इंटरसेक्शनलजेंडर क्यों नौकरी के लिए भी महिलाओं का समाज के अनुसार ‘खूबसूरत’ दिखना जरूरी है?

क्यों नौकरी के लिए भी महिलाओं का समाज के अनुसार ‘खूबसूरत’ दिखना जरूरी है?

मल्टीनेशनल कंपनियों में, कॉलसेन्टरों में, शॉपिंग मॉल में, रेस्टोरेंट से लेकर तमाम संस्थान जैसे पब्लिक स्कूल और हॉस्पिटल्स तक में ये हाल है कि सबको महिलाओं के रूप में एक सजी-धजी गुड़िया चाहिए जो मशीन की तरह काम भी करे और हर तरह से मेक अप भी लगाए हर पल मुस्कुराती रहे।

प्रकृति ने मनुष्य को विभिन्न प्रकार से बनाकर सौंदर्य के विभिन्न मानक गढ़े हैं। प्रकृति ने किसी भी रंग को ज्यादा सुंदर नहीं बताया है। किसी कद-काठी या चेहरे को ज्यादा सुंदर निर्धारित नहीं किया है। लेकिन बाजार ने सामंती और पूंजीवादी मूल्यों को अपना हथियार बनाकर लोगों को विशेषकर स्त्रियों को खूब लूटता रहा है और ये प्रकिया लगातार चल रही है। मेक अप करना, लिपिस्टिक लगाना, क्रीम, पाऊडर या सौंदर्य के तमाम संसाधनों का उपयोग करना कहीं से कोई गलत बात नहीं है। लेकिन हमें यह भी ये देखना होगा कि इसे हम स्वयं तय करें न कि बाजार या पितृसत्ता। अक्सर पितृसत्ता को बढ़ावा देता बाजार हमें इतनी बारीकी से उपयोग करती है कि उसके निर्णय को हम अपना निर्णय समझने लगते हैं।

सौंदर्य क्या है? क्या यह वही है जो बाजार तय करता है? इस बात को कैसे मान लिया जाए कि सौंदर्य का सही मानक ठीक वही है जो बाजार से निकलकर आता है। मनुष्य के रंग-रूप, कद-काठी के परफेक्ट मानक को तय करने वाला बाजार कौन होता है। उसके बनाए मानक हम प्रकृति का मानक मानते हैं। बाजार जब जुमला कहता है कि खूबसूरती पर हक है हमारा, तब हम उसके फरेब को न समझकर, खुद को निश्चित सुंदरता के अंतर्गत खुद को दिखाना अपना काम मान लेते हैं। हालांकि ‘खूबसूरती पर हक है हमारा’, कहते हुए यह हमारे तमाम हक को नकारता है। आखिर क्यों अपने मानक में खूबसूरत दिखने का बोझ वो हमपर डाल रहा है।

जब पिता की नौकरी छूट गयी तो शॉपिंग मॉल में काम करना पड़ा। लेकिन यहां ये हालत हैं कि जो तनख्वाह मिलती है, उसमें से अच्छा हिस्सा महंगे कॉस्मेटिक पर खर्च हो जाता है।”

पितृसत्ता, पूंजीवाद और महिलाओं में सुंदरता का खेल

आज जिस तरह से काम करने के विभिन्न संस्थानों में महिलाओं की भूमिका बढ़ी है, उसके साथ उनकी शरीर की बनावटी सजावट भी बढ़ती चली गयी। मल्टीनेशनल कंपनियों में, कॉलसेन्टरों में, शॉपिंग मॉल में, रेस्टोरेंट से लेकर तमाम संस्थान जैसे पब्लिक स्कूल और हॉस्पिटल्स तक में ये हाल है कि सबको महिलाओं के रूप में एक सजी-धजी गुड़िया चाहिए जो मशीन की तरह काम भी करे और हर तरह से मेक अप भी लगाए हर पल मुस्कुराती रहे। कुछ दिन पहले एक सर्वे में ये बात कही गयी थी कि महिलाएं अपनी कमाई का 40 प्रतिशत अपने कॉस्मेटिक, कपड़ों, ज्वेलरी और फुटवियर पर खर्च करती हैं।

 फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

ये बात काफी हद तक सही है कि आज महिलाएं अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा सौंदर्य साधनों पर खर्च कर रही हैं। लेकिन क्या ये इतनी सहज बात जितनी सहजता से महिलाओं पर आरोपित करके ये बात कही गयी है। इस पितृसत्ता और पूंजीवादी सत्ता में महिलाओं की भूमिका कितनी है और अगर सत्ता दूसरों के पास है तो महिलाओं से सवाल क्यों। आज पितृसत्ता और पूंजीवाद इतनी जड़ और सर्वाहारी हो गई है कि महिलाओं के चेतना का उससे आज़ाद रहन बेहद कठिन होता है।

सुंदरता के मायने तय करता बाजार

सदियों से पितृसत्ता ने महिलाएं के ऊपर अपने सौंदर्य के मानदंडों का ऐसा भार लाद दिया कि उससे उबरना मुश्किल रहा है। उन्होंने ही समाज में सबकुछ तय किया क्या सुंदर है और क्या नहीं। उनके ग्रंथ, गीत, कविताओं और उपमाएं सभी में स्त्री को बहुत कमनीय, गोरी और सुंदर, जिसमें उसकी कमर पतली हो, बाल लम्बे हो, बेहद नाजुक रूप में प्रस्तुत किया है। इस तरह के सौंदर्य मानक को सुंदरता के मायने को इतना जड़ कर दिया कि इससे इतर स्त्री बनावट असुंदर मान ली गई। आगे चलकर बाजारवाद ने पितृसत्ता के इसी मानक को खूब महिमामंडित करके बेचा। सदियों के बने सामन्ती सौंदर्य बोध अवैज्ञानिक चेतना और अप्राकृतिक मूल्यों से निर्धारित थे। नये आधुनिक प्रगतिशील व वैज्ञानिक चेतना से बनते समाज में इन अतार्किक मूल्यों को कब का ख़ारिज कर देना चाहिए था। लेकिन बाजार को इससे खूब लाभ मिलता था, तो बाजार ने इन मानकों को उपयोग करके स्त्री को सजावटी गुड़िया बनाने की मुहिम में लग गया।

अपराजिता ने कुछ लिपस्टिक और क्रीम की कीमत बतायी जो हजार रुपये की थी। जब मैंने पूछा कि आखिर इतना मंहगा उत्पाद लेने की जरूरत ही क्या है, तो जवाब में उसने कहा, “मेरी स्किन बेहद सेंसेटिव है। फिर जब 12 घंटे अपने चेहरे पर मेकअप लगाकर रहना पड़े, तो फिर क्वालिटी का भी ध्यान रखना पड़ता है।”

निश्चित तरीके से महिलाओं को दिखने की जरूरत

आज शॉपिंग मॉल जैसे जगहों में काम करती लड़कियों को देखकर लगता है काम के बोझ के साथ-साथ ग्लैमर के बोझ ने उन्हें इस तरह से थका दिया है कि उनके भीतर संवेदना का कोई रंग नहीं दिखता। इलाहाबाद के एक शॉपिंग मॉल में काम करती अपराजिता कहती हैं, “माता-पिता ने अपराजिता नाम रखा था और मैं लगातार हारती रही। पढ़ाई में ठीक-ठाक ही थी। पर कहीं नौकरी नहीं लगी। जब पिता की नौकरी छूट गयी तो शॉपिंग मॉल में काम करना पड़ा। लेकिन यहां ये हालत हैं कि जो तनख्वाह मिलती है, उसमें से अच्छा हिस्सा महंगे कॉस्मेटिक पर खर्च हो जाता है।”

रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

अपराजिता ने कुछ लिपस्टिक और क्रीम की कीमत बतायी जो हजार रुपये की थी। जब मैंने पूछा कि आखिर इतना मंहगा उत्पाद लेने की जरूरत ही क्या है, तो जवाब में उसने कहा, “मेरी स्किन बेहद सेंसेटिव है। फिर जब 12 घंटे अपने चेहरे पर मेकअप लगाकर रहना पड़े, तो फिर क्वालिटी का भी ध्यान रखना पड़ता है।” महिलाओं के अधिकार के लिए यह ध्यान देने वाली बात है आखिर अपनी कठिन परिश्रम से की गई कमाई का इतना बड़ा हिस्सा वो बाजार को क्यों दें?

