इंटरसेक्शनलजेंडर एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम और भारतीय समाज में माँओं का संघर्ष

एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम और भारतीय समाज में माँओं का संघर्ष

‘एम्प्टी नेस्ट’ उस घर के बारे में बात करता है, जहां पर घर के सभी बच्चे विभिन्न कारणों से, जैसे पढ़ाई या नौकरी या किसी दूसरे शहर में बसने के लिए, अपने जीवन की खोज में या केवल वयस्कता की शुरुआत करने के लिए अपने माता-पिता से अलग हो जाते हैं।

‘एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम’ (ईएनएस) एक ऐसा शब्द है जो पिछले पांच दशकों से मनोविज्ञान में ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। यह एक ऐसा शब्द है जो उन लंबे समय तक बनी रहने वाली कु-अनुकूलित यानी माल्डैप्टिव प्रतिक्रियाओं को बताने के लिए किया जाता है। यह उन माता-पिता के लिए इस्तेमाल होता है जब उनका अंतिम बच्चा उनका घर छोड़ कर चला जाता है और दो मध्य आयु या वृद्ध माता-पिता घर पर अकेले रह जाते हैं। इन प्रतिक्रियाओं में अवसाद, उदासी, चिंता, अपराधबोध, शारीरिक लक्षण, क्रोध, रेसेंटमेंट, चिड़चिड़ापन, निराशा और अकेलापन शामिल हैं।

कभी-कभी ये माल्डैप्टिव प्रतिक्रियाएं एक बड़े मनोवैज्ञानिक समस्या जैसे मेजर डिप्रेसिव डिसॉर्डर, चिंता विकार जैसी परेशानियों का रूप ले लेती हैं और इस तरह उन लोगों में एक मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया की शुरुआत हो जाती है। ‘एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम’ का अधिकतर असर माँओं पर पड़ता है। इसके यहां कारणों में माँ बनने के बाद सिर्फ घर पर रहना, बच्चे की परवरिश के कारण अपने सपनों को त्याग देना या काम को छोड़कर पूरा जीवन बच्चे के लिए लगा देना भी शामिल है।  

‘एम्प्टी नेस्ट’ उस घर के बारे में बात करता है, जहां पर घर के सभी बच्चे विभिन्न कारणों से, जैसे पढ़ाई या नौकरी या किसी दूसरे शहर में बसने के लिए, अपने जीवन की खोज में या केवल वयस्कता की शुरुआत करने के लिए अपने माता-पिता से अलग हो जाते हैं।

क्या है एम्प्टी नेस्ट और एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम?

‘एम्प्टी नेस्ट’ उस घर के बारे में बात करता है, जहां पर घर के सभी बच्चे विभिन्न कारणों से, जैसे पढ़ाई या नौकरी या किसी दूसरे शहर में बसने के लिए, अपने जीवन की खोज में या केवल वयस्कता की शुरुआत करने के लिए अपने माता-पिता से अलग हो जाते हैं। घर खाली हो जाने के बाद दुख और अकेलेपन के कारण माता-पिता में कुछ भावनाएं पैदा होती हैं। इस कारण मनोवैज्ञानिक स्थिति पैदा होती है, जिसे ‘एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम’ कहते हैं। ‘एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम’ माता-पिता में हमेशा नकारात्मक भावनाएं नहीं जगाता, बल्कि यह मिली-जुली भावनाओं की एक श्रृंखला भी हो सकती है, जिसमें माता-पिता की जिम्मेदारियों के अंत की राहत और लंबे समय से प्रतीक्षित स्वतंत्रता का उत्साह हो सकता है।

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साथ ही इन राहत की भावनाओं के प्रति अपराधबोध, बच्चों की भलाई की चिंता, और भविष्य में बच्चों के अस्वीकार किए जाने की चिंता या तनाव शामिल हो सकते हैं। इस सिंड्रोम की अक्सर प्रसव के बाद अवसाद से तुलना की गई है, क्योंकि माँ अपने बच्चों की हानि का सामना करते हैं। प्रोफेसर बारबरा ए. मिशेल और लॉरेन डी. लवग्रीन के अनुसार, एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम, या वह अवधि जब बच्चे स्थायी रूप से माँ-पिता का घर छोड़ते हैं, एक सामान्य घटना है। यह एक विकासात्मक चरण है जो मध्य जीवन में सामना किया जाता है, जहां माता-पिता अपेक्षा करते हैं कि उनके बच्चे घर छोड़ दें, स्वतंत्र हो जाएं और इस जीवन के दौर से संबंधित जरूरतों को सफलतापूर्वक पूरा करें।

जब बच्चा घर छोड़कर जाता है, तो यह माता-पिता और बच्चे दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है। हालांकि कई माता-पिता इसे एक बेहद सकारात्मक घटना मानते हैं, दूसरों के लिए यह एक संघर्षमय समय है। प्यार करने और अपने से दूर जाने और छोड़ने का एक समय। एक समय जब दिन-प्रतिदिन की माता-पिता की भूमिका समाप्त हो जाती है। वहीं बच्चों के लिए यह स्वतंत्रता की दिशा में एक कदम है।

