समाजख़बर एनडीए में महिलाओं की भागीदारी बराबरी है या प्रतीकात्मक उपस्थिति?

एनडीए में महिलाओं की भागीदारी बराबरी है या प्रतीकात्मक उपस्थिति?

नेशनल डिफेंस अकादमी (एनडीए ) की शुरुआत साल 1954 में हुई थी। लेकिन, उस समय से लेकर बहुत लंबे समय तक इसमें सिर्फ पुरुषों को ही ट्रेनिंग दी जाती थी। महिलाओं को यह मौका कभी नहीं मिला, क्योंकि यह मान लिया गया था कि सेना जैसे काम सिर्फ पुरुष ही कर सकते हैं।

आजकल हम महिलाओं को हर क्षेत्र जैसे विज्ञान, खेल, राजनीति, कला और अब सेना में भी आगे बढ़ते हुए देख रहे हैं। यह बदलाव समाज की पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती दे रही है। हाल ही में एक ऐतिहासिक पल सामने आया जब पुणे की नेशनल डिफेंस अकादमी (एनडीए) की 148वीं पासिंग आउट परेड में पहली बार 17 महिला कैडेट्स ने 319 पुरुष कैडेट्स के साथ मिलकर स्नातक किया। साल 1954 में एनडीए की स्थापना के बाद, यह अकादमी सिर्फ पुरुषों के लिए ही खुली थी। लेकिन अब पहली बार महिलाओं को भी यहां से प्रशिक्षण मिलकर सेना में शामिल होने का मौका मिला है। यह खबर अगले कुछ दिनों और हफ्तों तक सुर्खियों में रही। सोशल मीडिया पर भी इन महिला कैडेट्स की खूब सराहना हुई क्योंकि जहां अबतक पुरुषों का वर्चस्व था।  

यह घटना दिखाती है कि अब लोग यह सोचने लगे हैं कि कोई काम केवल महिला या पुरुष तक सीमित नहीं है। यह कदम लैंगिक समानता, नारीवादी सोच और सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण शुरुआत माना जा रहा है। लेकिन, इसके साथ ही हमें इस बदलाव को थोड़ा और गहराई से समझने की जरूरत है। हमें यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या यह वाकई सशक्तिकरण है, या सिर्फ उसका एक अलग रूप है? हालांकि यह सच है कि पहली बार महिलाओं का एनडीए में आना एक ऐतिहासिक कदम है। लेकिन क्या इससे उस सिस्टम की सोच या काम करने का तरीका भी बदलेगा? सिर्फ यह देखना कि अब उस संस्थान के अंदर महिलाएं हैं, काफी नहीं है। असली बात यह है कि क्या उस संस्था के भीतर महिलाओं को बराबरी, सम्मान और न्याय भी मिल रहा है या नहीं। 

हाल ही में एक ऐतिहासिक पल सामने आया जब पुणे की नेशनल डिफेंस अकादमी (एनडीए) की 148वीं पासिंग आउट परेड में पहली बार 17 महिला कैडेट्स ने 319 पुरुष कैडेट्स के साथ मिलकर स्नातक किया।

एनडीए में महिलाएं और पितृसत्तात्मक सोच

नेशनल डिफेंस अकादमी (एनडीए ) की शुरुआत साल 1954 में हुई थी। लेकिन, उस समय से लेकर बहुत लंबे समय तक इसमें सिर्फ पुरुषों को ही ट्रेनिंग दी जाती थी। महिलाओं को यह मौका कभी नहीं मिला, क्योंकि यह मान लिया गया था कि सेना जैसे काम सिर्फ पुरुष ही कर सकते हैं। ऐसा सोचने के पीछे समाज की पितृसत्तात्मक सोच थी, जिसमें ताकत, लीडरशिप और देशभक्ति जैसे शब्दों को सिर्फ पुरुषों से जोड़ा गया। महिलाओं को बाहर रखने के लिए कई बहाने बनाए गए जैसेकि वे शारीरिक रूप से कमजोर हैं, या सेना के लिए फिट नहीं हैं। लेकिन ये बहाने असल में महिलाओं को बराबरी से रोकने के तरीके थे। साल 2021 में जब एक महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली, तब कोर्ट ने एनडीए को महिलाओं के लिए भी खोलने के आदेश दिए।

तस्वीर साभार : Femina

मिंट में प्रकाशित लेख के अनुसार महिलाओं को यह मौका साल 2021 में तब मिला, जब  सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने एनडीए को अपने दरवाज़े खोलने पर मजबूर किया यह कोई स्वैच्छिक निर्णय नहीं था। यह तथ्य अपने-आप में बहुत कुछ कहता है कि कैसे महिलाओं की बराबरी की मांगें तब तक नजरअंदाज की जाती हैं जब तक वे कानून का सहारा न ले लें। 2022 में पहली महिला कैडेट्स की एंट्री और 2024 में उनके पहले बैच का पास आउट होना एक ऐतिहासिक कदम ज़रूर है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह बदलाव पितृसत्तात्मक ढांचे के भीतर ही हुआ है। सवाल यह नहीं है कि महिलाएं सेना में आ गईं, बल्कि यह है कि क्या उन्हें उस व्यवस्था को बदलने का मौका मिलेगा जो दशकों से मर्दानगी, अनुशासन और आज्ञाकारिता के पैमाने पर टिकी है? हमें यह सोचना चाहिए कि क्या यह बराबरी है या केवल प्रतीकात्मक उपस्थिति? 

