता द्वारा उनके शोषण और विवशता को भी लेखिका ने पूरी पारदर्शिता और भावुकता के साथ दिखाया है। 

लेखिका ने इस किताब के लिए बाहरी तौर पर दूर से रिपोर्टिंग नहीं की, बल्कि उनके साथ रहकर उनकी ज़िंदगी को करीब से महसूस किया है। उनके रहन-सहन, खान पान का हिस्सा बनते हुए उनके काम करने के ढंग और तौर-तरीकों को बेहद पास से देखा और समझा है। यह बात इस किताब की विश्वसनीयता और प्रमाणिकता को और बढ़ा देती है। भाषा सिंह ने 2004 से 2011 तक देश के विभिन्न भागों में न सिर्फ़ यात्राएं की बल्कि मैनुअल स्कैवेंजर्स की बस्ती में उनके घर उनके साथ रहीं और उनकी ज़िंदगी को करीब से महसूस किया, जिसका जिक्र हम ऊपर कर चुके हैं। ‘अदृश्य भारत’ पढ़ते हुए हमें पता चलता है कि कागज़ी तौर पर भले ही 1993 में कानून बन गया और मैनुअल स्कैवेंजिंग कुरीति से मुक्ति मिल गई लेकिन वास्तविकता इससे अलग है। क़ानून बनने के बाद भी सही क्रियान्वयन न हो पाना, राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति में कमी, इनका सशक्त वोट बैंक में तब्दील न हो पाना और आम जनता का भेदभावपूर्ण रवैया इन्हें वापस इस दलदल में जाने के लिए मजबूर कर देता है।

‘अदृश्य भारत’ पाठकों से भारतीय समाज में जड़ तक फैले अन्याय और जातिगत भेदभाव के विरुद्ध जागरुकता फैलाती है। यह किताब एक भावनात्मक आख्यान ही नहीं, बल्कि सिस्टम को चुनौती देती है और अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष और सकारात्मक बदलाव की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित भी करती है।

मैनुअल स्कैवेंजिंग, अंबेडकर और गांधी के विचार

जातिगत भेदभाव का धार्मिक आधार, पूर्व जन्म के कर्मों का फल जैसी मिथ्या धारणाएं मैनुअल स्कैवेंजर्स को अपनी नियति मानने के प्रमुख कारणों में से हैं। इसके अलावा इस काम को छोड़कर अन्य कामों के लिए इन्हें अवसर नहीं मिल पाता, जिसकी वज़ह से इससे मुक्ति पाना लगभग नामुमकिन सा हो जाता है। इसमें न सिर्फ़ कथित उच्च जातियों द्वारा निम्न मानी जाने वाली जातियों के ख़िलाफ़ भेदभाव को दिखाया गया है, बल्कि निम्न मानी जाने वाली जातियों को अपने से निम्नतर कही जाने वाली जातियों के साथ किए जाने वाले भेदभाव के बारे में भी वर्णन किया गया है। इस किताब में महात्मा गांधी और डॉ भीमराव अंबेडकर के अछूतोद्धार का भी तुलनात्मक विश्लेषण किया गया है। जहां महात्मा गांधी मैनुअल स्कैवेंजिंग को सेवा और पुण्य का काम मानकर इसे सम्मानजनक रूप से देखने की बात करते थे, वहीं डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ऐसी कुप्रथा को ख़त्म करने के पक्ष में थे।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इस प्रकार, पुस्तक ‘अदृश्य भारत’ पाठकों से भारतीय समाज में जड़ तक फैले अन्याय और जातिगत भेदभाव के विरुद्ध जागरुकता फैलाती है। यह किताब एक भावनात्मक आख्यान ही नहीं, बल्कि सिस्टम को चुनौती देती है और अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष और सकारात्मक बदलाव की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित भी करती है। दृश्य भारत के बीच बसे इस अदृश्य भारत को पहले पहल इतनी ईमानदारी से दिखाने के लिए भाषा सिंह के प्रयासों की जितनी सराहना की जाए, कम है। इसके साथ ही, इस पुस्तक को जितने बड़े समुदाय तक पहुंचाया जा सके, पहुंचाने की कोशिश मिशन की तरह की जाने की ज़रूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। इस पुस्तक के साथ यह हमारा बहुत बड़ा दायित्व जुड़ता है। 

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