आज भी आम तौर हमारा समाज शरीर को लेकर कुछ तयशुदा मानकों के आधार पर किसी की काबिलियत, सुंदरता और आत्ममूल्य का आकलन करता है और जब यह शरीर एक महिला का हो, तो यह निगाह और भी कठोर हो जाती है। हमारे समाज में लड़कियों के शरीर को अक्सर एक तय ‘मानदंड’ के आधार पर आँका जाता है। कभी दुबला होना सुंदरता का मापदंड बन जाता है, तो कभी गोरा रंग, लंबी कद-काठी या ‘स्लिम ट्रिम’ होना एक सामाजिक अपेक्षा। यह तयशुदा पैमाना पितृसत्तात्मक सोच से उपजा है, जिसमें लड़की का शरीर खुद उसके नियंत्रण में कम और समाज की नज़रों के हिसाब से ज़्यादा होता है। कम उम्र से ही लड़कियों को यह सिखा दिया जाता है कि उनका शरीर एक ‘प्रदर्शन’ है, जिसे छुपाना भी है और सजाना भी। जब शरीर के आकार को ही आत्म-मूल्य का पैमाना बना दिया जाए, तो आत्मविश्वास टूटने लगता है। ऐसे में यह सवाल ज़रूरी हो जाता है कि क्या हम लड़कियों को उनके हुनर, सोच और संवेदना से परिभाषित कर सकते हैं, या हमेशा उनके शरीर से ही उनकी ‘वैल्यू’ तय होती रहेगी?
समाज ने मेरे कद को भी केवल एक शारीरिक कारक नहीं बल्कि जज करने का माध्यम बना लिया। मेरा कद मेरी उम्र और समाज के आदर्श शारीरिक मापदंडों से छोटा है। इसी वजह से मुझे बचपन से लेकर आज तक कई तरह की उपेक्षा, मजाक और अवहेलना का सामना कर पड़ा है। कभी दोस्तों की हंसी, कभी रिश्तेदारों की सहायता के नाम पर सलाह, तो कभी राह चलते अजनबियों की घूरती निगाहें। यह सब धीरे-धीरे मेरे आत्मविश्वास और मानसिक स्वास्थ्य को भीतर ही भीतर चोट पहुंचाता रहा। भारतीय समाज में आम है कि कोई अपने रंग को लेकर तानें सुनता है, तो कोई मोटे या पतले शरीर को लेकर लगातार मजाक का पात्र बनता है। सुंदरता के जो सामाजिक पैमाने बना दिए गए हैं, वे लाखों लड़कियों के आत्मसम्मान को कम करते हैं।
मेरे जन्म के समय घर में बाकी सब लोग खुश थे, लेकिन मेरे पिता को मेरे पैदा होने की कोई ख़ुशी नहीं हुई। उन्होंने लगभग एक हफ्ते तक खाना नहीं खाया, सिर्फ इसलिए कि उनके घर में बेटी पैदा हुई थी।
जब मेरे जन्म की ख़ुशी भी छीन ली गयी

सआदत हसन मंटो ने कहा था कि बेटी का पहला हक़ जो हम खा जाते हैं, वो उसके पैदा होने की खुशी है। मेरा जन्म बिहार के सारण ज़िले में हुआ, जहां आज भी महिलाओं को लेकर सोच संकीर्ण और जड़ है। यहां अमूमन लड़कियों को जन्म से पहले ही बोझ समझ लिया जाता है, और अगर वे पैदा हो भी जाएं, तो भी उनका जीवन समझौतों, उपेक्षाओं और सीमाओं में चलता है। मेरे जन्म के समय घर में बाकी सब लोग खुश थे, लेकिन मेरे पिता को मेरे पैदा होने की कोई ख़ुशी नहीं हुई। उन्होंने लगभग एक हफ्ते तक खाना नहीं खाया, सिर्फ इसलिए कि उनके घर में बेटी पैदा हुई थी। इस अनुभव ने मेरी ज़िंदगी की शुरुआत को एक गहरी चुप्पी, अस्वीकार और अस्वीकृति से भर दिया।
बिहार में लिंगानुपात में गिरावट और पितृसत्ता सोच
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, नागरिक पंजीकरण प्रणाली (सीआरएस) के आंकड़े बिहार में लड़कियों की स्थिति को लेकर एक गंभीर तस्वीर पेश करती है। वर्ष 2022 में राज्य में प्रति 1,000 लड़कों पर केवल 891 लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया। यह लिंगानुपात पूरे देश में सबसे कम था। चिंताजनक यह है कि यह स्थिति पिछले तीन वर्षों से लगातार बिगड़ती जा रही है। वर्ष साल 2020 में यह अनुपात 964 था, 2021 में घटकर 908 रह गया, और 2022 में और गिरकर 891 पर पहुंच गया। तीन वर्षों की यह गिरावट साफ दिखाती है कि राज्य में लड़कियों के जन्म को लेकर सामाजिक मानसिकता अब भी पूर्वग्रहों से ग्रसित है। इसके पीछे जन्म से लिंग चयन, शिक्षा और संसाधनों तक पहुंच में भेदभाव, और गहरे सामाजिक पूर्वग्रह जिम्मेदार हैं।
