संस्कृतिकिताबें ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’: सुजाता की स्त्रीवादी आलोचना की पड़ताल

‘आलोचना का स्त्री पक्ष’: सुजाता की स्त्रीवादी आलोचना की पड़ताल

सुजाता की पुस्तक 'आलोचना का स्त्री पक्ष'  तीन खंडों में विभाजित है। पद्धति, परंपरा और पाठ। पहले खंड में लेखिका स्त्रीवादी आलोचना की मूल पद्धति पर चर्चा करती हैं, जिसमें स्त्रीवाद की अवधारणाएं, स्त्रीवाद और आलोचना से संबंध और स्त्रीवादी इतिहास जैसे विषय के बारे में बात की गई है।

हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श पर केंद्रित आलोचना ने एक नई वैचारिक संवेदना को सामने रखा है, जो स्त्री अनुभवों को अभिव्यक्त करने के साथ ही साहित्य ,परंपरा, सामाजिक संरचना पर भी प्रश्न उठाती है। आलोचना के क्षेत्र में साल 2021 में प्रकाशित सुजाता की यह पुस्तक ‘आलोचना का स्त्री पक्ष पद्धति, परंपरा और पाठ’ इसी वैचारिक प्रयास का हिस्सा है जिसमें स्त्री लेखन, लैंगिक असमानता,भाषा और आत्मस्वर जैसे विषयों को केंद्र में रखा गया है। स्त्री के अनुभवों, दमन और स्त्री प्रतिनिधित्व के साथ ही समाज में परिवर्तन मुख्य विषय के रूप में पुस्तक में रेखांकित किया गया है।

इस आलोचना के माध्यम से वह पुरुष केंद्रित समाज की यानी पितृसत्तात्मक समाज की आलोचना करते हुए साहित्य में महिलाओं की और उनके व्यक्तिव को पुरुष केंद्रित दृष्टिकोण से ही दिखाया है। उनका मुख्य उद्देश्य पारंपरिक ढांचे को तोड़ना है। स्त्री के महत्व को समाज में स्थापित करना मुख्य उद्देश्य है। सुजाता का नारीवादी आलोचना केवल महिलाओं के मौन को पहचानने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन्हें आवाज़ देने और सक्रिय रूप से साहित्यिक विमर्श में भागीदार बनाने के लिए है।

सुजाता की पुस्तक ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’  तीन खंडों में विभाजित है। पद्धति, परंपरा और पाठ। पहले खंड में लेखिका स्त्रीवादी आलोचना की मूल पद्धति पर चर्चा करती हैं, जिसमें स्त्रीवाद की अवधारणाएं, स्त्रीवाद और आलोचना से संबंध और स्त्रीवादी इतिहास जैसे विषय के बारे में बात की गई है।

सुजाता की पुस्तक ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’  तीन खंडों में विभाजित है। पद्धति, परंपरा और पाठ। पहले खंड में लेखिका स्त्रीवादी आलोचना की मूल पद्धति पर चर्चा करती हैं, जिसमें स्त्रीवाद की अवधारणाएं, स्त्रीवाद और आलोचना से संबंध और स्त्रीवादी इतिहास जैसे विषय के बारे में बात की गई है। पुस्तक का दूसरा खंड ‘परंपरा’ इस बात की गहराई से पड़ताल करता है कि साहित्य की ऐतिहासिक परंपरा में स्त्रियों की क्या स्थिति रही है। पुस्तक का तीसरा खंड ‘पाठ’ सबसे व्यावहारिक और आलोचनात्मक रूप से गहरा हिस्सा है। इसमें लेखिका स्त्रीवादी पाठन की प्रक्रिया को व्यवहार में लाकर दिखाती हैं। वह आधुनिक हिंदी कविता की कुछ प्रमुख स्त्री कवयित्रियों की कविताओं का स्त्रीवादी विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं—जिनमें अनामिका, सविता सिंह, निर्मला पुतुल, कात्यायनी जैसे नाम शामिल हैं। इन कविताओं में ‘घर’, ‘देह’, ‘प्रकृति’, ‘मौन’, ‘दैनिक जीवन की साधारणता’ और ‘विद्रोह’ जैसे विषय उभरते हैं।

