भारत सहित दुनियाभर में आज भी पीरियड्स को स्वच्छता, शर्म और चुप्पी से जोड़ा जाता है। इस सोच के कारण पीरियड्स से गुजरने वाले लोग ज़रूरी सुविधाओं और अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) के अनुसार, पीरियड्स केवल स्वच्छता नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और मानवाधिकार का मुद्दा है, जिसमें शारीरिक, मानसिक और सामाजिक पहलू शामिल हैं। इसलिए इसे एक समग्र स्वास्थ्य विषय के रूप में देखने और समझने की ज़रूरत है। डबल्यूएचओ के अनुसार, पीरियड्स से गुजरने वाले सभी व्यक्तियों को समान शिक्षा, जानकारी और जरूरी सुविधाएं मिलनी चाहिए।
पीरियड्स स्वास्थ्य से जुड़ी सभी योजनाओं को विभागीय कार्य योजनाओं, बजट और नीतियों में शामिल कर प्रभावी तरीके से लागू करना जरूरी है पीरियड्स को सिर्फ स्वच्छता का नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और मानवाधिकार का विषय माना जाना चाहिए, खासकर तब जब जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर भेदभाव गहराई से मौजूद हो। हाशिए पर मौजूद समुदायों के लोग अक्सर इस भेदभाव के चलते ज़रूरी सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। इस स्थिति को ही हम ‘पीरियड्स पावर्टी’ कह सकते हैं, जो स्वास्थ्य, सम्मान और बराबरी के अधिकारों को सीधे तौर पर प्रभावित करता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2022 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के 50वें सत्र में साफ़ कहा था कि पीरियड्स केवल स्वच्छता का नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और मानवाधिकार का मुद्दा है।
मेन्स्ट्रूऐशन जस्टिस क्या है?
मेंस्ट्रूएशन जस्टिस शब्द का प्रयोग सबसे पहले अमेरिकी विधिवेत्ता प्रोफेसर मार्गरेट ई. जॉनसन ने अपने शोधपत्र में किया था। जॉनसन का पीरियड्स इनजस्टिस के विषय में मानना है कि पीरियड्स होने वाले व्यक्तियों को केवल इस कारण शोषण और भेदभाव का सामना करना पड़ता हैं क्योंकि उन्हें हर महीने पीरियड्स से गुजरना पड़ता है। इसमें उन्होंने अमेरिका में मौजूद विभिन्न प्रकार की पीरियड्स संबंधी असमानताओं, भेदभाव का गहराई से विश्लेषण किया है। लेकिन, ऐसे भेदभाव, शोषण और अन्याय एशियाई देशों में भी देखने को मिल सकता है। देश में पीरियड्स को टैबू मानने जैसी चुनौती आज भी एक बड़ी सामाजिक समस्या के रूप में मौजूद है। भारतीय समाज में पीरियड्स से जुड़ी असमानता और भेदभाव रूढ़िवादी सोच, जातिवाद, लैंगिक भेदभाव और वर्गीय असमानता जैसे कई रूपों में दिखाई देती है।

ये सभी संरचनात्मक व्यवस्थाएं पीरियड्स से गुजरने वाले व्यक्तियों विशेष रूप से हाशिये पर रहने वाले लोगों के अनुभवों और अधिकारों को प्रभावित करती है। सेंट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून की एसोसिएट प्रोफेसर इंगा टी. विंकलर मानती हैं कि पीरियड्स केवल जैविक प्रक्रिया नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचनाओं के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। पैल्ग्रेव हैंडबुक ऑन क्रिटिकल मेन्स्ट्रुएशन स्टडीज़ में प्रकाशित उनके एक शोध मुताबिक यह एक मौलिक मुद्दा है क्योंकि यह सत्ता संबंधों के बारे में है।
सेंट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून की एसोसिएट प्रोफेसर इंगा टी. विंकलर मानती हैं कि पीरियड्स केवल जैविक प्रक्रिया नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचनाओं के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है।
जेंडर और जाति का पीरियड्स के अनुभवों से संबंध
