आर्थिक हिंसा घरेलू हिंसा का एक छिपा हुआ लेकिन बेहद गंभीर रूप है, जिसे अक्सर हमारे समाज में नजरअंदाज कर दिया जाता है। आर्थिक हिंसा वह स्थिति है जब किसी महिला को आर्थिक संसाधनों तक पहुंच से वंचित कर दिया जाता है। उसे काम करने से रोका जाता है या उसके काम और खर्च पर नियंत्रण किया जाता है, आर्थिक हिंसा केवल धन की पहुंच सीमित होना नहीं है, बल्कि इसमें महिला की आर्थिक आज़ादी, आत्मनिर्भर होने की क्षमता, निर्णय लेने की क्षमता और जीविका के साधनों पर नियंत्रण करना शामिल होता है। शारीरिक हिंसा के मुकाबले आर्थिक हिंसा अक्सर नजरअंदाज़ कर दी जाती है। आर्थिक हिंसा हर एक इंसान के साथ हो सकती है, लेकिन खासकर ये हिंसा उन महिलाओं को ज्यादा प्रभावित करती है जिनकी शादी हो चुकी होती है क्योंकि शादी के बाद बहुत सी महिलाएं आर्थिक रूप से पति पर निर्भर होती हैं ।
हाशिए पर मौजूद और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की महिलाओं के लिए यह स्थिति और भी मुश्किल हो जाती है, क्योंकि उनके पास न तो पैसे होते हैं और न ही कोई ऐसा सहारा होता है जिसके बल पर वो ऐसी हिंसा का विरोध कर सकें, परिणामस्वरूप वो इस हिंसा की दलदल में और ज़्यादा फंस जाती हैं। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के मुताबिक आर्थिक हिंसा कई अलग-अलग रूपों में सामने आती है, जो महिलाओं की आर्थिक आज़ादी और आत्मनिर्भरता को सीधे तौर पर प्रभावित करती है। सबसे आम तरीका होता है महिला को बुनियादी खर्चों के लिए पैसे न देना। कई बार पति या साथी महिला की बचत, संपत्ति या अन्य आर्थिक संसाधनों पर पूरी तरह से नियंत्रण रखते हैं, जिससे महिला पूरी तरह उन पर निर्भर हो जाती है। वहीं कई पुरुष महिलाओं को नौकरी करने से भी रोकते हैं, ताकि वो पूरी तरह उन पर ही निर्भर रहें ।
आर्थिक हिंसा घरेलू हिंसा का एक छिपा हुआ लेकिन बेहद गंभीर रूप है, जिसे अक्सर हमारे समाज में नजरअंदाज कर दिया जाता है। आर्थिक हिंसा वह स्थिति है जब किसी महिला को आर्थिक संसाधनों तक पहुंच से वंचित कर दिया जाता है।
घर की चारदीवारी में छिपी आर्थिक हिंसा

आर्थिक हिंसा अक्सर घर की चारदीवारी में चुपचाप घटित होती है। जहां इसे सामान्य पारिवारिक नियम या परंपरा मानकर ध्यान नहीं दिया जाता है। खाना पकाना, बच्चों की देखभाल करना, घर की सफाई करने से लेकर बुजुर्गों की सेवा करने की सारी जिम्मेदारी महिला के कंधे पर आती है और इसके लिए कोई वेतन भी नहीं मिलता। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, भारतीय महिलाएं पुरुषों की तुलना में 10 गुना ज़्यादा काम करती हैं महिलाएं अवैतनिक घरेलू कामों में 301 मिनट खर्च करती हैं, जबकि पुरुष इसी कार्य में केबल 98 मिनट खर्च करते हैं।
भारत सरकार के राष्ट्रीय सांख्यिकी सर्वेक्षण कार्यालय के वर्ष 2019 में बताए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 15 से 60 वर्ष की महिलाएं और लड़कियां हर दिन लगभग 7.2 घंटे घरेलू काम करती हैं। घर के अलावा महिलाएं खेतों में भी सारा काम करती हैं लेकिन उन्हें पैतृक संपत्ति में से हिस्सा नहीं दिया जाता। डेक्कन हेराल्ड में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं के पास दुनिया की 20 प्रतिशत से भी कम भूमि का स्वामित्व है। लगभग 43 प्रतिशत महिलाएं कृषि श्रम बल में हैं, फिर भी, 161 देशों में से केवल 37 देशों में ही भूमि के स्वामित्व का अधिकार देने वाले कानून हैं।
भारत सरकार के राष्ट्रीय सांख्यिकी सर्वेक्षण कार्यालय के वर्ष 2019 में बताए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 15 से 60 वर्ष की महिलाएं और लड़कियां हर दिन लगभग 7.2 घंटे घरेलू काम करती हैं।
ग्रामीण बनाम शहरी संदर्भ में आर्थिक हिंसा के अनुभव