जब बच्चा घर छोड़कर जाता है, तो यह माता-पिता और बच्चे दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है। हालांकि कई माता-पिता इसे एक बेहद सकारात्मक घटना मानते हैं, दूसरों के लिए यह एक संघर्षमय समय है।

हालांकि बच्चों का सिर्फ बाहर चले जाना स्वार्थ की बात नहीं है। लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे बड़े हों और स्वतंत्र जीवन व्यतीत करें। लेकिन, जाने देने का अनुभव अक्सर भावनात्मक रूप से चुनौतीपूर्ण होता है। जब उनके बच्चे घर छोड़ते हैं, चाहे वह अपने दम पर रहना हो, कॉलेज या करियर की शुरुआत करनी हो, या अपने रिश्ते बनाना हो, तो माता-पिता अकेलापन, दुख और कुछ हद तक दुख महसूस करते हैं। इसे महिलाएं अमूमन पुरुषों की तुलना में अधिक सामना करती हैं क्योंकि वे सालों से स्टे एट होम वाली स्थिति में होती है। एक माँ के बीच उदासी की भावनाएं अधिक स्पष्ट होती हैं, जिनका जीवन अपने बच्चों की दैनिक जरूरतों को पूरा करने के चारों ओर व्यवस्थित था।

एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम और लैंगिक अंतर

ऐसा माना जाता है कि महिलाओं को पुरुषों के मुक़ाबले ईएनएस का सामना करने की अधिक संभावना होती है। ‘एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम’ ऐसे समय पर आता है जब महिलाओं के जीवन में मेनोपॉज का समय आता है। मेनोपॉज महिलाओं के लिए जीवन के विभिन्न चरणों में से एक है और यह उनके प्रजनन सालों के अंत का प्रतीक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार मेनोपॉज से जुड़े हार्मोनल परिवर्तन शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक कल्याण को प्रभावित कर सकते हैं। महिलाओं की पहचान को कुछ सांस्कृतिक संदर्भों में सिर्फ उनकी प्रजनन भूमिकाओं के एक काम के रूप में देखा जाता है।

इसलिए, मेनोपॉज़ की घटना महिलाओं में पहचान का संकट पैदा करती है। साथ ही मेनोपॉज़ के बाद के समय में महिलाएं एम्प्टी नेस्ट के चरण से गुजरती हैं, जो मातृत्व की उनकी प्रमुख भूमिका को कम कर देता है। दोनों ही स्थितियां महिलाओं के मनोवैज्ञानिक परिवर्तन को प्रभावित करती हैं। अगर ध्यान से देखा जाए तो भारतीय समाज में, महिलाएं परिवार से अधिक जुड़ी हुई हैं और शादी के बाद उनका एकमात्र सामाजिक संपर्क साधन परिवार ही होता है, खासकर मध्यम वर्ग की महिलाओं के लिए। रोज़गार और आर्थिक आज़ादी जैसे कारण भी मध्यम वर्ग की महिलाओं में अकेलेपन और घर में उदासी बढ़ाने में भूमिका निभाते हैं।

‘एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम’ ऐसे समय पर आता है जब महिलाओं के जीवन में मेनोपॉज का समय आता है। मेनोपॉज महिलाओं के लिए जीवन के विभिन्न चरणों में से एक है और यह उनके प्रजनन सालों के अंत का प्रतीक है।

बच्चों के चले जाने के बाद, महिलाओं में भावनात्मक अशांति और पहचान पुनर्निर्माण मुख्य समस्या होती है, क्योंकि उनके पास माँ होने के अलावा कोई अन्य विशेष भूमिका नहीं होती है। आम तौर पर मातृत्व उनकी पहचान को परिभाषित करता है। साथ ही अधिकांश माँएं शादी के बाद अपने बच्चों के लिए अपना जीवन समर्पित कर देती हैं और बच्चों का पालन-पोषण और उन्हें जन्म देना उनकी प्रमुख जिम्मेदारी बन जाती है। उन्हें आराम की अवधि उनके लिए एक उबाऊ अनुभव बन जाती है क्योंकि वे पालन-पोषण और जन्म देने के व्यस्त कार्यक्रम की आदी हो जाती हैं। 

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दिल्ली की रहने वाली शाइस्ता जो 4 बच्चों की माँ हैं, कहती हैं, “मेरे चार बच्चे हैं। इनमें से दो बेटे और दो बेटियां हैं। बेटियां शादी करके ससुराल चली गयी है और बेटे पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी कर रहे है। दोनों बेटे नौकरी की खातिर दूसरे शहर में ट्रांसफर हो गए हैं। मैंने अपने बच्चों की खातिर अपने सपने भी त्याग दिए थे। लेकिन अब इस बुढ़ापे में मेरे पास सिवाए एक खाली घर के कुछ नहीं बचा है। जब बेटों का मन करता है, वे तभी मिलने आते हैं। कभी-कभी तो तीन महीनों तक कोई पूछने वाला नहीं होता है।”  देखा जाए तो सिर्फ चुनिंदा मामलों में ही ईएनएस माँओं पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। कभी-कभी वे बच्चों के जाने के बाद सामुदायिक गतिविधियों और सामाजिक संपर्कों में खुद को अधिक शामिल करना शुरू कर देती हैं और वे अपनी रुचियों को आगे बढ़ाने में अधिक समय व्यतीत करती हैं।