पीरियड्स को हमारे भारतीय पुरुषप्रधान समाज में हमेशा से ही महिलाओं की अशुद्धता, अपवत्रिता और अस्वच्छता से जोड़ कर देखा गया है। दलित सामाजिक कार्यकर्ता दीप्ति सुकुमार अपने शोध कास्ट इज माइ पीरियड्स में बताती हैं कि दलित महिलाओं का पीरियड्स अनुभव कथित उच्च जाति की महिलाओं से अलग होता है। सफाई जैसे जाति आधारित कामों से जुड़ी होने के कारण उन्हें हर समय अशुद्ध माना जाता है, जबकि उच्च जाति की महिलाओं को केवल पीरियड्स के दौरान ही ‘अशुद्ध’ समझा जाता है। इससे साफ है कि दलित महिलाएं जाति और जेंडर, दोनों स्तरों पर भेदभाव का सामना करती हैं। हाल ही में तमिलनाडु के कोयंबटूर में एक दलित छात्रा को पीरियड्स शुरू होने पर परीक्षा के दौरान क्लास से बाहर बैठा दिया गया, जो इस भेदभाव का ताजा उदाहरण है।

टाटा इंस्टिट्यूट की प्रोफेसर टी. सौजन्या अपने शोधपत्र क्रिटीक ऑन कॉन्टेम्पररी डिबेट्स ऑन मेन्स्ट्रुअल टैबू इन इंडिया थ्रू कास्ट लेंस में बताती हैं कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता दलित और हाशिये के समुदाय के पीरियड्स से जुड़ी परंपराओं को महत्व नहीं देते हैं। जहां सवर्ण घरों में पीरियड्स के दौरान महिलाओं को ‘अछूत’ मानकर अलग किया जाता है, वहीं दलित महिलाएं इस समय भी खेतों में काम करती हैं, खाना बनाती हैं और सफाई जैसे काम करती हैं। साफ तौर पर पीरियड्स से जुड़ी पाबंदियां जाति पर आधारित होती हैं। सौजन्या ज़ोर देती हैं कि जब तक जाति, जेंडर और वर्ग को एक साथ देखकर पीरियड्स के मुद्दों को नहीं समझा जाएगा, तब तक इससे जुड़ी असमानताओं और भेदभाव को खत्म करना मुश्किल होगा।
जहां सवर्ण घरों में पीरियड्स के दौरान महिलाओं को ‘अछूत’ मानकर अलग किया जाता है, वहीं दलित महिलाएं इस समय भी खेतों में काम करती हैं, खाना बनाती हैं और सफाई जैसे काम करती हैं। साफ तौर पर पीरियड्स से जुड़ी पाबंदियां जाति पर आधारित होती हैं।
साल 2019-21 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, पीरियड्स के दौरान स्वच्छता उत्पादों जैसे सैनिटरी पैड, कप आदि तक पहुंच में भी जाति की अहम भूमिका है। जहां कथित उच्च जातियों के करीब 86 फीसद व्यक्ति ही ऐसे साधनों का इस्तेमाल कर पाते हैं, वहीं अनुसूचित जाति के सिर्फ 75 फीसद और अनुसूचित जनजाति के केवल 78 फीसद लोग ही इन स्वच्छ तरीकों तक पहुंच पाते हैं। समाज में हाशिये पर रह रहे समुदायों को पीरियड्स को मैनेज करने के दौरान ज़रूरी और सुरक्षित उपाय आसानी से नहीं मिल पाते।
पीरियड्स में वर्ग आधारित भेदभाव
देश में आज भी सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के कारण दलित, आदिवासी और हाशिये के समुदायों के लोग स्वच्छ पीरियड्स उत्पाद के इस्तेमाल से वंचित हैं। साल 2022 में बहनबॉक्स की एक रिपोर्ट में एनएफएचएस-5 सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार 71 फीसद सवर्ण जाति और कथित उच्च वर्ग की महिलाएं अपने पीरियड्स के दौरान सुरक्षित पीरियड्स प्रोडक्ट और बुनियादी साधनों का इस्तेमाल कर पाती हैं। वहीं सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर तबके की सिर्फ 12 फीसद महिलाओं के पास पीरियड्स प्रोडक्ट उपलब्ध हैं।

वहीं अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं की पीरियड्स स्वास्थ्य स्थिति बेहद चिंताजनक है। शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण, महज 9 फीसद गरीब एसटी महिलाएं ही सैनिटरी नैपकिन जैसे सुरक्षित पीरियड्स उत्पादों का उपयोग कर पाती हैं। अनुसूचित जातियों की सबसे गरीब महिलाओं में यह आंकड़ा 10 फीसद और अन्य पिछड़े वर्ग की गरीब महिलाओं में केवल 8 फीसद है। यह आंकड़े सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के साथ-साथ पीरियड्स स्वास्थ्य को लेकर मौजूद भेदभाव को भी उजागर करते हैं।
