हम जो कुछ भी खाते हैं उससे हमारे शरीर को पोषण मिलता है। शरीर के विकास और स्वास्थ्य के लिए शरीर द्वारा इस भोजन का इस्तेमाल किया जाता है। पोषण का सीधा नाता हमारे खान-पान से होता है। यानी जितना पोषक तत्वों से भरपूर हमारा खान-पान होगा, उतना ही हमारे शरीर की पोषण संबंधी ज़रूरतें पूरी हो सकेंगी। पोषण की कमी से उपजी जटिलताएं कभी-कभी किसी इन्सान के लिए जानलेवा तक साबित हो सकती हैं। कुपोषण के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन की फ़ैक्ट शीट में भी यह बात सामने आई है कि निम्न और माध्यम आय वाले देशों में कुपोषण 5 साल से कम उम्र के लगभग आधे बच्चों की मौत की वजह बनता है। वैसे तो हर उम्र में और सभी को अपने पोषण पर ध्यान देना चाहिए, लेकिन बढ़ती हुई उम्र के बच्चों के मामले में इसका खास महत्व होता है।
पर जैसा हमारा समाज है और जितनी ज़्यादा आर्थिक और सामाजिक विषमता हमारे समाज में मौजूद है, उसकी वजह से बहुत-से परिवारों के लिए अपने बच्चों की पोषण सम्बन्धी ज़रूरतों को पूरा कर सकना संभव नहीं होता है। ऐसे में बच्चों की पोषण संबंधी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए सरकार का हस्तक्षेप ज़रूरी हो जाता है। यही वजह है कि सरकार ने स्कूलों में पहली से आठवीं तक के बच्चों के लिए मिड डे मील जैसी योजनाएं शुरू कीं। पर क्या ये योजना अपने आप में पर्याप्त है? क्या मिड डे मील के तहत स्कूलों में बच्चों को मिल रहे भोजन से उनकी पोषण संबंधी सभी ज़रूरतें पूरी हो पा रही हैं? हाल में आई यूनेस्को की एक रिपोर्ट ‘एजुकेशन और न्यूट्रीकशन लर्न टू ईट वेल’ शिक्षा और पोषण किस तरह से आपस में जुड़े हुए हैं। यह दुनिया के 187 देशों के स्कूलों में बच्चों को दिए जाने वाले भोजन में पोषण की मात्रा को लेकर कई अहम बातें सामने रखती है।
यह रिपोर्ट बताती है कि अगर हम शिक्षा में निवेश करेंगे, तो सतत विकास लक्ष्य 2-भुखमरी को खत्म कर सकेंगे। शिक्षा के माध्यम से पोषण से जुड़ी हुई चुनौतियों को दूर करने में मदद मिल सकती है। साथ ही, बेहतर पोषण और खाद्य सुरक्षा से शैक्षिक उपलब्धि बेहतर होती है।
क्या बताती है रिपोर्ट
यह रिपोर्ट बताती है कि अगर हम शिक्षा में निवेश करेंगे, तो सतत विकास लक्ष्य 2-भुखमरी को खत्म कर सकेंगे। शिक्षा के माध्यम से पोषण से जुड़ी हुई चुनौतियों को दूर करने में मदद मिल सकती है। साथ ही, बेहतर पोषण और खाद्य सुरक्षा से शैक्षिक उपलब्धि बेहतर होती है। बचपन में अच्छा पोषण बच्चे के विकास, सीखने और समग्र स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी होता है और बचपन में मिले अच्छे पोषण का सकारात्मक असर जीवन भर रहता है। रिपोर्ट बताती है कि जब बच्चों को स्कूल में पोषक तत्वों से भरपूर भोजन मिलता है, तो न सिर्फ वे रोज़ाना स्कूल आते हैं, बल्कि बेहतर सीखते भी हैं। यह बात समय-समय पर हुए और भी शोधों में सामने आई है।

आगे रिपोर्ट कहती है कि शिक्षा और पोषण की इस स्पष्ट अंतर्निर्भरता के बावजूद, शिक्षा और पोषण के बीच के संबंध पर अभी उतना शोध नहीं हुआ है, जितना होना चाहिए और इस पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा, जितना दिए जाने की ज़रूरत है। इसमें स्वास्थ्य और पोषण के संकेतकों पर नज़र रखने के साथ-साथ स्कूलों में चल रहे भोजन से जुड़े कार्यक्रमों की भी निगरानी करने पर ज़ोर दिया गया है। यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि दुनिया भर में 27 प्रतिशत स्कूली भोजन पोषण विशेषज्ञों की सलाह से तैयार नहीं किया जाता। साथ ही, साल 1990 के बाद से अधिकांश देशों में स्कूली बच्चों में मोटापा तो दोगुना हुआ ही है, खाद्य सुरक्षा भी बढ़ती जा रही है।
यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि दुनिया भर में 27 प्रतिशत स्कूली भोजन पोषण विशेषज्ञों की सलाह से तैयार नहीं किया जाता। साथ ही, साल 1990 के बाद से अधिकांश देशों में स्कूली बच्चों में मोटापा तो दोगुना हुआ ही है, खाद्य सुरक्षा भी बढ़ती जा रही है।
यूनेस्को की सिफ़ारिशों पर एक नज़र
यूनेस्को की यह रिपोर्ट स्कूल में ताज़े और स्थानीय स्तर पर आसानी से उपलब्ध खाद्य पदार्थों, पाठ्यक्रम में भोजन के बारे में शिक्षा को शामिल किए जाने की वकालत करती है। यह शिक्षा और पोषण संबंधी मुद्दों की निगरानी को पहले 1,000 दिनों के मौजूदा फोकस से आगे बढ़ाकर आजीवन परिप्रेक्ष्य में रखने की आवश्यकता पर ज़ोर देती है। साथ ही, सरकारों से यह भी आग्रह करती है कि भोजन को शिक्षा प्रणाली के साथ बेहतर ढंग से एकीकृत करने के लिए वे ऐसा मैनुअल तैयार करें, जो अमल में लाने लायक और समुदाय में मौजूद स्वास्थ्य पेशेवरों और स्कूल के शिक्षकों के लिए पोषण के बारे में जागरूकता से संबंधित प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार करें।