महिला और पुरुष में क्या अंतर सिर्फ जैविक नहीं है 

सुजाता अपनी पुस्तक के खंड: एक, पद्धति में कहती हैं कि ‘लैंगिक भेदभाव का सबसे मजबूत तर्क है स्त्री-पुरुष का जैविक अन्तर। लेकिन स्त्री गर्भ से खाना नहीं बनाती और बर्तन मांजने से पुरुष स्त्री नहीं बन जाता। रहन-सहन और तौर-तरीके हमें हमारा जेंडर सिखाता है, सेक्स नहीं।’ पुरुष और स्त्रियों में भेदभाव स्वाभाविक है क्योंकि उनके शरीर (जैविक संरचना ) अलग हैं। इसे ही लैंगिक भेदभाव को सही ठहराने के लिए सबसे ताक़तवर तर्क माना जाता है। रसोई में काम करने या खाना बनाने के लिए पैदा नहीं होती हैं। ये कोई जन्मजात गुण नहीं है।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

इसी तरह, अगर कोई पुरुष खाना बना ले या बर्तन माँज ले, तो वो ‘स्त्री’ नहीं बन जाता। यानी घरेलू कामकाज या कोई व्यवहार लिंग (जेंडर) का निर्धारण नहीं होता है। हमारा सेक्स (जैविक लिंग – पुरुष या स्त्री होना) हमें यह नहीं सिखाता कि कैसे रहना है, क्या पहनना है, कौन-सा काम करना है। जेंडर यानी समाज द्वारा बनाए गए नियम और भूमिका ,हमें यह सिखाते हैं कि ‘लड़का’ या ‘लड़की’ कैसे रहेंगे। ये समाज और संस्कृति तय करती है, न कि हमारा शरीर।

जब दलित या आदिवासी विमर्श होता है, तो उसकी ‘स्त्री’ पहचान गौण हो जाती है। यह दोहरी उपेक्षा उस स्त्री को एक ऐसी जगह पर खड़ा करती है, जहां वह न तो पूरी तरह स्त्री विमर्श में डूबी समाहित होती है और न ही दलित या आदिवासी विमर्श में।

हमारा समाज ‘जेंडर्ड’ यानी लिंग आधारित है। हम पितृसत्तात्मक समाज में रहते हैं, जहां पुरुषों को केंद्र में रखा जाता है और स्त्रियों को अक्सर हाशिये पर। स्त्री और पुरुषों के लेखन में अन्तर को अक्सर नहीं समझा जाता है। खंड एक में दिए गए एक लेख स्त्री – भाषा और पुरुष भाषा: जेंडर और लेखन में स्त्री और पुरुषों की भाषा के संबंध में बात करती हुई वह कहती हैं कि हम एक जेंडर्ड समाज में रहते हैं। एक पितृसत्तात्मक समाज में। अगर देर रात सूनी सड़क पर आप अकेले हैं और इस बात से फ़र्क़ पड़ता है कि आप स्त्री हैं या पुरुष तो यक़ीनन कविता लिखते हुए भी इस बात से फ़र्क़ पड़ता है कि आप स्त्री हैं या पुरुष। हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहां जेंडर केवल जैविक सच्चाई नहीं, बल्कि सामाजिक अनुभव का मूल आधार है।

तस्वीर साभार: Feminism In India

लेखिका इस बात को उजागर करती हैं कि हमारा समाज पितृसत्तात्मक है। यानी ऐसा ढाँचा जहां पुरुष को केंद्र में रखा गया है और स्त्री को परिधि पर। ऐसे समाज में स्त्री और पुरुष के अनुभव, डर, आज़ादी और सीमाएं समान नहीं होतीं। जब ये अनुभव अलग हैं, तो उनका लेखन भी अलग होगा क्योंकि साहित्य केवल कल्पना नहीं, बल्कि अनुभव और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है। रात की सुनसान सड़क पर अकेले होने का डर सिर्फ स्त्री जानती है, और यह डर उसकी भाषा और संवेदना में दर्ज हो जाता है।

