समाजकानून और नीति ग्रामीण महिलाएं, ‘लखपति दीदी’ और समस्याएं

ग्रामीण महिलाएं, ‘लखपति दीदी’ और समस्याएं

आज भले सरकारी तंत्र यह बताए कि इन योजनाओं के माध्यम से महिलाएं सशक्त हो रही हैं, लेकिन सच तो ये है कि महिलाओं को, विशेषकर ग्रामीण महिलाओं को, आज भी घरेलू कामों और बच्चों की जिम्मेदारियों से छुटकारा नहीं मिली है।

पिछले दिनों वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अंतरिम बजट पेश करते हुए यह घोषणा की कि सरकार ने स्वयं सहायता समूह के श्रमिकों के अंतर्गत ‘लखपति दीदियों’ का लक्ष्य बढ़ा दिया है, जो सालाना कम से कम एक लाख रुपये की स्थायी आय करते हैं। वित्त मंत्री ने अपने भाषण में कहा कि नौ करोड़ महिलाओं के साथ 83 लाख स्वयं सहायता समूह सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता के साथ ग्रामीण सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य को बदल रहे हैं। उनकी सफलता ने लगभग 1 करोड़ महिलाओं को ‘लखपति दीदी’ बनने में मदद की है। इस सफलता के मद्देनजर, सरकार ने ‘लखपति दीदी’ का लक्ष्य 2 करोड़ से बढ़ाकर 3 करोड़ करने का निर्णय लिया गया है। लखपति दीदी योजना को दिसंबर 2023 में राजस्थान में भाजपा सरकार ने शुरूआत की थी। वित्तीय सहायता प्रदान करके, महिलाओं के उत्थान के लिए बनाई गई इस योजना का उद्देश्य, उद्यमशीलता को बढ़ावा देना और राज्य में महिलाओं की वित्तीय स्थिति में सुधार करना है।

 इसी तरह सरकार ने घोषणा की कि पीएम मुद्रा योजना के तहत, 22.5 लाख करोड़ रुपये की कुल 43 करोड़ ऋण राशि दी गई है। इसके अलावा, उन्होंने उल्लेख किया कि पिछले दशक के भीतर, महिलाओं को विशेष रूप से 30 करोड़ मुद्रा योजना ऋण प्रदान किए गए हैं। लखपति दीदी योजना महिलाओं को आंगनवाड़ी दीदी, बैंक वाली दीदी और दवा वाली दीदी जैसे स्वयं सहायता समूहों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करती है। उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के लिए सहायता प्रदान करती है ताकि वे प्रति घर प्रति वर्ष कम से कम 1 लाख रुपये की स्थायी आय कर सकें।

इन समूहों के माध्यम से महिलाओं को उन कामों में लगाया जाता है या अवसर दिए जाते हैं जो महिला केंद्रित काम हैं। लेकिन यह सोचने वाली बात है कि क्या सचमुच ये महिलाएं उन कामों को स्वेच्छा से चुनती हैं, या उनके हालात के अनुसार ये काम सबसे ज्यादा सुविधाजनक हैं।

ग्रामीण भारत में महिलाओं की चुनौतियां

आज भले सरकारी तंत्र यह बताए कि इन योजनाओं के माध्यम से महिलाएं सशक्त हो रही हैं, लेकिन सच तो ये है कि महिलाओं को, विशेषकर ग्रामीण महिलाओं को, आज भी घरेलू कामों और बच्चों की जिम्मेदारियों से छुटकारा नहीं मिली है। वहीं इन समूहों के माध्यम से महिलाओं को उन कामों में लगाया जाता है या अवसर दिए जाते हैं जो महिला केंद्रित काम हैं। लेकिन यह सोचने वाली बात है कि क्या सचमुच ये महिलाएं उन कामों को स्वेच्छा से चुनती हैं, या उनके हालात के अनुसार ये काम सबसे ज्यादा सुविधाजनक हैं। यह स्पष्ट है कि अधिकांश महिलाएं अपना 80 प्रतिशत से अधिक समय अवैतनिक घरेलू कर्तव्यों में बिताती हैं क्योंकि कथित तौर पर इन कर्तव्यों को पूरा करने के लिए पुरुष की जिम्मेदारी तय नहीं की जाती। आईआईएम अहमदाबाद ने एक शोध ‘भारत में ग्रामीण महिला श्रम शक्ति भागीदारी में गिरावट: कारणों पर एक पुनर्विचार’ किया।

