संस्कृतिसिनेमा विदुथलाई: वंचितों के प्रतिरोध की एक क्रांतिकारी कहानी

विदुथलाई: वंचितों के प्रतिरोध की एक क्रांतिकारी कहानी

विदुथलाई तमिल निर्देशक वेट्रीमारन की दो भागों में बनी एक राजनीतिक-सामाजिक फिल्म है, जो हाशिये पर रह रहे समुदायों की आवाज़ को पर्दे पर लाने का एक प्रयास है।

विदुथलाई तमिल निर्माता-निर्देशक वेट्रीमारन की दो भागों में बनी एक राजनीतिक-सामाजिक फिल्म है, जो हाशिये पर रह रहे समुदायों की आवाज़ को पर्दे पर लाने का एक प्रयास है। इसका पहला भाग साल 2023 में सिनेमाघरों में आया था और दूसरा भाग हाल ही में जनवरी 2025 में ओटीटी प्लेटफॉर्म प्राइम वीडियो पर रिलीज हुआ है। वेट्रीमारन की फिल्मों की खासियत यही रही है कि वे हमेशा समाज के हाशिए पर खड़े दलितों, आदिवासियों और वंचित वर्गों की कहानियों को केंद्र में रखती है। विदुथलाई का हिंदी में अर्थ ‘आज़ादी’ होता है, और यह नाम ही फिल्म के मूल भाव को दिखाता है। यह फिल्म साल 1980 के दशक के तमिलनाडु में घटे एक हिंसक जन आंदोलन पर आधारित है, जिसमें स्थानीय ग्रामीणों, श्रमिकों और वंचित जातियों ने बाहरी माइनिंग कंपनियों, ज़मींदारी व्यवस्था और राज्य में होने वाली हिंसा के खिलाफ़ आवाज़ उठाई थी। 

फिल्म उन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारणों को गहराई से टटोलती है, जो इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि में मौजूद थे। साथ ही यह दिखाती है कि जब शोषण, अन्याय और दमन की हदें पार होती हैं, तो प्रतिरोध कैसे जन्म लेता है। विदुथलाई महज एक क्रांतिकारी कहानी नहीं, बल्कि यह उस दौर का एक सिनेमाई दस्तावेज़ है जो सत्ता और प्रतिरोध, हिंसा और नैतिकता, विचारधारा और मानवीयता के बीच झूलते भारत को हमारे सामने लाता है। दूसरे भाग को देखने से पहले पहला भाग ज़रूर ही देख लेना चाहिए, क्योंकि यह हमें कहानी के मुख्य किरदारों और उस दौर सामाजिक परिस्थितियों से परिचित कराता है। फिल्म के शुरुआत में हम तमिलनाडु के ग्रामीण क्षेत्र में एक भीषण ट्रेन दुर्घटना से शुरू होती है। इस घटना का सारा इल्ज़ाम जन आंदोलनकारी संगठन पर लगाया जाता है जो वहां माइनिंग कंपनी के आने के विरोधी हैं। यहां से शुरू होती है, जन आंदोलन के लीडर पेरूमल (विजय सेतुपति), जिसकी पुलिस के पास कोई पहचान नहीं है, उसको पकड़ने के लिए ऑपरेशन घोस्टहंट की हिंसक और अन्यायपूर्ण कहानी। 

यह फिल्म 1980 के दशक के तमिलनाडु में घटे एक हिंसक जन आंदोलन पर आधारित है, जिसमें स्थानीय ग्रामीणों, श्रमिकों और वंचित जातियों ने बाहरी माइनिंग कंपनियों, ज़मींदारी व्यवस्था और राज्य में होने वाली हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाई थी। 

वाथियार की क्रांति और कुमारेसन की खामोशी

तस्वीर साभार : The News Minute

फिल्म में कहानी का कथाकार एक ईमानदार और आदर्शवादी कांस्टेबल कुमारेसन है। वह पत्रों के माध्यम से अपनी मां को यह कहानी बता रहा है। कुमारेसन की कहानी पुलिस बटालियन द्वारा आम लोगों पर हो रही हिंसा और यातना को बयां करती है। कुमारेसन को गांव की ही तमिलरसी पप्पा से प्यार हो जाता है। ये प्रेम कहानी हिंसक वास्तविकता के बीच थोड़ी रोमांस के पल लेकर आती है, जिसे ग्रामीण परिवेश के बीच इलैयाराजा का संगीत और भी खूबसूरत बना देता है। पहले पार्ट के अंत में कुमारेसन तमिलरसी और गांव की महिलाओं को पुलिस की अमानवीय यातना और यौन हिंसा से बचाने के लिए पेरूमल को पकड़ लेता है। पहले भाग हमें प्रशासन और नौकरशाही के भ्रष्टाचार को दिखाता है। इन सबके बीच कुमारेसन की नैतिकता को लेकर दुविधा दर्शकों को भी सोचने पर मजबूर करती है। पुलिस का गांव की महिलाओं पर शोषण के दृश्य युद्ध में औरतों पर यौन हिंसा को हथियार बनाने के रूप में दिखाता है। ये दृश्य काफी वास्तविकता से फिल्माए गए हैं, जो दर्शकों को विचलित कर सकते हैं। 

