जलवायु परिवर्तन केवल तापमान बढ़ने या मौसम बदलने तक सीमित नहीं है। यह हमारे जीवन के लगभग हर एक पहलू को छू रहा है, खासकर हाशिये पर रह रहे व्यक्तियों को और भी ज़्यादा प्रभावित कर रहा है। जो पहले से ही सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। महिलाओं और नवजात शिशुओं पर इसका असर सबसे गहरा है, लेकिन अक्सर यह अनदेखा रह जाता है। ब्रेस्टफीडिंग जो शिशु के शुरुआती जीवन में पोषण, रोग प्रतिरोधक क्षमता और भावनात्मक सुरक्षा का सबसे बड़ा और प्राकृतिक स्रोत है, यह भी अब जलवायु संकट की चपेट में आ चुका है। बाढ़, सूखा, चक्रवात और हीटवेव जैसी आपदाएं न सिर्फ घर, भोजन और पानी छीन रही हैं, बल्कि उन परिस्थितियों को भी तोड़ रही हैं, जिनमें एक माँ अपने बच्चे को सुरक्षित और सहज वातावरण में दूध पिला सके।
यह असर सीधे तौर पर भी दिखता है जैसे ज्यादा गर्मी और पानी की कमी से माँ के दूध बनने में कमी आना, या आपदा के समय सुरक्षित जगह न मिल पाना और अप्रत्यक्ष रूप से भी जैसे खाने और साफ पानी की कमी, मानसिक तनाव, और समाज में मौजूद असमानताएं। इसलिए ब्रेस्टफीडिंग और जलवायु परिवर्तन का रिश्ता सिर्फ स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, बल्कि यह महिलाओं की बराबरी, मातृत्व के अधिकार और जलवायु न्याय से भी जुड़ा हुआ है। जलवायु संकट के इस दौर में, ब्रेस्टफीडिंग को बचाना और माँओं का समर्थन करना सिर्फ बच्चों की सेहत की रक्षा करना नहीं है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के जीवन, अधिकार और भविष्य की सुरक्षा करना भी है।
ब्रेस्टफीडिंग जो शिशु के शुरुआती जीवन में पोषण, रोग प्रतिरोधक क्षमता और भावनात्मक सुरक्षा का सबसे बड़ा और प्राकृतिक स्रोत है, यह भी अब जलवायु संकट की चपेट में आ चुका है।
जलवायु संकट और माताओं की स्वास्थ्य चुनौतियां

जलवायु परिवर्तन से जुड़ी परिस्थितियां जैसे हीटवेव यानी तेज़ गर्म हवाएं, सूखा, और अन्य प्राकृतिक आपदाएं सिर्फ पर्यावरण को ही नहीं, बल्कि सीधे तौर पर गर्भवती और ब्रेस्टफीड कराने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। यह प्रभाव न केवल शारीरिक स्तर पर, बल्कि मानसिक और सामाजिक स्तर पर भी महसूस किया जाता है। ज़्यादा गर्मी होने की वजह से शरीर में पानी की कमी (डिहाईड्रेशन) की समस्या हो जाती है इसका सीधा असर दूध उत्पादन पर पड़ता है, क्योंकि दूध बनाने के लिए शरीर को पर्याप्त तरल और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रेस्टफीड कराने वाली महिलाओं या व्यक्तियों को लगभग 12–16 फीसद ज्यादा तरल (पानी) की ज़रूरत होती है। गर्भावस्था के समय यह ज़रूरत करीब 3 लीटर प्रतिदिन होती है, जो ब्रेस्टफीड के समय बढ़कर लगभग 3.8 लीटर प्रतिदिन हो जाती है। यह मात्रा व्यक्ति की जीवनशैली, मौसम और खाने–पीने की आदतों के अनुसार बदल सकती है।
सूखा या पानी की लंबी कमी वाली परिस्थितियों में माँओं को पर्याप्त तरल और पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता। सूखे के कारण जब महिलाओं को दूर-दूर तक जाकर पानी लाना पड़ता है, तो उनकी ऊर्जा और समय दोनों कम हो जाते हैं, जिससे इसकी प्रक्रिया बाधित होती है। साल 2022 में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग 2.2 बिलियन लोगों के पास सुरक्षित रूप से प्रबंधित पेयजल तक पहुंच नहीं है और खासकर महिलाएं इससे ज़्यादा प्रभावित हो रही हैं लगभग 8,00,000 महिलाएं सुरक्षित जल, स्वच्छता और सफाई तक पहुंच की कमी से जुड़ी बीमारी और मृत्यु का सामना करती हैं।
ज़्यादा गर्मी होने की वजह से शरीर में पानी की कमी (डिहाईड्रेशन) की समस्या हो जाती है इसका सीधा असर दूध उत्पादन पर पड़ता है, क्योंकि दूध बनाने के लिए शरीर को पर्याप्त तरल और ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