तस्वीर साभार: Mint

इसके अनुसार घरेलू कर्तव्यों में संलग्न और घर में रहना पसंद करने वाली ग्रामीण महिलाओं का अनुपात साल 1993-1994 में 70 प्रतिशत से घटकर 2011-2012 में 66 प्रतिशत हो गया है। यानि काम करने की इच्छा व्यक्त करने वाली महिलाओं का अनुपात 30 प्रतिशत से बढ़कर 34 प्रतिशत हो गया है। उनमें से अधिकांश नियमित अंशकालिक आधार पर काम करना चाहती थीं ताकि अपने घरेलू कर्तव्यों को भी पूरा कर सकें। इस शोध के अनुसार, हालांकि अधिकांश ग्रामीण महिलाओं ने उद्यम पूंजी की मांग की है। लेकिन इस पूंजी की सहायता के रुझान में गिरावट और प्रशिक्षण की मांग में वृद्धि दर्ज की गई।

इस शोध के अनुसार, हालांकि अधिकांश ग्रामीण महिलाओं ने उद्यम पूंजी की मांग की है। लेकिन इस पूंजी की सहायता के रुझान में गिरावट और प्रशिक्षण की मांग में वृद्धि दर्ज की गई। वहीं महिला-केंद्रित नौकरियों को प्राथमिकता देने का मतलब है कि ग्रामीण महिलाएं ऐसी गतिविधियों को पसंद करती हैं, जो आसानी से उनके घरेलू कामों के साथ मेल खा सके।

वहीं महिला-केंद्रित नौकरियों को प्राथमिकता देने का मतलब है कि ग्रामीण महिलाएं ऐसी गतिविधियों को पसंद करती हैं, जो आसानी से उनके घरेलू कामों के साथ मेल खा सके। प्रधानमंत्री मुद्रा योजना (पीएमएमवाई) की बात करें तो यह गैर-कॉर्पोरेट, गैर-कृषि लघु और सूक्ष्म उद्यमों जैसे पोल्ट्री, डेयरी, व्यापार आदि को 10 लाख रुपये तक का ऋण प्रदान करने के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू की गई योजना है। इन ऋणों को पीएमएमवाई के तहत मुद्रा ऋण के रूप में बताया गया है।

बात स्वयं समूह समूहों के समस्याओं की

स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से चल रहे इन योजनाओं में कई बार खुद ये ‘समूह’ ही समस्याओं का कारण बनते हैं। हालांकि इन समूहों का उद्देश्य विभिन्न महिलाएं को एकजुट कर उद्यमशीलता को बढ़ावा देना है। लेकिन ये महिलाएं अपनी अलग-अलग शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि और व्यवहार में भिन्नता के साथ आती हैं। उन्हें स्वयं सहायता समूहों की बैठकें, किताबें, पैसा संभालने या टीम में काम करने के तरीके के बारे में प्रशिक्षित नहीं किया जाता है। इस प्रकार, यह संभव है कि समूह गठन के प्रारंभिक चरण में महिलाओं के बीच मतभेद हो।

तस्वीर साभार: Business-standard

वे एक-दूसरे के साथ और समूह के अध्यक्ष के साथ सहयोग न करें या वे इन मीटिंग में उपस्थिति और धन के प्रबंधन में अनियमितता दिखा सकती हैं। स्वयं सहायता समूह के अंतर्गत जटिल बैंक प्रक्रियाएं, इन समूहों के मीटिंग और काम में समय देने के बावजूद प्रोत्साहन की कमी, विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों के बारे में जागरूकता की कमी और समाज की रूढ़िवादी विचारधराएं महिलाओं के लिए चुनौतियां और रुकावट का काम करती है।

