ग्राउंड ज़ीरो से पारंपरिक चूल्हों का इस्तेमाल करती महिलाएं और उनका बिगड़ता स्वास्थ्य

पारंपरिक चूल्हों का इस्तेमाल करती महिलाएं और उनका बिगड़ता स्वास्थ्य

डबल्यूएचओ के अनुसार, खाना पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले प्रदूषणकारी ईंधनों की वजह से भारत में हर साल करीब 13 लाख लोगों की मौत होती है। डबल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में लगभग 67.4 फीसद घरों में मुख्य रूप से ठोस ईंधन का इस्तेमाल होता है।

भारत जैसे विकासशील देश में स्वच्छ ईंधन तक समान पहुंच एक गंभीर और बहुआयामी चुनौती बनी हुई है, खासकर उन समुदायों के लिए जो सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं। जहां एक ओर शहरी भारत स्वच्छ ईंधन की ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहा है, वहीं ग्रामीण और वंचित समुदायों की महिलाएं आज भी लकड़ी, उपले और कोयले जैसे पारंपरिक ईंधनों पर निर्भर हैं। ये ईंधन न केवल उनके स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा हैं, बल्कि पर्यावरण को भी व्यापक रूप से नुकसान पहुंचाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार, भारत में हर साल लाखों लोग घर के भीतर ठोस ईंधनों के जलने से उत्पन्न प्रदूषण के कारण अपनी जान गंवाते हैं। इनमें सबसे ज़्यादा प्रभावित महिलाएं होती हैं, जो रसोई के काम के दौरान लंबे समय तक धुएं के संपर्क में रहती हैं।

इससे उन्हें सांस की बीमारियों, आंखों की जलन, और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिससे उनकी जीवन गुणवत्ता और उत्पादकता प्रभावित होती है। हालांकि उज्ज्वला योजना जैसी सरकारी पहलों ने एलपीजी कनेक्शन के माध्यम से स्वच्छ ईंधन तक पहुंच को बढ़ाने की कोशिश की है, लेकिन इसका सतत और व्यापक प्रभाव अब भी सीमित है। एलपीजी सिलेंडरों की बढ़ती कीमतें, महिलाओं की आर्थिक निर्भरता, और ग्रामीण इलाकों में आपूर्ति की अस्थिरता जैसे कई कारण इनके स्थायी उपयोग में बाधा बनते हैं। इसके अलावा, सामाजिक और भौगोलिक बाधाएं भी महिलाओं की ऊर्जा तक पहुंच को और जटिल बनाती हैं।

हर चीज़ महंगी हो गई है, यहां तक कि गैस भी। गैस सिलेंडर भरवाना अब बहुत मुश्किल लगता है। इसलिए मजबूरी में कभी-कभी लकड़ी जलाकर चूल्हे पर खाना बनाना पड़ता है।

क्या बताते हैं सरकारी आंकड़ें

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत के 24 करोड़ से अधिक घरों में से लगभग 10 करोड़ परिवार आज भी खाना पकाने के लिए पारंपरिक ईंधनों का उपयोग कर रहे हैं। यह स्थिति स्वच्छ ईंधन तक पहुंच को लेकर मौजूदा असमानताओं को उजागर करती है। जब महिलाओं को स्वच्छ और सुरक्षित ईंधन के स्रोत उपलब्ध होंगे, तब वे न केवल स्वस्थ जीवन जी सकेंगी, बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक अवसरों में भी उनकी भागीदारी बढ़ेगी। इस संबंध में फेमिनिज़म इन इंडिया ने कुछ महिलाओं से बातचीत की। दिल्ली में घरेलू कामगार के रूप में काम कर रही तीस वर्षीय ज़ोहरा बेगम पश्चिम बंगाल से आई हैं। वह बताती हैं, “दिल्ली में रहते हुए इतनी कमाई नहीं हो पाती कि सब कुछ आसानी से चल सके। मेरे तीन बच्चे हैं और उनके स्कूल का खर्च भी हमें ही उठाना होता है। मेरे पति रिक्शा चलाते हैं। ऐसे में दो वक्त का पोषक खाना भी मुश्किल हो जाता है। हर चीज़ महंगी हो गई है, यहां तक कि गैस भी। गैस सिलेंडर भरवाना अब बहुत मुश्किल लगता है। इसलिए मजबूरी में कभी-कभी लकड़ी जलाकर चूल्हे पर खाना बनाना पड़ता है।”