साल 2022 में बहनबॉक्स की एक रिपोर्ट में एनएफएचएस-5 सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार 71 फीसद सवर्ण जाति और कथित उच्च वर्ग की महिलाएं अपने पीरियड्स के दौरान सुरक्षित पीरियड्स प्रोडक्ट और बुनियादी साधनों का इस्तेमाल कर पाती हैं।
रिसर्च गेट में छपी रिपोर्ट के अनुसार, आर्थर चार्ल्स नील्सन के 2011 के अध्ययन ‘सैनिटरी सुरक्षा हर महिला का स्वास्थ्य अधिकार’ में पाया गया कि भारत की लगभग 35.5 करोड़ महिलाओं में से केवल 12 फीसद ही सैनिटरी नैपकिन का उपयोग करती हैं। बाकी 88 फीसद महिलाएं आज भी गंदे कपड़े, राख या रेत जैसी असुरक्षित चीज़ों का इस्तेमाल करती हैं। भारत में लगभग 70 फीसद महिलाएं कहती हैं कि उनके परिवार सैनिटरी नैपकिन जैसे सुरक्षित पीरियड्स उत्पाद खरीदने में सक्षम नहीं हैं। यह आंकड़े बताते हैं कि पीरियड्स स्वास्थ्य सिर्फ एक जैविक नहीं, बल्कि गहराई से जाति और वर्ग से जुड़ा सामाजिक मुद्दा भी है।
जेंडर और मेन्स्ट्रूऐशन जस्टिस
आज भी क्वीयर या ट्रांस समुदाय के व्यक्ति मेन्स्ट्रूऐशन जस्टिस से वंचित हैं। इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में छपी रिपोर्ट के मुताबिक ज़्यादातर पीरियड्स नीतियों को दुनिया भर में सिर्फ महिलाओं और लड़कियों को ध्यान में रख कर बनाया गया है। आज भी ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की पीरियड्स संबंधी ज़रूरतों को लेकर सार्वजनिक या राजनीतिक स्तर पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

आज भी क्वीयर या ट्रांस समुदाय के व्यक्ति मेन्स्ट्रूऐशन जस्टिस से वंचित हैं। इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में छपी रिपोर्ट के मुताबिक ज़्यादातर पीरियड्स नीतियों को दुनिया भर में सिर्फ महिलाओं और लड़कियों को ध्यान में रख कर बनाया गया है।
हाशिए पर मौजूद समुदायों, खासकर ट्रांस और क्वीयर व्यक्तियों को पीरियड्स के दौरान कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। मेडिकल पत्रिका द लांसेट के मुताबिक, इन समुदायों को साफ-सुथरे और सुरक्षित शौचालयों की कमी, स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुंच और समाज में फैले ट्रांसफोबिया और लैंगिक भेदभाव से रोज़ गुजरना पड़ता है। भारत में कई ट्रांस पुरुषों ने बताया है कि वे पब्लिक टॉयलेट में पैड बदलने से डरते हैं क्योंकि उन्हें हिंसा या भेदभाव का डर रहता है। चूंकि समाज में यह धारणा है कि पीरियड्स केवल महिलाओं को होते हैं, ऐसे में ट्रांस पुरुषों को न केवल मानसिक दबाव बल्कि स्वास्थ्य उत्पादों तक पहुंच में भी मुश्किलें आती हैं, खासकर जब वे आर्थिक रूप से कमजोर या ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं। पीरियड्स को लेकर होने वाली नीतियों और जागरूकता अभियानों में अब भी लैंगिक विविधता को समावेशिता करने की ज़रूरत है।
आर्थिक तंगी के चलते ग्रामीण आदिवासी महिलाएं इस समय पुराने कपड़े जैसे असुरक्षित उत्पाद इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हैं। वहीं अगर उन्हें किसी एनजीओ और अन्य संस्था द्वारा सुरक्षित पीरियड्स प्रोडक्ट मिलते भी हैं, तो शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण उसे गलत तरीके से घंटों इस्तेमाल करती हैं।
मेन्स्ट्रूऐशन जस्टिस और सरकारी नीतियों की भूमिका
