संस्कृतिसिनेमा नए चेहरों के साथ वही पितृसत्तात्मक अधूरी प्रेमकहानी दिखाती है फिल्म सैयारा

नए चेहरों के साथ वही पितृसत्तात्मक अधूरी प्रेमकहानी दिखाती है फिल्म सैयारा

सैयारा फिल्म में अनीत पड्डा और अहान पांडेय ने अभिनय किया है और फ़िल्म के डायरेक्टर मोहित सूरी हैं । इंस्टाग्राम पर इस फ़िल्म के रील्स तेजी से वायरल हो रहे हैं।

आज के समय में जब हम प्यार और रोमांस पर बनी फिल्मों को देखते हैं, तो हमें उम्मीद होती है कि अब कहानियों में बराबरी और सहमति दिखेगी, और एक रिश्ते में एक दूसरे की पसंद-नापसंद को अहमियत दी जाएगी। लेकिन आज भी ज्यादातर बॉलीवुड रोमांटिक फिल्में पुराने पितृसत्तात्मक सोच में ही अटकी हुई हैं। जहां हीरो गुस्सैल और हिंसा करने वाला होता है, और हीरोइन की छवि को हमेशा समझदार, त्याग करने वाली और सब कुछ सहन करने वाली महिला के रूप में  दिखाया जाता है। हाल ही में ऐसी ही एक फिल्म आई है “सैयारा”। इसे न्यू एज लव स्टोरी भी कहा जा रहा है लेकिन क्या सच में यह फ़िल्म कुछ नया कहती है? 

या फिर बस पुराने लैंगिक भेदभाव और पितृसत्ता से भरे किरदारों और प्रेम में लड़की का बलिदान जैसी पुरानी सोच को नए चेहरे और नए गानों के साथ दिखाती है। इस फ़िल्म के डायरेक्टर मोहित सूरी हैं। फ़िल्म ने पहले ही दिन 21 करोड़ की कमाई की और चार दिन में 100 करोड़ पार कर गई। नई स्टारकास्ट वाली फिल्मों में अब तक की सबसे बड़ी ओपनिंग रही यानि कमाई के मामले में यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट साबित हुई है। जहां एक ओर ये फिल्म बॉक्स ऑफ़िस के कई रिकॉर्ड तोड़ रही है वहीं दूसरी ओर यह फिल्म बॉलीवुड रोमांटिक फ़िल्मों के रूढ़िवादी ढांचे को तोड़ नहीं पाई है। 

कमाई के मामले में यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट साबित हुई है। जहां एक ओर ये फिल्म बॉक्स ऑफ़िस के कई रिकॉर्ड तोड़ रही है वहीं दूसरी ओर यह फिल्म  बॉलीवुड रोमांटिक फ़िल्मों के रूढ़िवादी ढांचे को तोड़ नहीं पाई है। 

फिल्म नई लेकिन सोच वही 

तस्वीर साभार : Film Fare

इस फिल्म में साफ़ तौर पर यह देखा जा सकता है कि 2025 में भी रोमांटिक फ़िल्मों का ढांचा ज़्यादा बदला नहीं है। वही सीधी-सादी लड़की, वही टॉक्सिक मस्क्युलिनिटी और उनकी मुश्किल परिस्थितियों भरी प्रेम कहानी सब वही है। फ़र्क बस इतना है कि इस बार एक्टर्स नए हैं।  यह अनीत पड्डा और अहान पांडेय की पहली फिल्म है और फिल्म के डायरेक्टर मोहित सूरी हैं। इंस्टाग्राम पर इस फ़िल्म के सीन बहुत तेजी से वायरल हो रहे हैं। रील्स की भरमार है। फ़िल्म देखने वाले लोग इस बार दो नहीं, बल्कि तीन हिस्सों में बंट गए हैं। एक तरफ़ वो लोग हैं, जो इंस्टाग्राम पर फ़िल्म देखकर अपनी वीडियो पोस्ट कर रहे हैं ।