फिल्म का दूसरा भाग आंदोलन के रहस्यमयी नेता पेरूमल की पृष्ठभूमि को उजागर करता है एक ऐसा किरदार जो पुलिस के लिए घोस्ट है, लेकिन गांववालों के लिए वाथियार, यानी शिक्षक और मार्गदर्शक है। यह भाग उस व्यक्ति की कहानी है जो कभी एक सीधा-सादा शिक्षक था। लेकिन जमींदारों की बर्बरता से एक दलित युवक और गांववालों को बचाने के प्रयास में खुद हिंसा का सामना करता है। इस हादसे के बाद उसकी जिंदगी पूरी तरह बदल जाती है। एक कॉमरेड के बचाए जाने के बाद वाथियार मार्क्सवादी साहित्य और विचारधारा से जुड़ता है और यहीं से वह एक शिक्षक से जननेता बनने की राह पर निकल पड़ता है। इस यात्रा में उसकी मुलाकात महालक्ष्मी (मंजु वॉरियर) से होती है, जो एक फैक्ट्री मालिक की बेटी होकर भी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी हुई एक जागरूक कार्यकर्ता है।

फिल्म उन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारणों को गहराई से टटोलती है, जो इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि में मौजूद थे। साथ ही यह दिखाती है कि जब शोषण, अन्याय और दमन की हदें पार होती हैं, तो प्रतिरोध कैसे जन्म लेता है।

महालक्ष्मी का किरदार फिल्म में एक सशक्त वामपंथी महिला के रूप में उभरता है जो संगठन में केवल भागीदारी नहीं निभाती, बल्कि विचार और नेतृत्व में बराबरी से शामिल होती है। वाथियार और महालक्ष्मी की शादी सिर्फ दो लोगों का मिलन नहीं, बल्कि समान सोच और संघर्ष के रास्ते पर साथ चलने का फैसला थी। इनकी शादी कामरेड्स की उपस्थिति में होती है जहां उन्हें उपहार स्वरूप कार्ल मार्क्स, पेरियार की तस्वीरें और ज्योतिबा फुले की प्रतिमा दी जाती है। फिल्म में फैक्ट्री के भीतर यूनियन बनाने की प्रक्रिया, मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई और पुलिसिया हिंसा के विभिन्न रूपों को बेहद तीखे और राजनीतिक संवादों के ज़रिए प्रस्तुत किया गया है।

तस्वीर साभार : MSN

यह दर्शकों को सिर्फ भावनात्मक नहीं, वैचारिक रूप से भी झकझोरते हैं। इन दृश्यों के बीच कुमारेसन का किरदार एक कथित निचले स्तर का ईमानदार कांस्टेबल पूरी व्यवस्था के नैतिक पतन का मूक साक्षी बना रहता है। वह अपने सीनियर्स द्वारा की जा रही हिंसा और अन्याय को देखता है। लेकिन, विरोध नहीं कर पाता, जो इस बात को रेखांकित करता है कि व्यवस्था के भीतर मौजूद व्यक्ति की नैतिक दुविधा कितनी गहरी और पीड़ादायक हो सकती है। दूसरा भाग न सिर्फ पेरूमल के क्रांतिकारी बनने की यात्रा को दिखाता है, बल्कि वामपंथी विचारधारा, जाति-वर्ग आधारित शोषण, सत्ता और प्रतिरोध की राजनीति को भी गहराई से छूता है। 

कुमारेसन का किरदार एक कथित निचले स्तर का ईमानदार कांस्टेबल पूरी व्यवस्था के नैतिक पतन का मूक साक्षी बना रहता है। वह अपने सीनियर्स द्वारा की जा रही हिंसा और अन्याय को देखता है।

