जब ऐसा महसूस होने लगा कि बॉलीवुड में सच्ची, भावनात्मक और परिपक्व रोमांटिक कहानियों की कमी हो गई है, तभी अनुराग बासु और प्रीतम ने 18 साल बाद ‘लाइफ़ इन ए मेट्रो’ के सीक्वल के ज़रिए बड़े पर्दे पर वापसी की है। फ़िल्म एक बार फिर रिश्तों, उलझनों और शहर की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में प्रेम की तलाश की कहानी कहती है। एक ओर अनुराग बासु अपनी लेखनी और निर्देशन से अलग-अलग किरदारों के अनुभवों और भावनाओं की जटिलता को परदे पर उकेरते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रीतम और उनका बैंड इन भावनाओं को संगीत के ज़रिए और गहराई देते हैं। बॉलीवुड में हाल के वर्षों में जिस तरह की प्रेम कहानियां पेश की जा रही हैं, उनमें अक्सर न भावनाओं की गहराई होती है, न किरदारों की ईमानदारी।
ऐसे में बासु की यह फ़िल्म एक राहत की तरह आती है, जहां इंटिमेसी, संवेदनशीलता और कहानी कहने का सलीका मौजूद है। ऐसा लगता है जैसे यह फ़िल्म उस दौर की वापसी है, जब प्रेम कहानियां सच्चाई और समझदारी से लिखी जाती थीं। यह फ़िल्म भी साल 2007 में आई ‘लाइफ़ इन ए मेट्रो’ की तरह ही अलग-अलग आयु वर्ग के किरदारों के ज़रिए ज़िंदगी के अनुभवों को सामने लाती है। कई बार ऐसा महसूस होता है कि कुछ किरदार, सीन और संवाद पहली फ़िल्म से सीधे उठाए गए हैं। लेकिन, इसका एक वाजिब कारण भी है पहली फ़िल्म एक ‘कल्ट क्लासिक’ बन गई थी। बासु जानते हैं कि दर्शकों के ज़हन में उस फ़िल्म की यादें अब भी ताज़ा हैं।

शायद इसीलिए वे नए किरदारों के साथ कुछ पुराने चेहरों, डायलॉग्स और सीन को फिर से सामने लाकर दर्शकों में वही नॉस्टेलजिया जगाना चाहते हैं। इस बार भी वह कामयाब दिखते हैं। ‘लाइफ़ इन ए मेट्रो 2’ उस दौर की याद दिलाती है जब प्रेम कहानियां सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि अनुभव हुआ करती थीं। बासु की कहानी कहने की शैली, प्रीतम का संगीत और किरदारों का भावनात्मक संसार, ये सब मिलकर इस फ़िल्म को एक बार फिर एक खास अनुभव बना देते हैं।
फ़िल्म एक बार फिर रिश्तों, उलझनों और शहर की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी में प्रेम की तलाश की कहानी कहती है। एक ओर अनुराग बासु अपनी लेखनी और निर्देशन से अलग-अलग किरदारों के अनुभवों और भावनाओं की जटिलता को परदे पर उकेरते हैं।
फिल्म की कहानी
‘लाइफ़ इन ए मेट्रो 2’ भी पहले पार्ट की तरह एंथोलॉजी फ़ॉर्मेट में है, जिसमें चार अलग-अलग जोड़ों की कहानी है। ये किरदार मेट्रो शहरों से हैं, जो उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर प्यार, रिश्तों और बेहतर ज़िंदगी की तलाश में हैं। कोई शादी के उस मोड़ पर है जहां प्यार फीका पड़ चुका है, तो कोई रिश्तों से ऊबा हुआ है और बाहर सुकून ढूंढ रहा है। कुछ कमिटमेंट से डरते हैं, कुछ अपने फ़ैसलों से नाख़ुश हैं, लेकिन आगे बढ़ना जानते हैं। फिल्म रिश्तों की जटिलताओं को बहुत संवेदनशीलता और सहजता से छूती है। अनुराग बासु ने आधुनिक रिश्तों, मिड-लाइफ़ क्राइसिस, बेवफ़ाई, कमिटमेंट के डर और महिलाओं की एजेंसी जैसे पहलुओं को ईमानदारी से दिखाया है। हालांकि, प्यार को दूसरा मौक़ा देने की कोशिश में फिल्म कई जगह चीटिंग को रोमांटिसाइज़ करती नज़र आती है।