तो दूसरी तरफ़ इस फ़िल्म को बिल्कुल नकार देने वाली जनता है। वहीं एक तीसरी पलटन भी है जिन्हें ये फ़िल्म ठीक-ठाक लगी। कहानी में एक तरफ़ है क्रिश कपूर, जो एक स्ट्रगलिंग सिंगर और म्यूज़िक कंपोज़र है। उसका किरदार थोड़ा गुस्सैल, परेशान और अपने ही दर्द – गिर्द डूबा हुआ दिखाया गया है। दूसरी तरफ़ है वाणी बत्रा, जो एक ट्रेनी एंटरटेनमेंट पत्रकार और गीतकार है। वाणी को एक समझदार, शांत और सीधे-सादे स्वभाव की लड़की के रूप में दिखाया गया है। वह अपने काम को पूरी ज़िम्मेदारी और लगन से करती है। जबकि क्रिश एक बेपरवाह और गुस्से वाला कलाकार है।

 यह अनीत पड्डा और अहान पांडेय की पहली फिल्म है और फिल्म के डायरेक्टर मोहित सूरी हैं। इंस्टाग्राम पर इस फ़िल्म के सीन बहुत तेजी से वायरल हो रहे हैं।

दोनों एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। चूंकि ऑपोज़िट अट्रैक्ट्स! ये दोनों भी एक दूसरे की ओर खींचे चले आते हैं। म्यूजिक इन्हें और करीब ले आता है। वो साथ मिलकर अच्छे गाने बनाते हैं और इसी बीच एक दूसरे से प्यार भी हो जाता है। फिर आता है ट्विस्ट जिसके कारण ये जोड़ा अलग होता है और फिर कैसे मिलता है, यही इस फ़िल्म की बेसिक स्टोरीलाइन है, जिसकी राइटर और स्क्रीनप्ले राइटर संकल्प सदाना हैं। बहुत समय बाद आप एक ऐसी फ़िल्म देखेंगे जिसमें प्यार के लिए कुछ भी कर गुज़रने का पागलपन नज़र आएगा और फ्रेश कास्ट के साथ ऐसा कुछ देखने का मज़ा तो है लेकिन यहां ये मज़ा बहुत सब्जेक्टिव है। फ्रेश कास्ट है लेकिन कहानी में कुछ भी नयापन नहीं है।

संगीत के सुर तो जुड़े, पर किरदारों के तार नहीं

तस्वीर साभार : NDTV

मोहित सूरी की पिछली फ़िल्मों की तरह इसमें भी संगीत बहुत अच्छा है। हर गाना किसी अलग व्यक्ति ने लिखा, बनाया और गाया है। इरशाद क़ामिल, मिथुन, ऋषभ कांत और राज शेखर जैसे मशहूर गीतकारों ने गाने लिखे हैं। सचेत-परंपरा, मिथुन, विशाल मिश्रा, तनिष्क बागची, ऋषभ कांत और फ़हीम अब्दुल्ला-अर्सलान निज़ामी ने संगीत कंपोज़ किया है। गानों को अरिजीत सिंह, जुबिन नौटियाल, श्रेया घोषाल, शिल्पा राव, विशाल मिश्रा, सचेत-परंपरा, फ़हीम अब्दुल्ला और हंसिका पारीक जैसे गायक-गायिकाओं ने गाया है। फ़िल्म का हर गाना ख़ूबसूरत है क्योंकि हर गाने को अलग-अलग लोगों ने ख़ूब तराशा है लेकिन फ़िल्म का हीरो अगर एक प्रतिभाशाली उभरता सिंगर है, तो उसके हर गाने के लिए अलग-अलग प्लेबैक सिंगर की बजाय अगर एक ही सिंगर को रखते तो वो क्रिश के किरदार के लिए ज़्यादा प्रभावी होता।

फ़िल्म का हीरो अगर एक प्रतिभाशाली उभरता सिंगर है, तो उसके हर गाने के लिए अलग-अलग प्लेबैक सिंगर की बजाय अगर एक ही सिंगर को रखते तो वो क्रिश के किरदार के लिए ज़्यादा प्रभावी होता।

