शिक्षा समाज की नींव को निर्धारित करता है। विद्यालयों में पढ़ाए गए विषयों के आधार पर बच्चों की समझ विकसित होती है, जिसमें पर्यावरण अध्ययन शिक्षा का एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। पर्यावरण अध्ययन सामाजिक चेतना, सहभागिता, नैतिक जिम्मेदारी के विकास का माध्यम है। पाठ्यक्रम के विषय समाज और परिवेश से जुड़े होने के बावजूद स्त्री की सहभागिता, संघर्ष ज्ञान, नेतृत्व को अनदेखा करती है। शिक्षा समाज के उदाहरण स्वरूप ही काम करती है और अपनी समावेशिता और प्रासंगिकता को खो बैठती है। भारत जैसे देश जहां स्त्रियां, जल, जंगल और जमीन से अधिक जुड़ी होने के बावजूद पर्यावरण शिक्षा में उनका न दिखना एक चिंताजनक स्थिति का संकेत है। पर्यावरण शिक्षा भी पितृसत्ता के असर में एक ऐसा सच बनाती है, जो एकतरफा होता है। इसमें महिलाओं की भूमिका को या तो बहुत छोटा दिखाया जाता है, या फिर पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है।
पर्यावरण शिक्षा का मकसद यह है कि हम इंसान और प्रकृति के रिश्ते को अच्छे से समझें। लेकिन सवाल ये है कि इस शिक्षा में औरतों की नजर यानी स्त्री-दृष्टि को ठीक से क्यों नहीं शामिल किया जाता? क्यों स्कूल और कॉलेजों में जब पर्यावरण संघर्षों की बात होती है, तो उसमें यह नहीं बताया जाता कि औरतों पर इसका क्या असर होता है या उन्होंने कैसे इन संकटों से निपटा? क्यों औरतों का अनुभव, उनका नेतृत्व और उनकी पीढ़ियों से चली आ रही पारंपरिक समझ, किताबों में जगह नहीं पाती? इन सवालों के जवाब सिर्फ पाठ्यक्रम की बनावट में नहीं छिपे हैं, बल्कि हमारे समाज के उस पितृसत्तात्मक नजरिए में हैं जो पुरुषों को ज़्यादा महत्त्व देता है। जब तक समाज और शिक्षा दोनों में समानता और समावेश की सोच नहीं आएगी, तब तक महिलाएं सिर्फ पाठ्यक्रम ही नहीं, पूरे तंत्र में पीछे ही रहेंगी।
कक्षा 10 वीं की भूगोल की पुस्तक (Contemporary India II) में इसका उल्लेख केवल ‘स्थानीय लोगों’ से किया जाता है। गौरा देवी के नाम का जिक्र तक नहीं किया गया।
पाठ्यक्रम में महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और गरीब समुदायों के अनुभवों और नजरियों को नज़रअंदाज़ किया जाता है, तो यह शिक्षा अधूरी और एकतरफा बन जाती है। खासकर महिलाओं के काम पर्यावरण से सबसे ज़्यादा जुड़ी होती हैं। उनकी ज़िम्मेदारियों और ज्ञान को पाठ्यक्रमों और कक्षा की बातचीत में जगह ही नहीं मिलती। जिन आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका प्रमुख रूप से देखी जा सकती है उन्हें दबा कर कार्यकर्ता का नाम दे दिया जाता है। पर्यावरण शिक्षा भी समाज की उसी पितृसत्तात्मक सोच के अंदर काम कर रही है, जो महिलाओं को हाशिए पर रखती है।

भारत में पर्यावरण आंदोलनों का इतिहास केवल प्रकृति की रक्षा का नहीं, बल्कि उसमें शामिल समुदायों की चेतना, नेतृत्व और सहभागिता का भी इतिहास रहा है। इन आंदोलनों में महिलाओं ने अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर न केवल संघर्ष किया, बल्कि प्रकृति के साथ अपने रिश्ते की नई परिभाषाएं भी गढ़ीं। उनके लिए पर्यावरण कोई विषय नहीं, बल्कि जीविका, पहचान और पीढ़ियों से संचित अनुभवों का स्रोत है।