यूनेस्को खुद भी इस साल स्वास्थ्य और पोषण संबंधी मुद्दों को बेहतर ढंग से संबोधित करने में सरकारों और शिक्षा पेशेवरों की मदद करने के लिए टूल्स का एक सेट तैयार करेगा। इनमें एक व्यावहारिक मार्गदर्शिका और एक प्रशिक्षण कार्यक्रम शामिल होगा। यह काम ‘कोलिशन फ़ॉर स्कूल मील्स’ को भी समर्थन देगा, जिसका यूनेस्को हिस्सा है। यह सुनिश्चित करने के लिए काम किया जा रहा है कि प्रत्येक बच्चे को स्कूल में पौष्टिक भोजन मिले। रिपोर्ट बच्चों में खाने-पीने से जुड़ी स्वस्थ आदतों के विकास की बात भी करती है और स्कूलों के पाठ्यक्रम में पोषण की शिक्षा को शामिल किए जाने की वकालत करती है।
यूनेस्को की यह रिपोर्ट स्कूल में ताज़े और स्थानीय स्तर पर आसानी से उपलब्ध खाद्य पदार्थों, पाठ्यक्रम में भोजन के बारे में शिक्षा को शामिल किए जाने की वकालत करती है। यह शिक्षा और पोषण संबंधी मुद्दों की निगरानी को पहले 1,000 दिनों के मौजूदा फोकस से आगे बढ़ाकर आजीवन परिप्रेक्ष्य में रखने की आवश्यकता पर ज़ोर देती है।
भारत के लिए इस रिपोर्ट के मायने
भारत में मिड डे मील स्कीम, जिसे अब पीएम पोषण योजना कहा जाता है, साल 1995 में लॉन्च की गई थी। तब से लेकर अब तक यह स्कीम कई बदलावों से गुज़री है। शुरुआत में इसके तहत बच्चों को राशन दिया जाता था और सभी सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त प्राथमिक स्कूलों में पका हुआ भोजन देने की शुरुआत अप्रैल 2002 में हुई। इसने स्कूलों में बच्चों का नामांकन बढ़ाने में काफ़ी अहम भूमिका निभाई है। वर्तमान में इसे भारत की सबसे सफल परियोजनाओं में से एक माना जाता है। हालांकि यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार इसकी कई सिफ़ारिशें भारत के लिए प्रासंगिक हैं और इसकी सिफ़ारिशों के मुताबिक भारत की मिड डे मील स्कीम को और बेहतर किया जा सकता है। भारत में अलग-अलग राज्यों की ज़रूरतों के मुताबिक मिड डे मील का मेन्यू तय किया जाता है और इसमें अक्सर दाल, चावल, रोटी जैसे आहारों को शामिल किया जाता है। लेकिन अक्सर इसमें फल और प्रोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थ कम ही नज़र आते हैं। आज देश के राजनीतिक स्थिति के अनुसार मिड डे मील में अंडे और मांसाहारी भोजन जैसे प्रोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थ को भी बंद किया जा रहा है।

कुपोषण के मामले में भारत की स्थिति काफ़ी खराब है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भी भारत की स्थिति खराब ही रहती है। ऐसे में स्कूल के भोजन को लेकर यूनेस्को की सिफ़ारिशों पर ग़ौर करना भारत के लिए और भी ज़रूरी हो जाता है। इसके अलावा, जैसाकि रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि दुनिया भर के अधिकतर स्कूलों के लिए मेन्यू तय करने में आहार विशेषज्ञों की राय नहीं ली जाती। यह बात भारत के लिए भी सौ-प्रतिशत सच है। यही नहीं गरीब क्षेत्रों में बच्चों में बढ़ते कुपोषण और शहरी क्षेत्रों में बढ़ते मोटापे की समस्या का भी इस लेख में उल्लेख है। ये दोनों समस्याएं भी भारत के सन्दर्भ में भी सच हैं, जिन्हें दूर करने की ज़रूरत है। रिपोर्ट भारत में मिड डे मील की फंडिंग से जुड़ी खामियों को भी उजागर करती है कि किस तरह से सरकार की तरफ से राज्यों को फंड देने की गति बहुत धीमी है।
भारत इस रिपोर्ट में उल्लिखित ऐसे देशों से सीख ले सकता है, जहां स्कूलों में पोषण पर कारगर तरीके से काम किया जा रहा है। यूनेस्को की यह रिपोर्ट महज़ एक दस्तावेज़ नहीं है, यह कारवाई के लिए ज़ोर देता है। यह इस बात को समझने पर बल देती है कि अगर हम बच्चों को सचमुच में फलते-फूलते देखना चाहते हैं तो शिक्षा और पोषण साथ-साथ चलने चाहिए। यह रिपोर्ट हमें हमारे स्कूलों में चल रहे भोजन संबंधी कार्यक्रमों के बारे में पुनर्विचार का एक मौका देती है। स्कूल में भोजन की मौजूदा व्यवस्थाओं की गुणवत्ता को बेहतर करने के लिए सरकारों, शिक्षकों, स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करनेवाले लोगों, समुदायों और अन्तरराष्ट्रीय निकायों को मिलकर प्रयास करने होंगे, तभी हरेक बच्चा अच्छे से सीखेगा और पोषण की कमी से नहीं जूझेगा।