इश्क़ गाने से फ़ेम पाने वाले गायक फ़हीम ने अर्सलान निज़ामी के साथ सैयारा का ख़ूबसूरत टाइटल ट्रैक दिया है जो इकलौता गाना है जो थिएटर से निकलने के बाद भी आपको याद रहेगा। एक म्यूज़िकल लव स्टोरी में गानों का बहुत अहम रोल होता है लेकिन यहां केवल अच्छे गानों पर ज़ोर दिया गया है, फ़िल्म की कहानी से सारे गाने नहीं जुड़ते। आप किसी भी गाने को फ़िल्म में कहीं भी सुनिए, ख़ास अंतर नहीं आएगा। फ़िल्म में कई जगह तार जुड़ते ही नहीं हैं। बहुत-सी चीज़ों को बस यूंही छोड़ दिया गया है जो आपको काफ़ी परेशान करती हैं। वाणी और क्रिश की प्रॉपर बैकस्टोरी नहीं होने के कारण आप उन्हें बेहतर समझ नहीं पाते, ख़ासकर क्रिश ऐसा क्यों है इस पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया गया है।

तस्वीर साभार : Times Of India

फ़िल्म में पियानो को जिस तरह से दिखाया गया, एक बार को लगता है कि उसके तार क्रिश की मां से जुड़ेंगे लेकिन इसे भी ऐसे ही छोड़ दिया गया। अल्ज़ाइमर्स जैसी गंभीर बीमारी को केवल प्लॉट ट्विस्ट के लिए इस्तेमाल किया गया है और इससे डील करने का तरीका भी काफ़ी कैज़ुअल है। आप पूरी तरह से  समझ ही नहीं पाते कि वाणी के साथ क्या हो रहा है या उसके दिमाग़ में क्या चल रहा है। बस एक सेकेंड में आपको पता चलता है कि अब वाणी सबकुछ भूल चुकी है कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि वो एक ही तरह की बातें भूल रही है, जैसे सब कुछ एक पैटर्न में हो रहा है । फ़िल्म के फ़र्स्ट हाफ़ में ये फ़िल्म काफ़ी तेज़ है और सेकेंड हाफ़ में काफ़ी स्लो और खींची हुई लगती है। साथ ही फ़िल्म में न कोई कैरेक्टर डेवलपमेंट दिखता है और न कोई बैकस्टोरी नज़र आती है, जो दर्शकों से क़िरदारों के इमोशन्स न जुड़ने का ठोस कारण है।

अल्ज़ाइमर्स जैसी गंभीर बीमारी को केवल प्लॉट ट्विस्ट के लिए इस्तेमाल किया गया है और इससे डील करने का तरीका भी काफ़ी कैज़ुअल है। आप पूरी तरह से  समझ ही नहीं पाते कि वाणी के साथ क्या हो रहा है या उसके दिमाग़ में क्या चल रहा है।

मुख्य किरदारों पर ज़्यादा फोकस  लेकिन गुम हुए साइड कैरेक्टर्स

फिल्म में अनीत और अहान ने अच्छा काम किया है। ख़ासकर अनीत ने तुलनात्मक रूप से बेहतर एक्टिंग की है। अहान कई इमोशनल सीन्स में उतने अच्छे से अपने भाव व्यक्त नहीं कर पाए। साथ ही कई जगह बोले गए डायलॉग और उसके इमोशंस में तालमेल नज़र नहीं आ पाया । कई बार उनका किरदार  नियंत्रण से बाहर दिखता है। चाहे वो उनके परिचय वाला सीन हो या फिर वाणी को यह बताने वाला सीन कि कैसे उसने क्रिश की ज़िन्दगी बदल दी। फ़िल्म में उनका किरदार काफ़ी गुस्सैल दिखाया गया है लेकिन वो ऐसा क्यों है इसके पीछे की कहानी नरेटिव से गायब है। पहली फ़िल्म के हिसाब से बढ़िया काम किया है उन्होंने लेकिन बेहतरी की काफ़ी गुंजाइश है। अब ये डायरेक्शन की कमी है, राइटिंग या एक्टिंग की या अगर ये कहा जाए कि फ़िल्म में ही डेप्थ नहीं नज़र आता तो ग़लत नहीं होगा। 