महिलाओं के योगदान की अनदेखी की गई
ग्रामीण, आदिवासी और हाशिये के समुदाय की महिलाएं उन आंदोलनों की रीढ़ बनीं, जिन्होंने पर्यावरणीय विनाश के विरुद्ध जनजागरण और प्रतिरोध का स्वर खड़ा किया। वे नारे लिखती रहीं, धरती से लिपटती रहीं, जल पर अधिकार की मांग करती रहीं। लेकिन पाठ्यपुस्तकों में उनका कोई नाम नहीं, कोई पहचान नहीं। यह अकादमिक चूक पितृसत्तात्मक सोच को दिखाता है जहां स्त्री को शिक्षा में भी गैरजरूरी बना दिया गया है। हैरानी है कि पाठ्यपुस्तकों में इन आंदोलनों का वर्णन तो है, पर उन स्त्रियों का नाम, ज्ञान और योगदान अनुपस्थित है जिन्होंने इन संघर्षों को आकार दिया। पाठ्यक्रम में दिए गए आंदोलन, जिनमें महिलाओं की भागीदारी को अदृश्य बना दिया है।
पाठ्यक्रम में महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और हाशिये के समुदायों के अनुभवों और नजरियों को नज़रअंदाज़ किया जाता है, तो यह शिक्षा अधूरी और एकतरफा बन जाती है। खासकर महिलाओं के काम पर्यावरण से सबसे ज़्यादा जुड़ी होती हैं।
चिपको आंदोलन की शुरुआत उत्तराखंड की पहाड़ियों में 1970 के दशक में हुई। यह आंदोलन वृक्षों की रक्षा के लिए लड़ा गया। गौरा देवी ने इस आंदोलन में नेतृत्व कर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं। लेकिन, उनका नाम किताबों में बहुत कम लिया जाता है और कई पुस्तकों में लिया ही नहीं जाता है। कक्षा 10वीं की भूगोल की पुस्तक (Contemporary India II) में इसका उल्लेख केवल ‘स्थानीय लोगों’ से किया जाता है। गौरा देवी के नाम का जिक्र तक नहीं किया गया। अप्पिको आंदोलन भी कर्नाटक में साल 1983 में शुरू हुआ। यह आंदोलन चिपको के तर्ज पर वनों की रक्षा के लिए लड़ा गया। इसमें भी महिलाओं की भूमिका को पाठ्यक्रम में दबा दिया गया।
महिला आंदोलनकारियों के नामों को किया गया दरकिनार

साइलेंट वैली आंदोलन सन् 1970 में शुरू हुआ था। यह आंदोलन केरल की साइलेंट वैली को बाँध परियोजना से बचाने के लिए शुरू हुआ। इस क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं ने भी इसके लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन कक्षा 6 की विज्ञान पुस्तक में केवल जैव विविधता के संरक्षण की वैज्ञानिक चर्चा मिलती है, सामाजिक भागीदारी में विशेषकर महिलाओं का ज़िक्र नहीं है। नर्मदा बचाओ आंदोलन विस्थापन, जल अधिकार और पर्यावरणीय विनाश के विरुद्ध यह आंदोलन 1980 के दशक से एक लंबे संघर्ष का प्रतीक है। मेधा पाटकर इस आंदोलन में प्रमुख भूमिका में काम करती है। जब हम किताबों की तरह आंदोलनों का उल्लेख देखते हैं तो ये नाम अदृश्य हो जाते हैं। कक्षा 10वीं के सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में लगे पाठ्यक्रम के अनुसार विकास और विस्थापन की बहस मिलती है, लेकिन महिलाओं के नामों को उल्लेखित नहीं किया जाता है।