पूंजीवादी बाजार के गढ़े समस्यात्मक नियम

आज बाहर निकली स्त्रियों में बहुत कम स्त्री मिलेगी जिसने लिपिस्टिक न लगाया हो। ऐसा नहीं है कि लिपिस्टिक लगाना कोई गलत बात है। लेकिन जिस तरह से महिलाओं के निजी चुनाव के बदले बाजार का थोपा काम बन गया है, वो गलत है। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में अध्ययन करती खुशी कहती हैं, “माँ के दांतों में दर्द था। एक महिला डेंटिस्ट को दिखाने गयी तो देखा उस हॉस्पिटल में महिला डेंटिस्ट से लेकर सारी लड़कियां जिनमें डॉक्टर से लेकर सहायिका तक सब गहरे मेकअप में हैं। एक बार तो लगा कि हम किसी क्लीनिक में नहीं, ब्यूटीपार्लर में आ गये हैं।” खुशी ने बताया कि पता चला कि उस हॉस्पिटल के मालकिन की सख़्त हिदायत है कि वहां कार्यरत कोई महिला बिना मेकअप के नहीं आ सकती। 

“मुझे अभी भी मेकअप करना पसंद नहीं है। लेकिन यह सब मुझे मजबूरी में करना पड़ता है। जहां मैं नौकरी करती हूं वहां मुझे मेकअप करके आने के लिए कहा जाता है। मैं शुरू में तो मेकअप करके नहीं जाती थी। लेकिन इसपर मुझे बाकायदा मेकअप का निर्देश दिया गया।”

क्या सुंदरता के नियम असल में हितकारी हैं  

दरअसल सामन्ती मूल्य और बाजारवाद ने पूरे समाज को जकड़ रखा है स्त्रियां उनके लिए सबसे बड़ा बाजार हैं। लखनऊ में रहने वाली स्वीकृति कॉल सेंटर में नौकरी करती है। उन्हें बचपन सजने-संवरने का कोई शौक नहीं था। वह हमेशा ही साधारण तरीके से तैयार होती है। एक दिन मैं परीक्षा देने के लिए उनके पास गई, तो थोड़ी सी अचरज में पड़ गई। मुझे लगा कि स्वीकृति शहर आकर बदल गई है। हम आपस में गांव समाज की कई सारी बातें करते रहे। बाद में मैंने थोड़ा हंसते हुए उनसे पूछ लिया कि आप तो पहले बिल्कुल भी सजती संवरती नहीं थी। आपको बिल्कुल पसंद भी नहीं था ये सब। फिर उन्होंने इसको लेकर जो बताया वो बहुत तकलीफ़देह थी।

रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

उन्होंने बताया, “मुझे अभी भी मेकअप करना पसंद नहीं है। लेकिन यह सब मुझे मजबूरी में करना पड़ता है। जहां मैं नौकरी करती हूं वहां मुझे मेकअप करके आने के लिए कहा जाता है। मैं शुरू में तो मेकअप करके नहीं जाती थी। लेकिन इसपर मुझे बाकायदा मेकअप का निर्देश दिया गया। फिर मैं थोड़ा मेकअप करके जाने लगी। लेकिन उसके बाद फिर से मुझे ऑफिस में बुलाया गया और कहा गया कि मैं और ज्यादा मेकअप करके आऊं। खासकर लिपिस्टिक तो डार्क कलर की ही लगाकर ऑफिस आया करूं।”

ध्यान से देखा जाए, तो एक तरफ महिलाओं की आज़ादी का गुणगान किया जाता है, तो दूसरी ओर इस तरह के सामाजिक बंधन को मजबूत और कठोर बनाये जा रहे हैं। घर से तो महिलाएं निकली हैं, लेकिन इस पूंजीवादी व्यवस्था से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाई हैं। हालांकि पितृसत्ता के छल को वो खूब महसूस कर रही हैं। देश में जब उदारवाद आया तो स्त्रियों को उसने खूब सपने दिखाये। उन सपनों की हकीकत जल्दी ही सामने आ गई। बाजार ने आजादी के नाम पर स्त्रियों का शोषण किया। खूबसूरती और ग्लैमर के नाम पर स्त्रियों को नये-नये तरीके सुझाए गए। बाजारवाद स्त्री को कठपुतली बनाकर उन्हें आजादी देने की बात करता है। पितृसत्ता और पूंजी के आधार पर बना बाजार स्त्रियों को आजादी देने के नाम पर उन्हें ही बाजार बना रहा है।

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