साल 2011 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने ग्रामीण किशोरियों के लिए ‘पीरियड्स स्वच्छता योजना’ शुरू की थी, जिसके तहत ‘फ्रीडेज़’ नाम से सस्ते सैनिटरी नैपकिन 6 रुपये में दिए जाते हैं। साथ ही, किशोरी शक्ति योजना, सर्व शिक्षा अभियान, स्वच्छ विद्यालय अभियान, स्वच्छ भारत मिशन जैसी कई योजनाएं पीरियड्स स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर शुरू की गईं। हालांकि, इन योजनाओं के बावजूद शिक्षा और जागरूकता की कमी के चलते आज भी बड़ी संख्या में लोग इन सुविधाओं से वंचित हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार, पीरियड्स में हाइजीनिक तरीकों के उपयोग में काफी वृद्धि देखी गई है, जिसमें 15-24 वर्ष की 78 फीसद महिलाएं इनका उपयोग कर रही हैं, जबकि एनएफएचएस-4 (2015-16) में यह 58 फीसद थी। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि ये काफी नहीं और पीरियड्स से जुड़ी गहरी असमानता और नीतियों की पहुंच में कमी बनी हुई है।

मेंस्ट्रूएशन एजुकेटर और कार्यकर्ता राजसी कुलकर्णी महाराष्ट्र में पिछले दस वर्षों से पीरियड्स शिक्षा पर काम कर रही हैं। वे बताती हैं, “आज भी ट्रांसजेंडर पुरुषों और महिलाओं को पीरियड्स के दौरान सुरक्षित और साफ़ शौचालयों तक पहुंच नहीं मिलती। मुंबई और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में भी, मॉल जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर, सार्वजनिक शौचालय ट्रांसजेंडर लोगों के लिए सुरक्षित नहीं हैं। इससे उन्हें भेदभाव, उत्पीड़न और स्वास्थ्य से जुड़ी कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वहीं, पीरियड्स पावर्टी और जागरूकता के विषय में महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में पीरियड्स एजुकेटर के तौर पर काम कर रही पूजा मंदा शंकर बताती हैं, “आर्थिक तंगी के चलते ग्रामीण आदिवासी महिलाएं इस समय पुराने कपड़े जैसे असुरक्षित उत्पाद इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हैं। वहीं अगर उन्हें किसी एनजीओ और अन्य संस्था द्वारा सुरक्षित पीरियड्स प्रोडक्ट मिलते भी हैं, तो शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण उसे गलत तरीके से घंटों इस्तेमाल करती हैं। इससे उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर हो सकता है। सरकारी और अन्य निजी संस्थाओं को पीरियड प्रोडक्ट उपलब्ध कराने के साथ उसके इस्तेमाल को लेकर भी लोगों को शिक्षित और जागरूक बनाना चाहिए।”
आज भी ट्रांसजेंडर पुरुषों और महिलाओं को पीरियड्स के दौरान सुरक्षित और साफ़ शौचालयों तक पहुंच नहीं मिलती। मुंबई और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में भी, मॉल जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर, सार्वजनिक शौचालय ट्रांसजेंडर लोगों के लिए सुरक्षित नहीं हैं।
इस प्रकार जाति, वर्ग और जेंडर के आधारित पीरियड्स असमानता, भेदभाव और शोषण से यह साफ है कि आज भी लाखों लोग पीरियड्स में स्वच्छता उत्पादों और सुविधाओं तक पहुंच से दूर हैं। इन सभी के लिए सामाजिक-आर्थिक असमानता जैसे कारण जिम्मेदार हैं। सरकारी नीतियां और योजनाओं को भी मूल रूप से किसी वर्ग और जेंडर विशेष को ध्यान में रखकर बनाया गया है। पीरियड्स पावर्टी खत्म करने के लिए सरकार को समावेशी पीरियड्स स्वास्थ्य से जुड़ी नीतियां और योजनाएं लागू करनी होगी जिसमें सभी जाति, वर्ग और जेंडर के लोगों को अपने स्वस्थ और मानवाधिकार से जुड़े अधिकारों में किसी भी तरीके की असमानता और भेदभाव का सामना न करना पड़े।