ये महिलाएं अपनी अलग-अलग शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि और व्यवहार में भिन्नता के साथ आती हैं। उन्हें स्वयं सहायता समूहों की बैठकें, किताबें, पैसा संभालने या टीम में काम करने के तरीके के बारे में प्रशिक्षित नहीं किया जाता है।

क्या महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी बढ़ रही है

हालांकि महिलाएं भारत की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं, लेकिन उन्हें बड़े पैमाने पर आर्थिक गतिविधियों और निर्णय लेने में भाग लेने के साथ-साथ स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा के संसाधनों तक पहुंच से बाहर रखा गया है। यह बहिष्कार और भेदभाव विशेषकर निम्न आर्थिक और सामाजिक वर्ग की महिलाओं में ज्यादा दिखाई पड़ता है। मिंट के अनुसार श्रम बल भागीदारी दर में भारत में साल 1990 में 30.3 फीसद की तुलना में 2021 में यह केवल 22.3 फीसद दर्ज की गई। विश्व बैंक के अनुमान से पता चलता है कि भारत में महिला श्रम बल भागीदारी दर दुनिया में सबसे कम है, जहां 15 वर्ष या उससे अधिक उम्र की एक तिहाई से भी कम महिलाएं काम कर रही हैं या सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश में हैं। वार्षिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत की महिला श्रम बल भागीदारी दर 2017-18 में 23.3 फीसद से बढ़कर 2022-23 में 37 फीसद हो गई। इस वृद्धि में ग्रामीण महिलाओं ने मूल रूप से योगदान दिया। लेकिन वहीं इसी अवधि के दौरान, महिलाओं की बेरोजगारी दर 5.6 फीसद से गिरकर 2.9 फीसद हो गई।

क्या योजनाएं हैं बुनियादी समस्याओं का हल

यह सच है कि महिलाओं को एसएचजी के माध्यम से हाइब्रिड फंड उपलब्ध कराने से, कम आय वाले परिवारों पर फर्क पड़ता है। फिर भी हम महिलाओं के कार्यबल भागीदारी के मामले में उनकी चुनौतियों और कमी को नजरंदाज नहीं कर सकते। इसके अलावा, माइक्रोफाइनेंस योजनाओं से हटकर महिलाओं की भागीदारी के लिए हमें अधिक किफायती चाइल्डकेअर, सुरक्षित परिवहन, लचीली कार्य व्यवस्था, नौकरी के लिए भर्ती और विकास में मौजूद पूर्वाग्रहों को दूर करने की आवश्यकता है। साथ ही, घरेलू काम, बच्चों की जिम्मेदारी एक ऐसी चुनौती है जहां हमें पितृसत्ता को दरकिनार करने की जरूरत है। वे बाधाएं हैं जो आज भी महिलाओं की श्रम शक्ति की क्षमता को बाधित करती हैं। इसलिए, जहां ग्रामीण महिला स्वयं सहायता समूह एक उद्देश्य की पूर्ति करते हैं, वहीं ये दूसरी समस्याओं की बात नहीं करती।

जैसे-जैसे कृषि अर्थव्यवस्था सिकुड़ने लगी, पुरुष औद्योगिक नौकरियों की ओर बढ़ने लगे हैं। ऐसे में कम शिक्षा, घरेलू ज़िम्मेदारियों का बोझ और बच्चों की देखभाल जैसे कई कारणों के वजह से महिलाएं उनसे काफी पीछे रह गईं। हालांकि अब महिलाओं के शिक्षा स्तर में सुधार और कार्यबल में कुछ हद तक भागीदारी से लोगों के वित्तीय स्थिति में सुधार हुआ है। लेकिन बुनियादी समस्याओं का हल का रास्ता अभी बहुत दूर है। सरकार के आंकड़ों के अनुसार भारत में कृषि लगभग 80 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं को रोजगार देती है। लेकिन कृषि क्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा अवैतनिक सहायक के रूप में काम कर रहा है। पारंपरिक उद्योगों के उत्पादों की मांग में कमी होने से भी भारी संख्या में ग्रामीण महिलाओं ने नौकरियां खोई हैं। ऐसे में माइक्रोफाइनेंस योजनाओं से इन महिलाओं को शायद ही वह लाभ मिले, जिसकी सरकार दावे कर रही है।

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