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

ज़ोहरा बताती हैं कि चूल्हे पर खाना बनाना कितना कठिन और अस्वास्थ्यकर अनुभव है। वह कहती हैं, “चूल्हे पर खाना बनाना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन करना पड़ता है। सर्दियों में किसी तरह सहन हो जाता है, लेकिन गर्मियों में बेहद परेशानी होती है। मैं जिस जगह खाना बनाती हूं, वो बंद कमरा है। ऐसे में चूल्हे से उठने वाला धुआं घर में भर जाता है, और आंखों में लगातार जलन बनी रहती है।” स्वच्छ ईंधन से वंचित ज़ोहरा जैसी लाखों महिलाओं के लिए यह समस्या केवल असुविधा नहीं, बल्कि गंभीर स्वास्थ्य संकट बन चुकी है। विशेषज्ञों के अनुसार लकड़ी, उपले या कोयले जैसे ठोस ईंधनों से निकलने वाला धुआं घरेलू वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण है। शोध बताते हैं कि इन ईंधनों से खाना बनाते समय उठने वाला धुआं, एक घंटे में शरीर में लगभग 400 सिगरेट के बराबर प्रदूषण पहुंचा सकता है। यह विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों में दमा, ब्रोंकाइटिस और आंखों की बीमारियों का मुख्य कारण बनता है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत के 24 करोड़ से अधिक घरों में से लगभग 10 करोड़ परिवार आज भी खाना पकाने के लिए पारंपरिक ईंधनों का उपयोग कर रहे हैं। यह स्थिति स्वच्छ ईंधन तक पहुंच को लेकर मौजूदा असमानताओं को उजागर करती है।

चूल्हों पर खाना बनाने को क्यों मजबूर हैं महिलाएं

साल 2016 में शुरू की गई प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना का उद्देश्य गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों की महिलाओं को एलपीजी प्रदान करना था। इसके अंतर्गत बीपीएल परिवारों की महिलाओं को मुफ्त एलपीजी कनेक्शन दिए गए ताकि वे लकड़ी, कोयला और उपलों जैसे पारंपरिक ईंधनों से छुटकारा पा सकें। इस योजना ने शुरू में महिलाओं को रसोई के जहरीले धुएं से राहत दिलाने की उम्मीद जगाई। लेकिन, आज भी बड़ी संख्या में महिलाएं चूल्हे पर खाना बनाने को मजबूर हैं। इसका मुख्य कारण एलपीजी की ऊंची कीमतें, सिलेंडर रिफिल कराने में आने वाली असुविधा और घर की आमदनी का अस्थिर होना है। योजना के लाभ प्राप्त करने के बाद भी नियमित गैस भरवाना उनके लिए आर्थिक बोझ बन गया है।

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

दिल्ली में झुग्गियों में रह रही असम की किशोरी बताती हैं, “इस शहर में रहते हुए बीस साल हो गए हैं। शुरू से लेकर आज तक बस यही सोचती रही हूं कि कैसे खर्चों को बचाऊं, ताकि कुछ और काम कर सकूं। लेकिन ऐसा कभी हो नहीं पाया। यहां हर चीज़ के पैसे देने पड़ते हैं। जो कमाई होती है, वो सिर्फ घरेलू खर्चों में ही लग जाती है। गैस चूल्हे का इस्तेमाल तभी करती हूं जब बीमार होती हूं, वरना लकड़ी या उपले जलाकर ही खाना बनाना पड़ता है। लकड़ी और उपलों से खाना बनाना आसान नहीं है। गर्मी और बरसात में चूल्हा जलाना बहुत मुश्किल होता है। जगह की भी कमी है। बरसात में लकड़ी भींग जाती है, और फिर जब उसे जलाते हैं तो इतना धुआं निकलता है कि सांस लेने में परेशानी होती है। अगर गैस सस्ती होती तो हर वर्ग के लोग इसे आसानी से इस्तेमाल कर सकते। हमें भी इतनी दिक्कत नहीं होती।”

गैस चूल्हे का इस्तेमाल तभी करती हूं जब बीमार होती हूं, वरना लकड़ी या उपले जलाकर ही खाना बनाना पड़ता है। लकड़ी और उपलों से खाना बनाना आसान नहीं है। गर्मी और बरसात में चूल्हा जलाना बहुत मुश्किल होता है। जगह की भी कमी है। बरसात में लकड़ी भींग जाती है, और फिर जब उसे जलाते हैं तो इतना धुआं निकलता है कि सांस लेने में परेशानी होती है।

स्वच्छ और सुलभ ईंधन की कमी बनी बड़ी चुनौती

यह सिर्फ किशोरी की समस्या नहीं है। भारत में खाना पकाने के लिए स्वच्छ और सुलभ ईंधन की कमी एक बड़ी समस्या के रूप में लगातार बनी हुई है। साल 2011 की आवास जनगणना डेटा हाइलाइट्स के अनुसार, देश में खाना पकाने के लिए ईंधन का उपयोग करने वाले करीब 20 करोड़ लोग हैं। इनमें से 49 फीसद लोग जलाऊ लकड़ी, 8.9 फीसद उपले, 1.5 फीसद कोयला, लिग्नाइट या चारकोल, 2.9 फीसद केरोसीन, 28.6 फीसद एलपीजी, 0.1 फीसद बिजली, 0.4 फीसद बायोगैस और 0.5 फीसद अन्य ईंधनों का उपयोग करते हैं। ये आंकड़े दिखाते हैं कि अब भी बड़ी संख्या में लोग अस्वच्छ और पारंपरिक ईंधनों पर निर्भर हैं। एलपीजी सिलेंडर की लगातार बढ़ती कीमतों ने गरीब और हाशिए पर रहने वाले परिवारों के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। एक एलपीजी सिलेंडर की कीमत अब 1000 रुपये से अधिक हो चुकी है। जिन परिवारों की मासिक आय 5000 से 10,000 रुपये के बीच है, उनके लिए यह खर्च वहन करना बेहद मुश्किल है।

