भारतीय इतिहास दलितों के साथ होने वाले जातीय हिंसा और शोषण का गवाह रहा है। देश ने दलितों पर होने वाले कई नरसंहार देखे, जिनमें से साल 1991 का त्सुन्दुर नरसंहार एक क्रूर और वीभत्स हमला माना जाता है। यह घटना 6 अगस्त 1991 को घटित हुआ था। आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के त्सुन्दुर गांव में रेड्डी और तेलगा (कापू की एक उपजाति) समाज के 50-60 लोगों की एक बड़ी भीड़ ने 8 भूमिहीन दलितों पर क्रूरता से कुल्हाड़ियों और लोहे की रॉड से हमला किया जिससे उनकी मौत हो गई। बात यहीं तक नहीं रुकी। घटना के बाद, उनके शवों को काटकर, बोरियों में भरकर तुंगभद्रा नदी में फेंक दिया गया। इस घटना के बाद दलित महासभा जैसे दलित संगठनों के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर विरोध आंदोलन शुरू हुए।
इस जातिवादी घटना का पुरजोर विरोध हुआ और अदालती कार्यवाही शुरू हो गई। इसके बाद साल 2014 से सर्वोच्च न्यायालय का इस नरसंहार पर न्याय से जुड़े निर्णय पर फैसले का इंतजार बाकी है। यह घटना पुलिस की साजिशें जिसमें अपराधियों को बचाने, दलितों का सामाजिक बहिष्कार करने और फिर न्याय हासिल के रास्ते में जानबूझकर पैदा की जाने वाली बाधाएं और दलितों के प्रति व्यवस्थागत भेदभाव को उजागर करती है।
यह घटना 6 अगस्त 1991 को घटित हुआ था। आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के त्सुन्दुर गांव में रेड्डी और तेलगा (कापू की एक उपजाति) समाज के 50-60 लोगों की एक बड़ी भीड़ ने 8 भूमिहीन दलितों पर क्रूरता से कुल्हाड़ियों और लोहे की रॉड से हमला किया जिससे उनकी मौत हो गई।
नरसंहार से पहले जारी सामाजिक संघर्ष

इस क्षेत्र में दलित और उच्च जाति के लोगों के बीच घटना से पहले ही तनाव जारी था। उच्च जातियों रेड्डी और कापू और दलितों के बीच अक्सर हाथापाई होती रहती थी। माला समुदाय की जनसंख्या रेड्डी और तेलगा के बराबर ही थी। वह मंदिरों और जल संसाधनों तक अपनी पहुंच, अस्पृश्यता जैसी प्रथा विरोध किया करते थे। ऐसे में दलित युवाओं की शिक्षा और नौकरी के अवसरों तक बढ़ती पहुंच समाज में कथित तौर उच्च जाति के वर्चस्व की यथास्थिति को चुनौती दे रही थी। इस बीच सामाजिक सत्ता के बदलते डायनामिक्स में, उच्च जाति के रेड्डी और तेलगा समुदाय के लोग गांव में अपना प्रभुत्व कायम रखने पर उतारू हो गए थे।
इसके चलते रेड्डी और तेलगा ने दलित समुदाय का सामाजिक बहिष्कार किया, नतीजन दलितों को उच्च जाति के इलाके में आने और उनके खेतों में काम पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया था। इन तनाव के कारण दोनों पक्षों के बीच टकराव और कई बार डराने-धमकाने और दुर्व्यवहार की घटनाएं हुईं, जिसके संबंध में कई मामले भी दर्ज किए गए थे। हालांकि रिपोर्ट्स के मुताबिक दलित और उच्च जाति दोनों जातियों ने आपस में एक-दूसरे पर गैर-कानूनी कार्रवाई के आरोप लगाए गए थे। एक रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि स्थानीय पुलिस रेड्डी और तेलगा समुदायों के पक्ष में व्यवहार कर रही थी और वही माला समुदाय में पुलिस के प्रति डर बना हुआ था।
इन लोगों ने ट्रैक्टरों और वाहनों से दौड़ाते हुए भागती हुई भीड़ का पीछा करते हुए उन्हें बेरहमी से पीटा और प्रताड़ित भी किया। इस हमले में 8 भूमिहीन दलितों की निर्मम मौत हो गई। घटना में शामिल लोगों ने निर्भीकता से दलितों के शवों को कई टुकड़ों में काटकर बोरियों में भर दिया।
बर्बरता का वह दिन