रिपोर्ट का अनुमान है कि 2023 तक, 26 देशों में लगभग 380 मिलियन महिलाएं और लड़कियां उच्च या गंभीर जल की कमी के संपर्क में थीं और अनुमान है कि प्रभावित महिलाओं और लड़कियों की संख्या 2030 तक 29 देशों में बढ़कर 471 मिलियन हो जाएगी। लगातार पैदल चलने और भारी बर्तन ढोने से महिलाओं में थकान, पीठ दर्द, और पोषण की कमी बढ़ती है। कई बार, इस वजह से माताएं दिन में कम बार बच्चे को दूध पिलाती हैं, जिससे बच्चे के खाने–पीने का नियमित क्रम टूट जाता है और उसका पोषण प्रभावित होता है। प्राकृतिक आपदाएं कई बार लोगों को अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर देती हैं, जिससे उन्हें भोजन, पानी और स्वास्थ्य सेवाएं पाने में दिक्कत होती है। घर से बेघर होने के बाद लोग अक्सर संक्रामक बीमारियों के ज्यादा संपर्क में आते हैं, जो माँ और बच्चे दोनों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल सकता है। विस्थापन से होने वाला तनाव और मानसिक आघात स्तनपान को और मुश्किल बना सकता है, जिससे दूध की मात्रा और उसकी गुणवत्ता दोनों कम हो सकती हैं।
आपदाओं में ब्रेस्टफीडिंग का महत्व और कठिनाई

जलवायु संकट के इस दौर में, जहां सूखा, बाढ़, और आपदाएं लगातार पर्यावरण और स्वास्थ्य प्रणालियों को प्रभावित कर रही हैं, ब्रेस्टफीडिंग एक सुरक्षित और टिकाऊ पोषण प्रणाली के रूप में उभरती है। जब बिजली, पीने का साफ पानी या परिवहन तक पहुंच बना पाना मुश्किल हो जाता है। तब यही एक विकल्प है जो हमेशा इस्तेमाल किया जाता है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, संघर्ष या जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित परिवारों के लिए, शिशुओं के लिए सुरक्षित, पौष्टिक और सुविधाजनक भोजन स्रोत की गारंटी देता है। जब सड़कें टूट जाती हैं या ट्रांसपोर्ट रुक जाता है, तो फॉर्मूला दूध और सप्लीमेंट्स की आपूर्ति बाधित हो जाती है।
लगातार पैदल चलने और भारी बर्तन ढोने से महिलाओं में थकान, पीठ दर्द, और पोषण की कमी बढ़ती है। कई बार, इस वजह से माताएं दिन में कम बार बच्चे को दूध पिलाती हैं, जिससे बच्चे के खाने–पीने का नियमित क्रम टूट जाता है और उसका पोषण प्रभावित होता है
जब पीने का पानी दूषित या कम हो जाता है, तब शिशु को फार्मूला दूध देना स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक हो सकता है, क्योंकि उसके लिए साफ पानी की ज़रूरत होती है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में, जहां केवल लगभग 42 फीसदी शिशु जन्म के पहले घंटे में स्तनपान की शुरुआत करते हैं और 64 फीसद बच्चे पहले छह महीने के दौरान केवल माँ के दूध पर ही निर्भर रहते हैं। यह भारत के लिए एक बड़ी स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौती है। बाढ़, सूखा या आपदा के समय जब लोग राहत शिविरों में रहते हैं और अस्पतालों पर भी ज्यादा बोझ होता है, तब यह शिशु के लिए साफ, सुरक्षित और पौष्टिक दूध का भरोसेमंद माध्यम बन जाता है। यह बच्चे को बीमारियों से लड़ने की ताकत देता है और आर्थिक रूप से बोझ कम करता है, क्योंकि यह पूरी तरह मुफ़्त है।
मानसिक स्वास्थ्य और ब्रेस्टफीडिंग

जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न आपदाओं का असर केवल घर, आजीविका या संसाधनों पर नहीं पड़ता, बल्कि यह लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालता है। माँओं के लिए यह प्रभाव और भी संवेदनशील हो जाता है, क्योंकि वे घरेलू काम के साथ – साथ अपने शिशु की देखभाल और पोषण की मुख्य जिम्मेदारी निभाती हैं। उन्हें निजता, आराम और स्वच्छता की कमी का सामना करना पड़ता है। एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी के एक अध्ययन में पाया गया कि आपदा के बाद, महिलाओं में पुरुषों की तुलना में पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा ज़्यादा होता है।
एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी के एक अध्ययन में पाया गया कि आपदा के बाद, महिलाओं में पुरुषों की तुलना में पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा ज़्यादा होता है।
तनाव, चिंता और डर की स्थिति में कॉर्टिसोल (तनाव हार्मोन) का स्तर बढ़ जाता है, जो ऑक्सीटोसिन के स्राव को बाधित करता है। इसका सीधा असर दूध के लेट-डाउन रिफ्लेक्स (दूध के बहने की प्रक्रिया) पर पड़ता है, जिससे शिशु को पर्याप्त दूध नहीं मिल पाता। कई बार माएँ यह मान लेती हैं कि उनका दूध अब पर्याप्त नहीं बन रहा, और वे समय से पहले फ़ॉर्मूला दूध या ठोस आहार देना शुरू कर देती हैं। जो पर्यावरण और शिशु के स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकारक होता है। लेकिन माओं की इसमें कोई गलती नहीं है। जानकारी के अभाव के कारण वो फार्मूला दूध देने के बारे में सोचती हैं। लेकिन इसका एक कारण सार्वजनिक जगहों पर माँओं के लिए ब्रेस्टफीड कराने की सुविधा का न होना भी है। जिस कारण भी महिलाएं ब्रेस्टफीड नहीं करवा पातीं।
समाधान और नीति सुझाव

जलवायु परिवर्तन और आपदाएं माताओं और शिशुओं के स्वास्थ्य, पोषण और मानसिक स्थिति पर गहरा असर डालती हैं, इसलिए नीतियों में जलवायु-संवेदनशील स्वास्थ्य उपायों को प्राथमिकता देना जरूरी है। इसके तहत आपदा-प्रभावित क्षेत्रों में मदर-बेबी फ्रेंडली स्पेस स्थापित किए जाने चाहिए, जहां सुरक्षित वातावरण, पोषण सप्लीमेंट और मानसिक स्वास्थ्य सहायता उपलब्ध कराई जानी चाहिए। आपातकालीन योजनाओं में प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी को शामिल कर स्तनपान सहायता सुनिश्चित की जानी चाहिए और इसी के साथ – साथ आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और आशा वर्कर्स को भी इससे जुड़ा प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि ग्रामीण स्तर पर माँ और शिशु को सहायता मिल सके। साथ ही समुदाय को आपदाओं में स्तनपान की अहमियत और माताओं के समर्थन के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए। इसी के साथ लैंगिक दृष्टिकोण को अपनाते हुए हर उस व्यक्ति को एक समान समझा जाए तो ब्रेस्टफीड करवाता है चाहे उनकी सामाजिक और शारीरिक और सामाजिक पहचान कुछ भी हो। जब नीतियां सबको साथ लेकर बनेंगी, तभी हम सही मायनों में सेहत, समानता और पर्यावरण के बीच संतुलन बना सकेंगे।
जलवायु परिवर्तन और ब्रेस्टफीडिंग का संबंध भले ही आम चर्चा में न आता हो, लेकिन यह माताओं, शिशुओं और आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी है। बदलते मौसम, आपदाओं और संसाधनों की कमी से न केवल इसकी प्रक्रिया ही प्रभावित नहीं होती है, बल्कि मातृत्व से जुड़े बुनियादी अधिकार, लैंगिक समानता और जलवायु न्याय भी खतरे में पड़ जाते हैं। ब्रेस्टफीडिंग सिर्फ एक पोषण पद्धति नहीं, बल्कि संकट के समय जीवन बचाने वाला, सुरक्षित और टिकाऊ साधन है। इसलिए, इसे जलवायु नीतियों, आपदा प्रबंधन और स्वास्थ्य सेवाओं का अभिन्न हिस्सा बनाना ज़रूरी है। माताओं को सुरक्षित माहौल, पौष्टिक भोजन, साफ पानी और मानसिक स्वास्थ्य सहयोग देकर ही हम इस प्राकृतिक और अमूल्य प्रक्रिया की रक्षा कर सकते हैं। यह न केवल शिशु के आज को सुरक्षित करेगा, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक सशक्त और स्वस्थ आधार तैयार करेगा।