प्रदूषणकारी ईंधन की वजह से भारत में होती मौतें

घरों की दूसरी जरूरतों के बीच रसोई गैस एक अंतिम विकल्प बन जाता है। भले ही ये पारंपरिक ईंधन सस्ते  हों, लेकिन इनका इस्तेमाल स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं। डबल्यूएचओ के अनुसार, खाना पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले प्रदूषणकारी ईंधनों की वजह से भारत में हर साल करीब 13 लाख लोगों की मौत होती है। डबल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में लगभग 67.4 फीसद घरों में मुख्य रूप से ठोस ईंधन का इस्तेमाल होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा 86.5 फीसद और शहरी क्षेत्रों में 26.1 फीसद है।भारत में लगभग 70 करोड़ लोग आज भी पारंपरिक ईंधनों— जैसे लकड़ी, कोयला, उपले और मिट्टी का तेल पर निर्भर हैं। यह न केवल उनके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि उनके आर्थिक बोझ को भी बढ़ा रहा है। इस स्थिति में सवाल उठता है कि क्या स्वच्छ ईंधन केवल एक वर्ग तक सीमित रहेगा? या फिर नीति-निर्माताओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए कि स्वच्छ और सुलभ रसोई ईंधन हर महिला के लिए एक बुनियादी अधिकार बने?

साल 2011 की आवास जनगणना डेटा हाइलाइट्स के अनुसार, देश में खाना पकाने के लिए ईंधन का उपयोग करने वाले करीब 20 करोड़ लोग हैं। इनमें से 49 फीसद लोग जलाऊ लकड़ी, 8.9 फीसद उपले, 1.5 फीसद कोयला, लिग्नाइट या चारकोल, 2.9 फीसद केरोसीन, 28.6 फीसद एलपीजी, 0.1 फीसद बिजली, 0.4 फीसद बायोगैस और 0.5 फीसद अन्य ईंधनों का उपयोग करते हैं।

स्वच्छ ईंधन तक पहुंच और सशक्तिकरण का अधूरा सपना

तस्वीर साभार: ज्योति कुमारी

पश्चिम बंगाल की 27 वर्षीय मुर्शिद पिछले कई वर्षों से दिल्ली की बस्तियों में रह रही है। गरीबी के कारण पढ़ाई नहीं कर सकीं और कम उम्र में शादी कर दी गई। पति की आमदनी अनियमित है। मुर्शिद का परिवार एक छोटे से कमरे में रहता है और पारंपरिक चूल्हे का इस्तेमाल करता है। धुएं की वजह से उन्हें और उनके बच्चों को परेशानी होती है। अबतक उन्हें किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 2010 में भारत में घरेलू वायु प्रदूषण के कारण 35 लाख लोगों की मौत हुई थी। इंडियन जर्नल फॉर कम्युनिटी मेडिसिन के अनुसार, हर साल करीब दो मिलियन लोगों की मृत्यु घरेलू वायु प्रदूषण से होती है, जिनमें निमोनिया, सीओपीडी और फेफड़ों का कैंसर जैसी बीमारियां प्रमुख हैं।

भारत में अब भी स्वच्छ ईंधन तक समान पहुंच एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, विशेषकर हाशिए पर रहने वाली महिलाओं के लिए। लकड़ी या उपले जुटाने में महिलाएं रोज़ कई घंटे खर्च करती हैं, जिससे शिक्षा, रोजगार और आराम के अवसर कम हो जाते हैं। केवल एलपीजी कनेक्शन काफी नहीं। गैस पर खाना बनाने के लिए कम कीमत पर सिलिन्डर और रिफिलिंग की सुविधा सुलभ होनी चाहिए। सरकारी योजनाएं तबतक प्रभावी नहीं होंगी जबतक वे सही तरीके से लागू न हों और ज़रूरतमंद महिलाओं तक न पहुंचें। स्वच्छ ईंधन के साथ-साथ महिलाओं को प्रशिक्षण, जानकारी और वैकल्पिक ईंधन स्रोतों, जैसे सोलर कुकर मुहैया कराना और इस्तेमाल की जानकारी जरूरी है। जबतक हाशिए के समुदायों को सस्ती, सुरक्षित और स्थायी ईंधन का लाभ नहीं मिलेगा,  तबतक सशक्तिकरण अधूरा रहेगा।

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