इंटरसेक्शनलजेंडर कैसे बिहार की राजनीति में महिलाएं संघर्ष से निर्णायक नेतृत्व तक भूमिका निभा रही हैं

कैसे बिहार की राजनीति में महिलाएं संघर्ष से निर्णायक नेतृत्व तक भूमिका निभा रही हैं

बिहार की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी हमेशा से चर्चा का विषय रही है। यह बदलाव साल 2010 में शुरू हुआ । उस साल 54 फीसदी महिलाओं ने मतदान किया, जो पहली बार पुरुषों की तुलना में 51 फीसदी से ज़्यादा था।

बिहार का राजनीतिक क्षेत्र हमेशा से अपने उतार-चढ़ाव और गहरे सामाजिक, सांस्कृतिक प्रभावों के लिए जाना जाता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में जिस बदलाव ने सबसे ज़्यादा ध्यान खींचा है, वह है महिलाओं की सक्रिय भागीदारी। बिहार की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी हमेशा से चर्चा का विषय रही है।  इंडिया टुडे के मुताबिक, यह बदलाव साल 2010 में शुरू हुआ । उस साल, 162 निर्वाचन क्षेत्रों में  54 फीसदी महिलाओं ने मतदान किया, जो पहली बार पुरुषों की तुलना में 51 फीसदी से ज़्यादा था। साल 2015 में, यह अंतर और बढ़ गया, जब 60 फीसदी महिलाओं ने मतदान किया, जबकि पुरुषों ने केवल 50 फीसदी मतदान किया।

साल 2020 के विधानसभा चुनावों में, 243 में से 167 निर्वाचन क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों से ज्यादा संख्या में मतदाता के रूप में भागीदारी निभाई । जबकि उम्मीदवार और विजेता के रूप में उनकी स्थिति उतनी मज़बूत नहीं दिखी। रिसर्च गेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक,  बिहार के 243 निर्वाचन क्षेत्रों में से,  साल 2010 में 308 महिलाओं ने चुनाव लड़ा था, जिसमें  केवल 34 महिलाएं विधायक बनकर विधानसभा पहुंचीं। वहीं साल 2015 में 28 महिलाएं और साल 2020 में  मात्र 26 महिलाएं हीं, जीतने वाले उम्मीदवारों में अपना नाम दर्ज़ करवा पाईं। यह स्थिति तब और सोचने योग्य हो जाती है, जब हम देखते हैं कि बिहार की मतदाता सूची में लगभग 3.64 करोड़ महिलाएं दर्ज हैं, जो राज्य की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करती हैं।

 बिहार के 243 निर्वाचन क्षेत्रों में से,  साल 2010 में 308 महिलाओं ने चुनाव लड़ा था, जिसमें  केवल 34 महिलाएं विधायक बनकर विधानसभा पहुंचीं। वहीं साल 2015 में 28 महिलाएं और साल 2020 में  मात्र 26 महिलाएं हीं, जीतने वाले उम्मीदवारों में अपना नाम दर्ज़ करवा पाईं।

घर और राजनीति दोनों संभालती महिलाएं

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

हमने बिहार की मौजूद मुख्य राजनीतिक पार्टियों की उन महिलाओं से बात की जो सक्रिय रूप से इस चुनाव में भाग ले रहीं हैं। बिहार के अररिया विधानसभा क्षेत्र (संख्या 49) से जन सुराज पार्टी की विधानसभा उम्मीदवार डॉ.फरहत आरा, अररिया गर्ल्स हाई स्कूल की प्रिंसिपल रह चुकी हैं। वो कहती हैं, “ मेरा इस पार्टी से जुड़ने का कारण यह था कि बिहार का विकास हो, यहां के युवाओं का पलायन रुके, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था मज़बूत हो और भ्रष्टाचार पर लगाम लगे।”  आगे वह कहती हैं, “पार्टी में अब भी महिलाओं की संख्या बहुत कम है। कभी-कभी जब मैं पटना में मीटिंग अटेंड करती हूं, तो वहां पर मैं अकेली महिला सदस्य होती हूं । यह स्थिति इसलिए है क्योंकि या तो महिलाएं आती ही नहीं हैं, या उन्हें आने ही नहीं दिया जाता है और जो आती हैं, उन्हें भी पुरुष सहयोगी कम आंकते हैं। शायद पुरुषों को लगता है कि ये क्या कर लेंगी। लेकिन मैं मानती हूं,  कि महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। बस समाज को इसे समझने में अभी समय लगेगा।” 

 घर और राजनीति के दोहरी जिम्मेदारी पर उनका कहना है कि, “घर और बाहर की जिम्मेदारी एक साथ उठाना हमेशा चुनौती भरा होता है। मगर मैंने नौकरी के दौरान भी दोनों को संतुलित किया है, और यही अनुभव मुझे राजनीति में अपना पूरा योगदान देने की ताक़त देता है। बिहार में महिलाओं से जुड़े मुद्दों में सबसे अहम विषय  शिक्षा और रोज़गार है। मेरी इच्छा है कि महिलाओं को घरेलू उद्योग से जोड़ा जाए, वृद्धा पेंशन में वृद्धि हो और महिला शिक्षा को प्राथमिकता मिले।”  बिहार में चुनाव आयोग के चलाए जा रहे मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर ) पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि “इस प्रक्रिया पर भी मुझे आपत्ति है। बिहार में सुविधाओं और शिक्षा की कमी के कारण अक्सर महिलाओं को ज़रूरी दस्तावेज़ उपलब्ध कराने में दिक़्क़त होती है। ऐसे में चुनाव के समय इस तरह की प्रक्रिया थोपना न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि महिलाओं के अधिकारों को सीमित करने जैसा है।”