अप्पिको आंदोलन भी कर्नाटक में साल 1983 में शुरू हुआ। यह आंदोलन चिपको के तर्ज पर वनों की रक्षा के लिए लड़ा गया। इसमें भी महिलाओं की भूमिका को पाठ्यक्रम में दबा दिया गया।
नवदान्य आंदोलन जैव विविधता, बीजों की संप्रभुता और टिकाऊ खेती के पक्ष में चलाया गया था। यह आंदोलन वंदना शिवा जैसे महिला विचारकों के नेतृत्व में विकसित हुआ। यह आंदोलन पर्यावरण और स्त्रीवाद के संगम का अद्भुत उदाहरण है। 10वीं कक्षा की विज्ञान की पुस्तक में बीजों की विविधता की बात तो है, पर आंदोलन के सामाजिक और लैंगिक पक्ष पर जोर नहीं दिया गया है। पर्यावरण आंदोलनों और शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी को हाशिए पर रखे जाने की प्रवृत्ति इको-फेमिनिज़म की अवधारणाओं से सीधे जुड़ती है, जो यह दिखाती है कि पितृसत्तात्मक सोच न केवल स्त्रियों को बल्कि प्रकृति को भी शोषण और नियंत्रण के उपकरणों के रूप में देखती है।
महिलाओं के नेतृत्व को जानबूझकर किया जाता है अदृश्य

इको-फेमिनिज़म यह तर्क देता है कि स्त्री और प्रकृति दोनों के साथ होने वाला अन्याय एक साझा जड़ पितृसत्ता से उपजता है। जब पर्यावरण शिक्षा में चिपको, अप्पिको, साइलेंट वैली, नर्मदा बचाओ और नवदान्य जैसे आंदोलनों का उल्लेख किया जाता है, लेकिन गौरा देवी, मेधा पाटकर या वंदना शिवा जैसी महिलाओं का नाम नहीं लिया जाता, तब यह न केवल एक अकादमिक चूक होती है, बल्कि स्त्री के ज्ञान, नेतृत्व और संवेदनशीलता को जानबूझकर अदृश्य बनाया जा रहा है। भारत जैसे देश में, जहां महिलाएं जल, जंगल और जमीन से गहरे जुड़ी हुई हैं, उनके अनुभवों, संघर्षों और दृष्टिकोणों को पाठ्यक्रम में जगह न देना शिक्षा की पितृसत्तात्मक संरचना को उजागर करता है। पर्यावरण शिक्षा का उद्देश्य जब समग्रता में मनुष्य और प्रकृति के संबंध को समझना है, तब उसमें स्त्री की उपस्थिति, अनुभव और चेतना को शामिल किए बिना वह उद्देश्य अधूरा रह जाता है।
इन आंदोलनों और शिक्षा के ढांचे को इको-फेमिनिस्ट दृष्टिकोण से देखना भी जरूरी हो जाता है, ताकि एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का निर्माण हो जो समावेशी, न्यायपूर्ण और संवेदनशील हो, न कि एकतरफा, निष्पक्षता से परे और स्त्री-विरोधी।
इन आंदोलनों और शिक्षा के ढांचे को इको-फेमिनिस्ट दृष्टिकोण से देखना भी जरूरी हो जाता है, ताकि एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का निर्माण हो जो समावेशी, न्यायपूर्ण और संवेदनशील हो, न कि एकतरफा, निष्पक्षता से परे और स्त्री-विरोधी। पर्यावरण शिक्षा में नारीवादी दृष्टिकोण की अनुपस्थिति की पड़ताल करना और यह दिखाना कि कैसे यह अनुपस्थिति एक बड़ी सामाजिक चुप्पी का हिस्सा है। यह विश्लेषण स्कूली पाठ्यपुस्तकों में उन खाली स्थानों की ओर इशारा करता है, जहां स्त्रियों के आंदोलनों की गाथा होनी चाहिए थीं , वहीं उनकी अनुपस्थिति, भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी इस विस्मृति को सामान्य बना देती है। शिक्षा का रास्ता सभी का हो, सबको समेटने वाला हो और सभी के लिए समावेशी रूप से काम करे।