समाज ने मेरे कद को भी केवल एक शारीरिक कारक नहीं बल्कि जज करने का माध्यम बना लिया। मेरा कद मेरी उम्र और समाज के आदर्श शारीरिक मापदंडों से छोटा है। इसी वजह से मुझे बचपन से लेकर आज तक कई तरह की उपेक्षा, मजाक और अवहेलना का सामना कर पड़ा है।
लड़कियों को लेकर समाज में जो सोच बनी हुई है, वह कई बार घर के सबसे करीबी रिश्तों में भी दिखाई देती है। पितृसत्तात्मक सोच के कारण बेटियों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। मेरे पिता की धारणा थी कि लड़कियों की जगह केवल रसोई तक सीमित होनी चाहिए। खाना बनाना, घर संभालना और दूसरों की सेवा करना ही उनके मुताबिक बेटियों का काम था। उन्हें लगता था कि लड़कियों के लिए पढ़ाई-लिखाई सिर्फ नाम भर की होनी चाहिए। यह सोच सिर्फ उनके व्यक्तिगत विचार नहीं थे, बल्कि यह उस गहरे जड़ जमा चुके समाज की देन थी जो पीढ़ी दर पीढ़ी बेटियों को सीमाओं में बांधता आया है। वह समाज जहां हर नियम और हर परंपरा इस तरह गढ़ी गई कि बेटियों को चुप रहना सिखाया जाए, उन्हें बड़े सपने देखने से रोका जाए, और उन्हें बराबरी का हक़ न मिले।
एक घर की नहीं, पूरे समाज की कहानी

यह कहानी सिर्फ एक घर या एक पिता की नहीं है। यह उस पूरे पितृसत्तात्मक ढांचे की कहानी है जो लड़कियों को हमेशा पीछे रखने की कोशिश करता है। समाज आज भी यह मानता है कि लड़कियां बोझ है। यह केवल सरकारी आंकड़ों की बात नहीं, यह सामाजिक व्यवस्था में गहरे बैठे भेदभाव की बात है। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, तब तक आंकड़े भी नहीं बदलेंगे और न ही बेटियों के हालात। ज़रूरी है कि समाज अपनी सोच बदले, घरों में बदलाव आए, और लड़कियों को सिर्फ जीने का नहीं, बराबरी से जीने का हक़ मिले। मेरे जन्म के कुछ ही समय बाद घर में बहस शुरू हो गई। लेकिन मेरी माँ ने हर मोड़ पर मेरा साथ दिया। उनका कहना था कि मैं अपनी बेटी को वही बनाऊंगी जो वो बनना चाहेगी। हालांकि बाकी घरवालों को लगता था कि लड़की की ज़िंदगी का रास्ता पहले से तय होता है—घर, परिवार और सीमित सपने।
वर्ष 2022 में राज्य में प्रति 1,000 लड़कों पर केवल 891 लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया। यह लिंगानुपात पूरे देश में सबसे कम था। चिंताजनक यह है कि यह स्थिति पिछले तीन वर्षों से लगातार बिगड़ती जा रही है। वर्ष साल 2020 में यह अनुपात 964 था, 2021 में घटकर 908 रह गया, और 2022 में और गिरकर 891 पर पहुंच गया।
पढ़ाई मेरे लिए कभी आसान नहीं रहा। गांव के स्कूल में लड़कियों को ज़्यादा देर तक ठहरने नहीं दिया जाता था। कभी कहा जाता कि रास्ते असुरक्षित हैं, तो कभी यह सवाल उठाया जाता कि इतना पढ़कर क्या करेगी? लेकिन मेरी मां ने मेरा साथ नहीं छोड़ा। जब भी कोई पूछता कि लड़की को इतना पढ़ाने की क्या ज़रूरत, वह बस एक बात कहती कि ये अपनी ज़िंदगी खुद जी पाए, बस इतना काफी है। मैं पढ़ाई में ठीक-ठाक थी। लेकिन जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ने लगी, घर में मेरी पढ़ाई से ज़्यादा मेरी कदकाठी पर बातें होने लगीं। घरवालों को मेरे कद की चिंता होने लगी। किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि मेरा स्वास्थ्य कैसा है, मुझे क्या पसंद है, या मैं क्या बनना चाहती हूं।
लोगों की सोच और मेरा संघर्ष