आर्थिक हिंसा देश के हर कोने में मौजूद है चाहे वो गांव हो या शहर। लेकिन शहर और गांव के माहौल में इसका अनुभव अलग-अलग हो सकता है। ये अक्सर संसाधनों की उपलब्धता, पितृसत्तात्मक ढांचे की गहराई, शिक्षा के स्तर और महिलाओं की आर्थिक पहुंच पर निर्भर करती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर महिलाएं घर के कामों में लगी रहती हैं। लेकिन उनके किए गए काम और कमाई पर पूरा नियंत्रण पति या ससुराल वालों का होता है। कई बार महिलाओं के पास खुद का बैंक खाता भी नहीं होता, और अगर होता भी है, तो उसे भी पुरुष ही चलाते हैं। एनएफएचएस 5 के अनुसार, लगभग 44 फीसद महिलाओं ने बताया कि उनके पास अपना बैंक बचत खाता है, लेकिन उसमें जमा राशि पर उनका नियंत्रण नहीं है। द प्रिंट के मुताबिक भारत में पुरुष खातों की संख्या साल 2021 के 2.65 करोड़ से बढ़कर साल 2024 में 11.53 करोड़ हो गई, जबकि इसी अवधि के दौरान महिला खातों की संख्या 66.7 लाख से बढ़कर 2.77 करोड़ हो गई है। बेशक महिलाओं के खातों में बृद्धि हुयी है लेकिन अभी भी बहुत ज़्यादा अंतर दिखायी देता है।
साल 2019 – 21 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार, केवल 14 फीसद ग्रामीण महिलाएं ही अपनी कमाई पर पूर्ण नियंत्रण रखती हैं। जबकि शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 22 फीसद है। शहरों में महिलाएं भले ही कामकाजी हों, लेकिन उन्हें आर्थिक फैसलों में आज़ादी नहीं मिलती। शादी और गर्भावस्था के बाद काम छोड़ कर बच्चे की परवरिश और घर के काम को प्राथमिकता देने की सलाह दी जाती है। घरेलू कामकाज में लगी महिला अस्थिर रोजगार, कम वेतन और सामाजिक भेदभाव का सामना करती हैं। वहीं, शहरी झुग्गियों में रहने वाली महिलाएं सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं तक उचित पहुंच से वंचित रहती हैं।
एनएफएचएस 5 के अनुसार, लगभग 44 फीसद महिलाओं ने बताया कि उनके पास अपना बैंक बचत खाता है, लेकिन उसमें जमा राशि पर उनका नियंत्रण नहीं है।
विवाहित महिलाओं के जीवन में आर्थिक हिंसा की जमीनी हकीकत

हमारे देश में जहां पितृसत्ता और आर्थिक निर्भरता आपस में गहराई से जुड़ी हैं, वहां यह हिंसा पीढ़ी दर पीढ़ी संरचनात्मक रूप से चली आ रही है। ख़ास तौर से विवाहित महिलाओं के जीवन में आर्थिक नियंत्रण के अनेक रूप देखने को मिलते हैं, जो उनकी आत्मनिर्भरता की राह में बड़ी बाधा बनते हैं। इस विषय पर बात करने पर बिहार की रहने वाली शोभा देवी नाम बदल दिया गया है जो पेशे से शिक्षिका हैं। बताती हैं कि, “मैं पिछले दस -बारह साल से नौकरी कर रही हूं। लेकिन मैंने कभी भी अपनी सैलरी नहीं उठाई। मेरे बैंक खाते की देखरेख से लेकर कमाई तक सब मेरे पति के पास होता है। मुझे खर्च के लिए एक सीमित राशि मिलती है।” शोभा बताती हैं कि, “मेरे पति पैसे को अपने पास रखते हैं, लेकिन खर्च कहां करते हैं मुझे नहीं पता।” एनएफएचएस 5 के अनुसार, 15 से 49 वर्ष की आयु की 49फीसदी महिलाओं के पास यह निर्णय लेने की शक्ति नहीं है कि उन्हें अपना पैसा कैसे खर्च करना है। घर के आवश्यक खर्चों के लिए भी उन्हें हर बार अनुमति लेनी पड़ती है।
इस विषय पर बात करने पर खुशबू परवीन जो एक कामगार महिला मजदूर हैं वो बताती हैं कि, “मेरी शादी कम उम्र में ही हो गई थी और मेरे पति बहुत शराब पीते थे। वो मुझे घर खर्च के पैसे भी नहीं देते थे और मांगने पर मुझे मारते थे। हिंसा से तंग आकर जब मैंने घरेलू कामगार बनने का काम चुना तो मुझे लगा था कि अब हालात कुछ सुधर जाएंगे । लेकिन जब उधर से मुझे पैसे मिलते हैं तो मेरे पति मेरी अनुपस्थिति में या तो चुरा लेते हैं, या ज़ोर ज़बरदस्ती कर मुझ से ले लेते है।”अमीना खातून (बदला हुआ नाम) एक गृहणी हैं। वो बताती हैं कि, अपने पति से पैसे मांगने पर मुझे ज़रूरत से कम पैसे दिए जाते हैं। मेरे पास जो जमा स्त्री धन था वो मेरे पति और ससुराल वाले मज़बूरी और तंगी के नाम पर मुझसे ले चुके हैं, ये एक प्रकार की आर्थिक हिंसा है। ये जान के वो कहती हैं कि हमे तो बचपन से घर के पुरुषों पर आश्रित रहना और उनकी हर बात सर झुका कर सहना सिखाया गया है। वो कहती हैं, हालांकि ये बाते हमें बुरी लगती है पर हमारे घर समाज में सदियों से यही परंपरा चली आ रही है तो हमने भी इसे ही सही मान लिया है।
मैं पिछले दस -बारह साल से नौकरी कर रही हूं। लेकिन मैंने कभी भी अपनी सैलरी नहीं उठाई। मेरे बैंक खाते की देखरेख से लेकर कमाई तक सब मेरे पति के पास होता है। मुझे खर्च के लिए एक सीमित राशि मिलती है।
आर्थिक हिंसा के कारण स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियां

आर्थिक हिंसा का प्रभाव केवल मानसिक और भावनात्मक स्तर तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह महिला के शारीरिक और प्रजनन स्वास्थ्य को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है। आर्थिक निर्भरता और फैसलों में भागीदारी न होने के कारण महिलाएं तनाव, चिंता और अवसाद से जूझती हैं।उन्हें अक्सर अपनी जरूरतों को दबाना पड़ता है, जिससे निराशा की भावना पनपती है। लंबे समय तक ऐसा माहौल पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर या निराशात्मक सोच का कारण बन सकता है।
बीएमसी पब्लिक हेल्थ के मुताबिक इसे अंतरंग साथी हिंसा का ही एक गंभीर आयाम माना है, जो महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने से रोकता है।
आर्थिक हिंसा का गंभीर असर शारीरिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। इसके कारण महिलाओं को नियमित पोषण नहीं मिलता है। जिस वजह से उन्हें कुपोषण का सामना करना पड़ता हैं। द वायर के मुताबिक 53 फीसदी महिलाएं एनीमिया से जूझ रही हैं। आर्थिक निर्भरता और इससे जुड़े हिंसा का प्रभाव को गंभीर रूप से देखा जा सकता है। जब गर्भवती महिलाएं आर्थिक रूप से वंचित रहती हैं । उन्हें प्रसवपूर्व जांच, प्रग्नेंसी के दौरान नियमित अल्ट्रासाउंड की सुविधा और ज़रूरी पोषण नहीं मिलता है। जिससे उनमें अबॉर्शन, बच्चे का कम जन्म वजन और प्रसव-सम्बंधित समस्याएं कई गुना बढ़ जाती हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुताबिक अस्पताल पहुंचने में देरी के कारण भारत के ग्रामीण इलाकों में लगभग 34फीसद गर्भवती महिलाओं की मौत हो जाती हैं।
मेरे पति बहुत शराब पीते थे। वो मुझे घर खर्च के पैसे भी नहीं देते थे और मांगने पर मुझे मारते थे। हिंसा से तंग आकर जब मैंने घरेलू कामगार बनने का काम चुना तो मुझे लगा था कि अब हालात कुछ सुधर जाएंगे । लेकिन जब उधर से मुझे पैसे मिलते हैं तो मेरे पति मेरी अनुपस्थिति में या तो चुरा लेते हैं, या ज़ोर ज़बरदस्ती कर मुझ से ले लेते है।
आर्थिक आजादी और हिंसा से मुक्ति के रास्ते

आर्थिक हिंसा से मुक्ति किसी एक महिला की नहीं, बल्कि पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है। इसके लिए शिक्षा और वित्तीय साक्षरता को मज़बूत किया जाना आवश्यक है। लड़कियों को स्कूल स्तर पर बैंकिंग, बीमा, बचत और सरकारी योजनाओं की जानकारी दी जानी चाहिए ताकि उनके इसके बारे में पता चल सके। कौशल विकास कार्यक्रमों के माध्यम से महिलाओं को रोज़गार के ज़्यदा से ज़्यादा अवसर दिए जाने चाहिए क्योंकि भारत में अभी भी बड़ी संख्या में महिलाएं अपने बैंक खातों को स्वतंत्र रूप से संचालित नहीं कर पाती हैं, जो उनकी आर्थिक निर्भरता को दिखता है। महिलाओं के नाम पर बैंक खाता और संपत्ति का अधिकार ,केवल कागज़ पर ना रहे, इसके लिए निगरानी हो और जवाबदेही ज़रूरी जानी चाहिए।
साथ ही कार्यस्थल पर समान वेतन, मातृत्व अवकाश और सुरक्षित वातावरण हर महिला का अधिकार है, खासकर असंगठित क्षेत्र की कामकाजी महिलाओं के लिए ये अधिकर लागू किया जाना चाहिए। आर्थिक हिंसा महिलाओं की आज़ादी और आत्मनिर्भरता को छीन लेती है। जब उन्हें अपनी कमाई, खर्च या फैसलों पर अधिकार नहीं मिलता, तो ये हिंसा बन जाती है। यह शहर और गांव दोनों में होती है और महिलाओं के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचाती है।इससे बचने के लिए जरूरी है कि महिलाओं को शिक्षा, नौकरी और संपत्ति पर बराबरी का हक मिले। जब महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त होंगी, तभी वे सम्मान और सुरक्षित जीवन जी सकेंगी।