जब लाल रंग चेतना का प्रतीक बनता है 

तस्वीर साभार : The Economic Times

फिल्म प्रत्यक्ष रूप से वामपंथी विचारधारा पर आधारित है। फिल्म के कई दृश्यों में पृष्ठभूमि में हम वामपंथी नेताओं की तस्वीरें देखते हैं। फिल्म में हम लाल रंग की वेशभूषा और झंडे भी जगह जगह देखते हैं, जो वाम विचारधारा को दिखाता है। दूसरा भाग पहले भाग की तुलना में ज्यादा राजनीतिक है। वाथियर की कहानी की शुरुआत से ही हम जाति और वर्ग आधारित अन्याय देखते हैं। वाथियर की कहानी इसी अन्याय के खिलाफ़ जन आंदोलन की है, जो आगे चलकर हिंसक हो जाती है। फिल्म में कई मुद्दों को एक साथ दिखाने की कोशिश की गई है। कभी फिल्म जाति-वर्ग आधारित शोषण, कभी लेबर राइट्स, कभी पूंजीवाद और जमींदारी के खिलाफ आंदोलन, तो कभी द्रविड़ियन मूवमेंट को दर्शाती है। 

दर्शकों को ये सारे मुद्दे एक साथ एक थाली में परोसे हुए लग सकते हैं। फिल्म के लेखक-निर्देशक वेट्रीमारन ने यही कहने की कोशिश की है कि ये सारे मुद्दे एक-दूसरे से जुड़े हैं, जिसका समाधान आम लोगों को राजनीतिक रूप से जागरूक कर सत्ता में भागीदारी है। फिल्म किसी भी हिंसा को जस्टिफाई नहीं करती। फिल्म दर्शकों के बीच ये सवाल छोड़कर जाती है कि शोषक वर्ग द्वारा की जाने वाली हिंसा के बीच शोषितों का प्रतिरोधी हिंसा और उसे कुचलने के लिए प्रशासन द्वारा पुलिस और सेनाओं का हथियारबंद मशीनरी की तरह काम करने में से कौन अपनी जगह सही है। अगर शोषण के विरूद्ध हिंसा सही प्रतिरोध नहीं है तो प्रतिरोध का कौन सा तरीका सही है?

फिल्म में कई मुद्दों को एक साथ दिखाने की कोशिश की गई है। कभी फिल्म जाति-वर्ग आधारित शोषण, कभी लेबर राइट्स, कभी पूंजीवाद और जमींदारी के खिलाफ आंदोलन, तो कभी द्रविड़ियन मूवमेंट को दर्शाती है। 

गृह मंत्रालय के दावे और ज़मीनी हकीकत

तस्वीर साभार : OTT Play

दो भागों में बनी यह फिल्म कुछ दर्शकों को लंबी लग सकती है। फिल्म में सभी की एक्टिंग अच्छी है। फिल्म में अनुराग कश्यप पश्चिम बंगाल के नक्सल लीडर की छोटी सी भूमिका में हैं। वे अपने बंगला लहज़े वाली इंग्लिश में युवाओं को रेडिकलाइज़ करते हुए कहते हैं, एन्हाइलेट द ओप्रेसर, लिबरेट द ओप्रेस्ट ऐंड क्रिएट अ न्यू पीपल्स रिपब्लिक यानी शोषक का विनाश करो, शोषित को मुक्त करो और एक नया जन गणराज्य स्थापित करो। इलैयाराजा का संगीत और बैकग्राउंड स्कोर फिल्म की इंटेंसिटी और स्पीड के साथ चलती है। एक्शन सीन्स रियल लगते हैं। वेलराज की सिनेमेटोग्राफी सीन्स को और पावरफुल बनाते हैं। वेट्रीमारन का निर्देशन अच्छा है। फिल्म कई गंभीर समाजिक मुद्दों और विचारधारा पर बात करने की कोशिश करती है और काफी हद तक सफल भी होती है।

ऐसे समय में जब केंद्रीय गृह मंत्री ये कह रहे हैं कि 31 मार्च 2026 तक भारत को नक्सल मुक्त बना देंगे, ये फिल्म और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। सुरक्षा बलों द्वारा नक्सली बताकर आम लोगों पर हिंसा की खबरें भी अक्सर सुनने को मिलती हैं। फ़िल्म आंदोलनों के इस हिंसक पहलू पर भी सवाल करती है। ये अन्य प्रोपेगेंडा फिल्मों से अलग ज़मीनी वास्तविकता दिखाती है। आज के दौर में वाम विचारधारा पर ऐसी फिल्म बनाना साहसिक और सराहनीय है। फिल्म का हिंदी डबिंग नहीं हुई है, इसलिए हिंदी के दर्शकों को इसे सबटाइटल्स के साथ देखना होगा। विदुथलाई एक साहसिक और जरूरी फिल्म है, जो हमें व्यवस्था से सवाल करना सिखाती है। यह सिर्फ शोषण की कहानी नहीं, बल्कि प्रतिरोध की चेतावनी है। जब सत्ता चुप कराना चाहती है, तब ऐसी फिल्में बोलने का हौसला देती हैं।

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