5 अगस्त को, नरसंहार से एक दिन पहले तनाव तब बढ़ गया, जब एक दलित माला समुदाय के लड़के को चाकू मार दिया गया और थाने में मामला दर्ज कराया गया। पुलिस ने शुरू में चाकू मारने की घटना से जुड़े रेड्डी समुदाय के कुछ लोगों को हिरासत में लेने की कोशिश की थी। लेकिन 6 अगस्त को, पुलिस ने मामला दर्ज करने वाले लोगों को ही गिरफ्तार करने का फैसला किया जिसके लिए पुलिस ने मालापल्ली बस्ती पर छापा मारा। यह छापा कथित तौर पर उच्च जाति के समुदायों के इशारे पर मारा गया था, जिसमें होने वाले हमलों की भी चेतावनी शामिल थी।

पुलिस की इस छापेमारी के दौरान कुछ दलित निवासी पास के गांवों की ओर भाग गए थे, तो कुठ रेलवे की पटरियों की ओर और कुछ मोद्दुथूर रोड नाम की एक सड़क की ओर भाग गए। तभी सड़क पर एक बड़ी हथियारबंद भीड़ ने उनपर हिंसात्मक हमला शुरू कर दिया। कुछ रिपोर्ट्स में 50-60 लोगों के शामिल होने का जिक्र मिलता है जबकि अन्य रिपोर्ट्स में त्सुन्दुर गांव के साथ- साथ अन्य पड़ोसी गांवों से 300 रेड्डी और कापू पुरुषों के शामिल होने की बात का भी जिक्र किया गया है। वे न केवल कुल्हाड़ियों, लोहे की रॉड बल्कि तमाम तरह के हथियारों से लैस थे।
इन लोगों ने ट्रैक्टरों और वाहनों से दौड़ाते हुए भागती हुई भीड़ का पीछा करते हुए उन्हें बेरहमी से पीटा और प्रताड़ित भी किया। इस हमले में 8 भूमिहीन दलितों की निर्मम मौत हो गई। घटना में शामिल लोगों ने निर्भीकता से दलितों के शवों को कई टुकड़ों में काटकर बोरियों में भर दिया। वहीं कुछ के शरीर पर कई बार धारदार हथियारों से वार करके, बाद में सभी को गांव के पास की तुंगभद्रा नदी में फेंक दिया गया। कई लोग घायल भी हुए जो बचने और चिकित्सकीय मदद की तलाश में पास के एक शहर तेनाली की ओर भागने पर मजबूर हुए थे। इस नरसंहार के दौरान दलितों के घरों को न केवल लूटा गया बल्कि उनके घरों में आग लगा दी गई जिससे कई लोग बेघर भी हो गए।
हालांकि 35 लोगों को नरसंहार से संबंधित अन्य अपराधों के लिए कम जेल की सजा सुनाई गई। विशेष अदालत ने अन्य 123 आरोपियों के खिलाफ पर्याप्त सबूत न होने के कारण उन्हे छोड़ने का फैसला सुनाया।
नरसंहार के दुष्परिणाम
हिंसा के कुछ दिनों के बाद स्थानीय पुलिस की मदद के बिना दलित समुदाय के लोगों को अपने लापता सदस्यों को ढूँढने निकलना पड़ा। आखिरकार तुंगभद्रा नदी में आठ लोगों की लाशें मिली। लाशों के साथ बरती गई क्रूरता ने दलित परिवारों को झकझोर रख दिया था। यह स्थिति इतनी भयावह थी की अपने भाई का शव देखते ही एक व्यक्ति को दिल का दौरा पड़ने से जान तक चली गई थी। पोस्टमार्टम करने वाले एक दलित डॉक्टर के लिए शवों के साथ की गई हिंसाएं इतनी परेशान करने वाली थी कि उनकी आत्महत्या से मौत भी हुई थी। इतनी बर्बरता देखने और सहने के बाद भी दलित समुदाय के लोग न्याय पाने की एक लंबी लड़ाई लड़ रहे थे। वे शांतिपूर्ण तरीके से अपना विरोध दर्ज करने के लिए त्सुन्दुर लौट आए। उन्होंने अपराधियों को सजा दिलाने के लिए कई प्रदर्शन किये और भूख हड़ताल शुरू की। प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस ने और ज्यादा हिंसा बरती। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों के बीच नक्सलियों की मौजूदगी का दावा करते हुए शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन पर गोलियां चलाई। इस दौरान पुलिस के हिंसा में एक युवा दलित व्यक्ति की मौत भी हो गई जोकि नरसंहार का एक प्रमुख गवाह था।