फ़िल्म की कहानियां हर उम्र के दर्शकों से जुड़ती हैं। चाहे वो शिबानी (नीना गुप्ता) और परिमल (अनुपम खेर) की शादीशुदा ज़िंदगी हो या काजोल (कोंकणा सेन शर्मा) और मोंटी (पंकज त्रिपाठी) की अकेलेपन से भरी कहानी, हर किरदार में लोग खुद को देख सकते हैं। शिबानी 40 साल से एक ऐसे रिश्ते में हैं, जहां उनकी मौजूदगी सबके लिए ज़रूरी तो है, लेकिन किसी को महसूस नहीं होती। वह एक ऐसी महिला की छवि हैं जो घर-परिवार और बच्चों के लिए खुद को भुला देती हैं। लेकिन, 60 की उम्र पार करने के बाद जब वो अपने लिए जीने का फैसला करती हैं, तो यह हर उस महिला की आवाज़ बन जाती है जो लवलेस शादी में फंसी हुई है। उनके इस सफ़र को फ़िल्म ने सादगी और गहराई से पेश किया है।
‘लाइफ़ इन ए मेट्रो 2’ भी पहले पार्ट की तरह एंथोलॉजी फ़ॉर्मेट में है, जिसमें चार अलग-अलग जोड़ों की कहानी है। ये किरदार मेट्रो शहरों से हैं, जो उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर प्यार, रिश्तों और बेहतर ज़िंदगी की तलाश में हैं।
परिमल अपने दुखों से उबरने की कोशिश में अकेली, उदास ज़िंदगी जी रहा है। उसकी बहू भी दुखी है, लेकिन दोनों एक-दूसरे के सामने मुस्कान का दिखावा करते हैं। शिबानी-संजीव और काजोल-मोंटी जैसे जोड़े बाहर से खुश दिखते हैं, पर भीतर से उनके रिश्ते बेजान हो चुके हैं। काजोल की छोटी बहन चुमकी इन दिखावों को देखकर प्यार और शादी को लेकर उम्मीदें पालती है। सोशल मीडिया इन झूठी खुशियों को और चमका देता है। काजोल खुद कहती हैं, “जब लाइफ़ की हो जाती है बत्ती गुल, पोस्ट्स मेरे सोशल मीडिया में हो जाती उतनी ही कलरफुल।” शादी और बच्चे के बाद काजोल और मोंटी के रिश्ते में न रोमांस बचा है, न उत्साह।

श्रुति और आकाश एक आज़ादी पसंद जोड़ा है जिन्हें एक-दूसरे के बहुत ज्यादा प्यार था। लेकिन, शादी के बाद ज़िम्मेदारियों और सामाजिक ढांचे में खुद को ढालने की कोशिश में श्रुति अपना करियर और आकाश अपना पैशन पीछे छोड़ देते हैं। बच्चा होने के बाद आकाश ज़िम्मेदारी से कतराता है, लेकिन श्रुति उसे उसके सपने पूरे करने के लिए सपोर्ट करती है। दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हैं, पर निजी उलझनों के चलते रिश्ता जटिल होता जाता है।
चुमकी और पार्थ दो विपरीत सोच वाले अनजाने लोग हैं। चुमकी हमेशा एक ‘परफ़ेक्ट’ शादी का सपना देखती है, जैसा उसने अपनी मां और बहन के जीवन में देखा। लेकिन वह खुद उलझन में रहती है, यहां तक कि ऑफ़िस के एक ‘सेटल्ड’ लड़के से शादी को लेकर भी। वहीं पार्थ एक बिंदास और आज़ाद ख्यालों वाला लड़का है जिसे स्थायित्व से डर है। दोनों की मुलाकात होती है और कब उनकी कहानियां एक हो जाती हैं, चुमकी को पता भी नहीं चलता।