मुझे अपने कद की वजह से हर दिन नए अनुभवों से गुजरना पड़ता है। अक्सर ऐसा होता है कि लोग मुझे ऊपर से नीचे तक घूरते हैं, जैसे मैंने कोई अपराध कर दिया हो। उनका देखने का तरीका, बात करने का लहजा, और कभी-कभी सीधे-सीधे टिप्पणियां मेरे आत्मविश्वास और मानसिक स्थिति को गहराई से प्रभावित करती हैं। कई बार मैं खुद से सवाल करने लगती थी कि मैं ही क्यों ऐसी दिखती हूं? यह अनुभव मुझे सबसे अधिक तब महसूस हुआ जब मैं स्कूल में जूनियर क्लास में पढ़ती थी। स्कूल से आते-जाते समय लोग घूरते, हंसते और आपस में बातें करते थे। हमारा समाज छोटे कद को एक ‘कमी’ की तरह देखता है। राह चलते लोग पलट-पलट कर देखते हैं। कभी बाइक से तो कभी कार से झांकते हैं। कई बार तो अशालीन और निजी सवाल भी पूछ डालते हैं कि तुम इतनी छोटी कैसे रह गई या तुम्हारा पीरियड्स किस साल शुरू हुआ था। इसी दौरान मैंने पहली बार अपने भावनाओं को शब्दों में ढालने की कोशिश की थी। लेकिन सच यह भी है कि यह सिर्फ मेरा अनुभव नहीं है। हमारे देश में आज भी हजारों लोगों खासकर महिलाओं की बॉडी शेमिंग की जाती है। रानी मुखर्जी से लेकर कंगना रनौत और राधिका आप्टे ने भी अपने इंटरव्यूज़ में बताया है कि कैसे इंडस्ट्री में शुरुआती दिनों में उनके शरीर को लेकर टिप्पणियां की जाती थीं।
हमारा समाज छोटे कद को एक ‘कमी’ की तरह देखता है। राह चलते लोग पलट-पलट कर देखते हैं। कभी बाइक से तो कभी कार से झांकते हैं। कई बार तो अशालीन और निजी सवाल भी पूछ डालते हैं कि तुम इतनी छोटी कैसे रह गई या तुम्हारा पीरियड्स किस साल शुरू हुआ था।
क्या कहता है मेडिकल दुनिया

यह अनुभव मेरी किशोरावस्था का है, जब मेरी हाइट उम्र के हिसाब से नहीं बढ़ रही थी। इसको लेकर अक्सर लोग सुझाव देते थे कि दवा ले लो, कुछ सालों में हाइट बढ़ जाएगी। ये दवाएं काफी महंगी थीं, लेकिन फिर भी मैंने और मेरी मां ने उन्हें आज़माया। हम इस उम्मीद में थे कि शायद कुछ फर्क पड़े, लेकिन नतीजा सिर्फ पैसे की बर्बादी और आत्मसम्मान में कमी के रूप में सामने आया। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ऐसी कोई गाइडलाइन नहीं है, जो वयस्कों या किशोरों में हाइट बढ़ाने वाली दवाओं को सुरक्षित या प्रभावी मानती हो। कई रिपोर्ट के अनुसार, आमतौर पर 18 से 20 वर्ष की उम्र के बाद हमारी हड्डियों की ग्रोथ प्लेट बंद हो जाती है। इस स्थिति में कोई भी दवा हाइट बढ़ाने में मदद नहीं कर सकती। इन सब के बीच मेरी मां कभी इन सामाजिक मानकों से प्रभावित नहीं हुईं। उनकी ये बातें मुझे हमेशा आत्मबल देती हैं। उन्होंने मुझे हमेशा बाहर निकलने और दुनिया को देखने के लिए प्रेरित किया।
आज के समय में समाज में कद, रंग और शरीर को लेकर बदलाव आया है, लेकिन यह बदलाव बहुत धीमा और सतही है। सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी सोच आज भी लोगों के ज़हन में गहराई से बसी है। लड़कियों को अब भी उनके रंग, कद या शरीर के आकार के आधार पर परखा जाता है। कई बार सिर्फ इसलिए उन्हें कमतर समझा जाता है क्योंकि वे “खूबसूरती” के सामाजिक मापदंडों पर खरी नहीं उतरतीं। यह नज़रिया उनके आत्मविश्वास को चोट पहुंचाता है। हमारे समाज में किसी व्यक्ति की पहचान उसके गुणों, विचारों और व्यवहार से नहीं, बल्कि उसकी सूरत से की जाती है। खासकर महिलाओं के मामले में यह भेदभाव और भी अधिक होता है। समाज को यह समझने की ज़रूरत है कि हर शरीर की अपनी खूबसूरती होती है, जो आंखों से नहीं, दिल से समझी जाती है। जब तक हम बाहरी रूप से परे जाकर लोगों को उनकी काबिलियत और सोच से नहीं पहचानेंगे, तब तक असली बदलाव नहीं आएगा। रूढ़ छवियों को तोड़ना ही आगे बढ़ने का रास्ता है।