2022 में पहली महिला कैडेट्स की एंट्री और 2024 में उनके पहले बैच का पास आउट होना एक ऐतिहासिक कदम ज़रूर है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह बदलाव पितृसत्तात्मक ढांचे के भीतर ही हुआ है। सवाल यह नहीं है कि महिलाएं सेना में आ गईं, बल्कि यह है कि क्या उन्हें उस व्यवस्था को बदलने का मौका मिलेगा जो दशकों से मर्दानगी, अनुशासन और आज्ञाकारिता के पैमाने पर टिकी है?

सैन्यवाद और नारीवाद एक असहज रिश्ता

तस्वीर साभार : The Print

नारीवाद का मुख्य उदेश्य आज़ादी, बराबरी और हिंसा से मुक्त समाज की कल्पना है, जबकि सैन्यवाद का ढांचा शक्ति, नियंत्रण, अनुशासन और हिंसा पर आधारित होता है। यही वजह है कि दोनों के बीच रिश्ता असहज, विरोधाभासी और कई बार टकराव भरा रहा है। क्या यह सशक्तिकरण है या सिर्फ पितृसत्ता के एक नए रूप में शामिल हो जाना है? फेमिनिस्ट जायंट में प्रकाशित लेख के अनुसार जब महिलाएं सेना में किसी युद्ध की स्थिति में अपनी भूमिका निभाना शुरू करती हैं, तो देश में इसे गर्व की बात माना जाता हैं। लेकिन असल में, महिलाएं जिस युद्ध में शामिल होती हैं वे अक्सर पितृसत्ता के लिए होते हैं यानी महिलाएं उसी युद्ध का हिस्सा बनेंगी, जिसपर सिर्फ पुरुषों के बनाए हुए सत्ता तंत्र का हक होता है।

सेना जैसे संस्थान अक्सर मर्दानगी, आदेशपालन और वर्चस्व के मूल्यों को बढ़ावा देते हैं, जहां महिलाओं को वही बनना पड़ता है जो समाज की पारंपरिक सोच में एक आदर्श सैनिक पुरुष होता है। इसका एक उदाहरण साल 2020 की फिल्म गुंजन सक्सेना द कारगिल गर्ल में देखने को मिलता है। इकोनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार राज्यसभा में दिए गए विवरण के अनुसार, भारतीय नौसेना में तीनों सेनाओं में 6.5 फीसद महिलाएं कार्यरत हैं। थलसेना में 0.56 फीसद और भारतीय वायुसेना में 1.08 फीसद महिलाएं शामिल हैं। एक प्रश्न के लिखित उत्तर में रक्षा राज्य मंत्री श्रीपद नाइक ने बताया कि सेना में केबल 6,807 महिलाएं कार्यरत हैं, जबकि सेना में सेवारत पुरुषों की संख्या 12,18,036 है।

इकोनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार राज्यसभा में दिए गए विवरण के अनुसार, भारतीय नौसेना में तीनों सेनाओं में 6.5 फीसद महिलाएं कार्यरत हैं। थलसेना में 0.56 फीसद और भारतीय वायुसेना में 1.08 फीसद महिलाएं शामिल हैं।

नारीवादी लेखिका सिंथिया एन्लो कहती हैं कि जब हम पूछते हैं औरतें कहां हैं? तब हमें असल में दिखने लगता है कि पुरुष किस तरह से सत्ता में हैं और उन्हें अपनी मर्दानगी को साबित करने की कितनी चिंता होती है। सेना जैसी जगहों पर ये मर्दानगी और भी ज़्यादा दिखाई देती है जहां ताकत, आदेश और हिंसा को साहस माना जाता है। एन्लो इस बात पर ज़ोर देती हैं कि नारीवाद सिर्फ यह नहीं पूछता कि महिलाओं को सेना में आने दिया जा रहा है या नहीं, बल्कि यह भी पूछता है कि जिस सिस्टम में उन्हें लाया जा रहा है, वो कैसा है? क्या वो वाकई बराबरी का है? एन्लो साफ़ कहती हैं कि नारीवाद सैन्य व्यवस्था को लेकर हमेशा संदेह में रहता है, क्योंकि यह ढांचा ज़्यादातर समय पुरुषों को ताकतवर बनाता है और बाकी सबको कमजोर करता है। इसलिए, अगर हम महिलाओं की मौजूदगी को ही सशक्तिकरण मान लें, तो हम असल मुद्दों को अनदेखा कर रहे हैं।