परिमल अपने दुखों से उबरने की कोशिश में अकेली, उदास ज़िंदगी जी रहा है। उसकी बहू भी दुखी है, लेकिन दोनों एक-दूसरे के सामने मुस्कान का दिखावा करते हैं। शिबानी-संजीव और काजोल-मोंटी जैसे जोड़े बाहर से खुश दिखते हैं, पर भीतर से उनके रिश्ते बेजान हो चुके हैं।
कहानियों की खूबसूरती और असमानताएं
अनुराग बासु ने सभी कहानियों को खूबसूरती से जोड़ा है। उनका निर्देशन हर किरदार को बराबरी से उभारता है। फ़िल्म की महिला किरदारें सामाजिक ढांचे में बंधी होने के बावजूद अपनी शर्तों पर जीने, गलतियां करने और फैसले लेने के लिए आज़ाद हैं। अपनी मां और बहन के रिश्तों की सच्चाई देखने के बाद चुमकी का ‘परफ़ेक्ट शादी और परफ़ेक्ट ज़िंदगी’ का भ्रम टूटता है और वह दिमाग़ की बजाय दिल की सुनना शुरू करती है। श्रुति भी दूसरों की अपेक्षाओं को छोड़ अपने शर्तों पर जीने की कोशिश करती है और अपनी मर्ज़ी से की गई ग़लतियों की ज़िम्मेदारी ख़ुद उठाती है। झुनुक (दर्शना बानिक) अपने मृत पति के पिता के लिए अपना जीवन रोक देती है और परिमल की कोशिशों के बाद ही अपने प्रेमी के साथ जाती है। फिल्म में उसे “अच्छी औरत” की मिसाल के रूप में दिखाया गया है, जो प्यार में होने के बावजूद चीटिंग जैसी ‘गलती’ नहीं कर सकती। ये छवि पारंपरिक औरत की भूमिका को और मजबूत करती है। वहीं, मर्दों की बेवफ़ाई को फिल्म में कई तर्कों से जायज़ ठहराया गया है।
किरदारों की अदाकारी और गाने

कोंकणा सेन शर्मा ने शानदार अभिनय किया है। अहाना बासु ने पीहू की उलझन और बेचैनी को बख़ूबी पेश किया है। आदित्य रॉय कपूर भी अपने किरदार में जंचते हैं। सारा अली ख़ान का विग लुक नकली लगता है, और इसमें सुधार की गुंजाइश थी। अली फ़ज़ल से थोड़ा निराशा होती है। उनके किरदार का गुस्सा और भावनाएं उतनी प्रभावशाली नहीं लगती। पंकज त्रिपाठी एक बार फिर उसी तरह के रोल में नज़र आते हैं, बिना किसी नयापन के। फ़िल्म के गाने कहानी का अहम हिस्सा हैं। अकेले सुनने पर उतना असर न हो, लेकिन कहानी के साथ इनका असर गहरा होता है। शुरुआत से ही फ़िल्म गानों के ज़रिए दर्शकों से सीधा संवाद करती है। हालांकि कभी-कभी लिप सिंक या वोकल मैचिंग में गड़बड़ी दिखती है, लेकिन ये बातें ज़्यादा खलती नहीं।
अनुराग बासु की फ़िल्म और प्रीतम एंड बैंड का संगीत—ये कॉम्बिनेशन ही काफ़ी है जानने के लिए कि फ़िल्म में कुछ खास होगा। अरिजीत और पापोन की आवाज़ में ‘ज़माना लगे’ और ‘और मोहब्बत कितनी करूं’ जैसे गाने असर छोड़ते हैं। साथ ही मोमिन, जाफ़री और ग़ालिब की ग़ज़लों की पंक्तियों का सुंदर इस्तेमाल लिरिक्स में हुआ है। हालांकि, 2007 की ‘लाइफ़ इन ए मेट्रो’ के गानों जैसी गहराई और स्थायित्व इस बार कुछ कम महसूस होती है। फ़िल्म थोड़ी लंबी ज़रूर है, लेकिन दिलचस्प बनी रहती है। बस, सेकेंड हाफ़ में चीज़ें जल्दी-जल्दी निपटाई जाती हैं और कई पहलू अधूरे रह जाते हैं, जिससे ‘सब ठीक है’ वाला एहसास थोपा हुआ लगता है।