हमारा समाज ‘जेंडर्ड’ यानी लिंग आधारित है। हम पितृसत्तात्मक समाज में रहते हैं, जहां पुरुषों को केंद्र में रखा जाता है और स्त्रियों को अक्सर हाशिये पर। स्त्री और पुरुषों के लेखन में अन्तर को अक्सर नहीं समझा जाता है।

महिलाओं के लिए दोहरा हाशियाकरण

इसी कारण यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि कविता लिखने वाला स्त्री है या पुरुष। लेखिका यह भी बताती हैं कि भाषा और साहित्य की संरचना भी पुरुष-प्रधान रही है, जिसमें स्त्री दृष्टि और आवाज़ को लंबे समय तक दबाया गया। इसलिए जब कोई स्त्री लिखती है, तो वह केवल एक रचना नहीं रचती, बल्कि एक प्रतिरोध, एक पुनर्निर्माण भी करती है। लेखन में जेंडर की उपस्थिति को नकारना उसके सामाजिक संदर्भ को नकारना है। लेखक निर्मला पुतुल के लेखन की बात करते हुए वह आदिवासी और दलित महिलाओं की भी बात करती हैं। उसी के संबंध में कहती हैं कि जब स्त्री-अस्मिता की बात होती है, तो अक्सर दलित/आदिवासी स्त्री नज़रंदाज़ हो जाती है और जब दलित/आदिवासी की बात होती है तो उस हाशिए के भीतर भी वह हाशिए पर होती है।

तस्वीर साभार: Rajkamal Prakashan

दोहरी अस्मिता तो पुरुष होना और आदिवासी होना भी है। दलित और आदिवासी स्त्री की पहचान न केवल पितृसत्ता से उपजी है, बल्कि विमर्शों के भीतर भी वह लगातार हाशिए पर धकेली जाती है। जब नारीवाद की बात होती है, तो वह ‘दलित/आदिवासी’ पहचान पीछे छूट जाती है और उन्हें अनदेखा कर दिया जाता है। जब दलित या आदिवासी विमर्श होता है, तो उसकी ‘स्त्री’ पहचान गौण हो जाती है। यह दोहरी उपेक्षा उस स्त्री को एक ऐसी जगह पर खड़ा करती है, जहां वह न तो पूरी तरह स्त्री विमर्श में डूबी समाहित होती है और न ही दलित या आदिवासी विमर्श में। निर्मला पुतुल इस जटिल स्थिति को केवल पहचान का संकट नहीं, बल्कि एक नई वैचारिक और रचनात्मक ज़मीन की मांग के रूप में दिखाती हैं। यह स्त्री न केवल दोहरी मार झेलती है, बल्कि अपने लिए एक तीसरी जगह, एक नया ‘स्पेस’ बनाने पर मजबूर है।

लेखिका यह भी बताती हैं कि भाषा और साहित्य की संरचना भी पुरुष-प्रधान रही है, जिसमें स्त्री दृष्टि और आवाज़ को लंबे समय तक दबाया गया। इसलिए जब कोई स्त्री लिखती है, तो वह केवल एक रचना नहीं रचती, बल्कि एक प्रतिरोध, एक पुनर्निर्माण भी करती है।

हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श

वह हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श को एक सशक्त वैचारिक हस्तक्षेप के रूप में प्रस्तुत करती है। स्त्रीवादी आलोचना की बुनियादी पद्धतियों, ऐतिहासिक उपेक्षा और समकालीन स्त्री लेखन की संवेदनाओं की गहन पड़ताल करती हैं। लेखिका यह स्थापित करती हैं कि जेंडर केवल जैविक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक निर्मिति है, जो न केवल व्यवहार तय करती है, बल्कि लेखन और उसकी भाषा को भी प्रभावित करती है। सुजाता का काम न केवल साहित्यिक आलोचना है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक आंदोलन है, जो समाज में महिलाओं की भूमिका को फिर से परिभाषित करने के लिए जरूरी है। उनके आलोचनात्मक दृष्टिकोण को पूरी दुनिया में नारीवादी आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान मिला है।

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