वर्ग, जाति और पहुंच का सवाल

तस्वीर साभार : The Times Of India

जहां हर जगह सोशल मीडिया के जरिए लैंगिक समानता और एक समावेशी समाज की खबरें फैलाई जा रही हैं कि अब महिलाओं को सशस्त्रबलों में शामिल किया जा रहा है। हमारे देश में तो कोई भेदभाव ही नहीं बचा। वहीं दूसरी और यह सवाल उठना भी जरूरी है कि इन क्षेत्रों में किस वर्ग और जाति की महिलाओं को अवसर मिल रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि सभी महिलाओं को इससे लाभ हो रहा है। सच यह है कि ग्रामीण, दलित, आदिवासी या मुस्लिम समुदाय की लड़कियों के लिए यह रास्ता अभी भी बहुत मुश्किल है। वे कई कारणों से आज भी हाशिये पर रह रही हैं। इनमें संसाधनों तक पहुंच जैसे पढ़ाई में कम सहायता, शारीरिक फिटनेस के संसाधन की कमी, भाषा की बाधा और सामाजिक रूढ़ियां शामिल हैं। ऐसे में इस सशक्तिकरण को सभी महिलाओं के लिए नहीं माना जा सकता। 

एन्लो साफ़ कहती हैं कि नारीवाद सैन्य व्यवस्था को लेकर हमेशा संदेह में रहता है, क्योंकि यह ढांचा ज़्यादातर समय पुरुषों को ताकतवर बनाता है और बाकी सबको कमजोर करता है। इसलिए, अगर हम महिलाओं की मौजूदगी को ही सशक्तिकरण मान लें, तो हम असल मुद्दों को अनदेखा कर रहे हैं।

इससे यह देखने को मिलता है कि जो पितृसत्तात्मक ढांचा सदियों पहले बनाया गया था वह अभी भी बिल्कुल वैसा ही है और इस ढांचे में सशस्त्रबलों के अंदर होने वाले जाति और धार्मिक भेदभाव जैसे गहरे संघर्षों को दरकिनार कर देता है और जाति आधारित भेदभाव से जुड़ी हिंसा को छुपाने की कोशिश करता है। यौन हिंसा और युद्ध नेतृत्व तक पहुंच की कमी जैसे वास्तविक मुद्दे जिनका सामना महिलाएं करती हैं, अक्सर अनदेखा कर दिए जाते हैं और इन गहरे मुद्दों को ठीक किए बिना समावेश का जश्न मनाने से, सिस्टम वास्तव में बहुत कुछ बदले बिना प्रगतिशील दिखने लगता है। सवाल यह नहीं है कि महिलाएं वर्दी पहन रही हैं या नहीं, सवाल यह है कि क्या हर महिला को वह वर्दी पहनने का सपना देखने का हक और अवसर मिल रहा है? जब तक जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर बनी दीवारें टूटती नहीं हैं, तब तक यह सशक्तिकरण अधूरा ही रहेगा।

सशक्तिकरण का असली मतलब क्या है

तस्वीर साभार : Scroll.in

असल में सशक्तिकरण तब होता है जब महिलाओं को खुद के फैसले लेने की आजादी हो, उन्हें सम्मान और बराबरी मिले, और वे अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जी सकें। अगर किसी महिला को वर्दी पहनने का मौका मिला भी, लेकिन उस संस्था में उसकी बात नहीं सुनी जाए या उसे फैसले लेने का अधिकार ही न हो तो क्या वह सच में सशक्त है? सेना जैसी जगहों पर काम करने वाली महिलाओं को भी वही हक और सुविधाएं मिलनी चाहिए जो पुरुषों को मिलती हैं। हमें समझना होगा कि किसी भी संस्था में महिलाओं की मौजूदगी तभी मायने रखती है जब वे निर्णायक पदों पर और उस जगह के नियम, सोच और व्यवहार को बदलने की ताक़त रखती हों।

अगर वे भी उसी पितृसत्तात्मक सिस्टम का हिस्सा बन जाएं जो अब तक उन्हें कमतर समझता आया है, तो यह असली बदलाव नहीं बल्कि उसी ढांचे में एक नई परत जोड़ना है। इसके अलावा, यह भी ज़रूरी है कि हम यह देखें कि किन महिलाओं को यह अवसर मिल रहा है और किन्हें अब भी यह सपना देखना भी मुमकिन नहीं लगता। जाति, वर्ग, धर्म और क्षेत्रीय असमानताएं आज भी बहुत सी महिलाओं को ऐसे संस्थानों से बाहर रखती हैं। इसलिए, हमें हर उपलब्धि को सवालों के घेरे में लाना होगा क्योंकि असली सशक्तिकरण वही है जो व्यवस्था को जड़ से हिलाने की ताक़त रखता है, न कि केवल उसमें महिलाओं की मौजूदगी जोड़ देने भर से संतुष्ट हो जाता है।

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