मेरे चार बच्चे हैं। इनमें से दो बेटे और दो बेटियां हैं। बेटियां शादी करके ससुराल चली गयी है और बेटे पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी कर रहे है। दोनों बेटे नौकरी की खातिर दूसरे शहर में ट्रांसफर हो गए हैं। मैंने अपने बच्चों की खातिर अपने सपने भी त्याग दिए थे। लेकिन अब इस बुढ़ापे में मेरे पास सिवाए एक खाली घर के कुछ नहीं बचा है।

महिलाएं एम्प्टी नेस्ट से कैसे निपट सकती हैं

कुछ महिलाएं दूसरों की तुलना में समायोजन को अधिक आसानी से संभाल लेती हैं लेकिन कुछ ऐसा नहीं कर पातीं। जो महिलाएं संघर्ष कर रही होती हैं, उन्हें कुछ मनोवैज्ञानिक टूल मदद कर सकते हैं। उनमें आत्म-करुणा और कृतज्ञता, सकारात्मक सोच, अपनी भावनाओं को व्यक्त करना (उदाहरण के लिए, जर्नलिंग) शामिल है। तनावपूर्ण समय के दौरान व्यायाम करना, माइंडफुलनेस का अभ्यास करना और दूसरों के प्रति दयालु होना भी स्वस्थ विकल्प हैं। इसके अलावा मातृत्व के दौरान जो सपने त्याग दिए थे उनको जीना भी हो सकता है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

रश्मि के बच्चे जॉब के लिए देश छोड़कर चले गए है। शुरू में उन्हें उनका जाना बहुत बुरा लगा। लेकिन, धीरे-धीरे उन्होंने अपने भूले-बिसरे सपनों को दोबारा शुरू किया। अपनी सोशल लाइफ में वो अब इतना बिजी रहने लगी हैं कि बच्चे अगर उन्हें याद न भी करें तो उनके मानसिक स्वास्थ पर ज़्यादा असर नहीं पड़ता है। वह कहती हैं, “मैंने बच्चों की खातिर अपनी जवानी में अपने सपनों का त्याग कर दिया था। अब मैं अपने सपनों को जीने में लगी हुई हूं। मैं मानती हूं कि इसके लिए देर हो गयी है। लेकिन, कम से कम मेरे अंदर सपनों को पूरा न करने की खलिश तो नहीं होगी।”

मैंने बच्चों की खातिर अपनी जवानी में अपने सपनों का त्याग कर दिया था। अब मैं अपने सपनों को जीने में लगी हुई हूं। मैं मानती हूं कि इसके लिए देर हो गयी है। लेकिन, कम से कम मेरे अंदर सपनों को पूरा न करने की खलिश तो नहीं होगी।

एक ऐसा समाज जहां कामकाजी महिलाओं की दुनिया भी मूल रूप से घर परिवार के इर्द-गिर्द घूमता है, और बच्चों को पालने के लिए समर्पित होता है, वहां पर उनके बच्चों के कामयाब होने के बाद घर को छोड़कर चले जाना, उन महिलाओं के लिए एक बड़े झटका से कम नहीं होता। अफ्रीका, भारत, मध्य पूर्व और पूर्वी एशिया में, बुजुर्ग माता-पिता को बहुत सम्मान दिया जाता है और उनकी देखभाल और सम्मान करना आम तौर पर एक बच्चे का कर्तव्य माना जाता है। जब इन सिद्धांतों का सम्मान नहीं किया जाता है, तो इससे माता-पिता को तनाव, दुख या शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। इसका नुकसान उन माँओं के लिए ज्यादा है, जिनपर घर को संभालने की ज़िम्मेदारी अधिक होती है। जब घर के लोग पलायन कर जाते है तो ये महिलाएं अकेली रह जाती हैं।

‘एम्प्टी नेस्ट सिंड्रोम’ एक भावनात्मक स्थिति है, जो जीवन के एक अहम पड़ाव पर आती है। यह इस बात की याद दिलाती है कि माता-पिता, खासकर माँएं अक्सर अपनी पूरी पहचान बच्चों की परवरिश में ही गढ़ लेती हैं। जब वही बच्चे जीवन की राह पर आगे बढ़ जाते हैं, तो पीछे छूटे माता-पिता, विशेष रूप से महिलाएं, एक खालीपन और पहचान के संकट से गुजरती हैं। हालांकि यह दौर तकलीफदेह हो सकता है, पर यह आत्म-खोज और खुद को नए सिरे से गढ़ने का मौका भी बन सकता है। महिलाओं के लिए यह समय है अपनी अधूरी इच्छाओं और दबे हुए सपनों को फिर से जीने का। समाज को भी चाहिए कि वह मातृत्व और देखभाल के पार महिलाओं की पहचान को समझे और उन्हें उनके फैसलों और सपनों के साथ सहयोग दे।

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