स्मरण और विरोध के एक शक्तिशाली रूप में, दलित समुदाय ने मारे गए लोगों को त्सुन्दुर के बीचों-बीच दफनाया और उस क्षेत्र का नाम बदलकर ‘रक्त क्षेत्र’ रख दिया गया। कट्टी पद्म राव के नेतृत्व में दलित महासभा जैसे दलित संगठन मारे गए लोगों के परिवारों को और सर्वाइवरों को न्याय दिलाने के लिए अपनी केंद्रीय भूमिका में आ गए। उन्होंने लोगों को संगठित किया और ‘चलो दिल्ली’ नाम से दिल्ली तक के एक बड़े विरोध मार्च को भी आयोजित किया। इसी बीच, दिल्ली में इस विरोध मार्च के दौरान हिट एंड रन दुर्घटना में एक दलित महिला की मौत भी हो गई। नरसंहार के लिए जिम्मेदार उच्च जाति के लोगों ने दलितों के न्याय पाने के संघर्षों और प्रयासों का विरोध करते हुए अपना खुद का संगठन बनाया और जातिवादी नारे भी लगाए।
न्याय के लिए निरंतर जारी संघर्ष
त्सुन्दुर नरसंहार में मारे गए लोगों के परिवारों के लिए न्याय की लड़ाई लंबी और कठिन रही है, जो कई सालों तक चली है। इस क्रम में 1993 में, मामले की सुनवाई के लिए गुंटूर में एक विशेष अदालत की स्थापना की गई थी, जिससे दलित समुदाय ने कुछ उम्मीद जताई थी। कई साल बाद जुलाई 2007 में, इस विशेष अदालत ने आखिरकार अपना फैसला सुनाया जिसमें 21 लोगों को हत्या का दोषी पाया गया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। हालांकि 35 लोगों को नरसंहार से संबंधित अन्य अपराधों के लिए कम जेल की सजा सुनाई गई। विशेष अदालत ने अन्य 123 आरोपियों के खिलाफ पर्याप्त सबूत न होने के कारण उन्हे छोड़ने का फैसला सुनाया।
22 अप्रैल 2014 को, उच्च न्यायालय ने विशेष अदालत के फैसले को पलट दिया और सभी आरोपियों को बरी कर दिया। फैसला सुनाते समय उच्च न्यायालय ने पर्याप्त ठोस सबूत न होने, गवाही में असंगतियां और पुलिस को घटना की सूचना देने में देरी की ओर इशारा किया।
दोषियों और पीड़ित पक्ष दोनों ने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील दायर की। 22 अप्रैल 2014 को, उच्च न्यायालय ने विशेष अदालत के फैसले को पलट दिया और सभी आरोपियों को बरी कर दिया। फैसला सुनाते समय उच्च न्यायालय ने पर्याप्त ठोस सबूत न होने, गवाही में असंगतियां और पुलिस को घटना की सूचना देने में देरी की ओर इशारा किया। इस फैसले में उच्च न्यायालय ने सामाजिक संदर्भ को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया और नरसंहार में उच्च जाति के समुदाय के साथ पुलिस की मिलीभगत को स्वीकार करने में विफल रहा। न्याय व्यवस्था से निराशा हाथ लगने के बावजूद न्याय की यह लड़ाई आज भी जारी है। इसके बाद दलित संगठनों और आंध्र प्रदेश की सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया। जुलाई 2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए इस मामले में आगे की सभी कानूनी कार्यवाही पर रोक लगा दी, जिसमें उच्च न्यायालय द्वारा बरी किया जाना भी शामिल था।
हालांकि नवंबर 2024 तक, सुप्रीम कोर्ट ने त्सुन्दुर नरसंहार मामले पर अपना अंतिम फैसला नहीं सुनाया था जिससे यह मामला भारत में ‘अत्याचार निवारण अधिनियम’ के तहत लंबित मामलों की लंबी सूची में शामिल हो गया। इस भयावह नरसंहार को तीन दशक से भी ज़्यादा समय बीत चुका है। दलित समुदाय अभी भी न्याय के इंतज़ार में हैं। त्सुन्दुर मामला इस बात का प्रतीक बन गया है कि भारत में दलितों के लिए जाति-आधारित हिंसा के लिए न्याय पाना कितना कठिन हो सकता है। असल में देरी से मिलने वाले न्याय की यह प्रक्रिया हाशिए पर रह रहे दलित समुदायों के खिलाफ़ होने वाले अत्याचारों के संबंध में सुरक्षा और जवाबदेही प्रदान करने में सिस्टम की विफलता और संवेदनहीनता को उजागर करती है।
सोर्स:
1. द हिन्दू
2. राउंड टेबल इंडिया (by Karthik Navayan)