तस्वीर साभार : India Today

फ़िल्म में सारा ध्यान सिर्फ़ लीड किरदारों पर है। बाकी किरदारों को ठीक से दिखाने का मौका ही नहीं मिलता। प्यार की कहानी में दोस्ती, पैरेंट्स या फैमिली जैसे रिश्तों के लिए जगह ही नहीं बचती है । जबकि बाकी कलाकारों ने अच्छा काम किया है, फिर भी उन्हें ज़्यादा मौका नहीं मिला। फ़िल्म में आलम ख़ान ने बेहतरीन एक्टिंग की है इसके अलावा गीता अग्रवाल शर्मा ने भी एक मां के किरदार को बखूबी निभाया है। फ़िल्म में राजेश कुमार और वरुण बडोला जैसे किरदारों का तो सही इस्तेमाल हो ही नहीं पाया है। वो बस नाम के लिए हैं फ़िल्म में । शाद रंधावा और सीड मक्कड़ जैसे अभिनेताओं को भी उचित जगह नहीं मिली है। शान ग्रोवर जैसे अभिनेता को तो केवल ग़ैर-ज़रूरी मेलो ड्रामा के लिए ही रखा गया है।

फ़िल्म के फ़र्स्ट हाफ़ में ये फ़िल्म काफ़ी तेज़ है और सेकेंड हाफ़ में काफ़ी स्लो और खींची हुई लगती है। साथ ही फ़िल्म में न कोई कैरेक्टर डेवलपमेंट दिखता है और न कोई बैकस्टोरी नज़र आती है।

फ़िल्म में एक ही डायलॉग को बार – बार दोहराया गया है। तमाम ख़ामियों के बावजूद ये फ़िल्म लोगों को पसंद आ रही है। लोगों के बीच इसकी इतनी लोकप्रियता ये साफ़ दर्शाती है कि हम आज भी हम कितने आगे बढ़े हैं। 90 और इसके पहले दशकों की लव स्टोरीज़ में कोई व्यक्ति खलनायक हुआ करता था, इसके बाद के दशकों में परिस्थितियां खलनायक हो गईं और इसके बाद कुछ ख़ास बदलाव नहीं आया है। सैयारा एक ऐसी फ़िल्म है जो भले ही नए चेहरों और अच्छे संगीत के सहारे खुद को “न्यू एज लव स्टोरी” कहने की कोशिश करती है, लेकिन इसकी कहानी, किरदार और सोच आज भी रूढ़िवादी सोच पर टिकी हुई है जहां प्यार का मतलब बलिदान, पुरुषों की हिंसा और महिलाओं की सहनशीलता होता है।

फ़िल्म का संगीत सुनने में अच्छा है, कुछ अदाकारी भी असर छोड़ती है, लेकिन जब बात कहानी की गहराई, किरदारों की परतें और उनके आपसी जुड़ाव की आती है, तो वहां यह फिल्म कमजोर साबित होती है। कुल मिलाकर, सैयारा  एक ऐसी प्रेम कहानी है जो ऊपरी तौर पर आज की पीढ़ी को ध्यान में रखकर बनाई गई है, लेकिन इसकी आत्मा अभी भी बीते ज़माने की फिल्मों में ही अटकी हुई है। अगर हम वाकई न्यू एज रोमांस की बात करना चाहते हैं, तो ज़रूरत है ऐसी कहानियों की जो बराबरी, सहमति और मानसिक स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को संवेदनशीलता के साथ पेश करें न कि उन्हें सिर्फ़ भावनात्मक मोड़ देने के लिए इस्तेमाल करें।

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