पार्टी में अब भी महिलाओं की संख्या बहुत कम है। कभी-कभी जब मैं पटना में मीटिंग अटेंड करती हूं, तो वहां पर मैं अकेली महिला सदस्य होती हूं । यह स्थिति इसलिए है क्योंकि या तो महिलाएं आती ही नहीं हैं, या उन्हें आने ही नहीं दिया जाता है और जो आती हैं, उन्हें भी पुरुष सहयोगी कम आंकते हैं।

बिहार की राजनीति में रूबी जायसवाल और गायत्री देवी की भूमिका

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी

सुपौल विधानसभा, वार्ड नंबर 4, की रूबी जायसवाल जो भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी हुई हैं। वह कहती हैं, “मैं पिछले पांच सालों से समाज सेवा कर रही हूं। मैंने कुछ समय पहले सोचा कि अगर राजनीति में रहकर काम करूंगी तो और मज़बूती से लोगों तक पहुंच पाऊंगी। इसी सोच से भारतीय जनता पार्टी ज्वाइन किया। समाज सेवा करना तो मेरे खून में है। चाहे बाढ़ पीड़ितों की मदद करनी हो या गरीब और मजबूर लोगों का साथ देना हो। ये रास्ता इतना आसान नहीं था, जब पहली बार राजनीति में कदम रखा तो घर और समाज वालों से आलोचना झेलनी पड़ी। कई बार ऐसा हुआ कि जब महिलाओं को मीटिंग या रैली के लिए बुलाने गई तो उनके घर वालों के विरोध का सामना करना पड़ा। यहां तक कि अपने शुरुआती समय में मुझे भी घर परिवार और समाज का विरोध झेलना पड़ा, लेकिन मैंने हार नहीं मानी। आज हालात ये हैं कि मुझे देखकर और भी महिलाएं आगे आ रही हैं। वो घर से निकलकर समाज सेवा और पार्टी के काम में हिस्सा ले रही हैं। मैं जायसवाल समाज की पहली महिला हूं, जो सक्रिय रूप से राजनीति में काम कर रही है।”

मुंगेर जिले के जमालपुर ब्लॉक की रहने वाली गायत्री देवी राजनीति में अपनी अहम भूमिका निभा रही हैं,  गायत्री कहती हैं, “ राजनीति में आने के पीछे मेरे परिवार का पूरा सहयोग रहा है। हालांकि शुरुआत में कुछ लोगों ने विरोध भी किया, लेकिन वक्त के साथ वही लोग आज मुझे मार्गदर्शक मानते हैं। पार्टी के प्रचार और समाज सेवा के दौरान मुझे कई ऐसी महिलाओं से मिलने का मौका मिला जिनकी समस्याएं देखकर मुझे दुख हुआ । उसके बाद मैंने ठान लिया कि अपने क्षेत्र की महिलाओं के हक़ और अधिकार के लिए एक संगठन बनाऊंगी, ताकि उनकी आवाज़ मज़बूती से उठाई जा सके।”

जब पहली बार राजनीति में कदम रखा तो घर और समाज वालों से आलोचना झेलनी पड़ी। कई बार ऐसा हुआ कि जब महिलाओं को मीटिंग या रैली के लिए बुलाने गई तो उनके घर वालों के विरोध का सामना करना पड़ा। यहां तक कि अपने शुरुआती समय में मुझे भी घर परिवार और समाज का विरोध झेलना पड़ा, लेकिन मैंने हार नहीं मानी।

महिलाओं की आवाज़ बुलंद करतीं एडवोकेट जूही प्रीतम

मुज़फ़्फ़रपुर ज़िला महिला कांग्रेस की अध्यक्ष एडवोकेट जूही प्रीतम, पेशे से अधिवक्ता हैं और लंबे समय से राजनीति और सामाजिक कार्यों से सक्रिय रूप जुड़ी हुई हैं। अदालत में वकालत करते हुए उन्होंने महिलाओं और वंचित वर्गों के अधिकारों के लगातार हो रहे उल्लंघन को करीब से देखा। यही अनुभव उन्हें अदालत की दहलीज़ से आगे राजनीतिक मंच तक लेकर आया। वह बताती हैं, “ शुरुआत में मेरा काम सिर्फ़ गांव -गांव जाकर महिलाओं को उनके अधिकार बताने, छोटे-छोटे जागरूकता शिविर लगाने और जरूरतमंदों को कानूनी मदद दिलाने तक ही था। उस समय ज्यादातर महिलाएं सामने नहीं आती थीं, क्योंकि घर की ज़िम्मेदारियां, समाज का डर और सुरक्षा की चिंता उन्हें रोक देती थी। धीरे-धीरे मैंने स्वास्थ्य शिविर, दस्तावेज़ बनवाने में मदद और प्रशिक्षण जैसे काम शुरू किए। अब मैं ज़िले के स्तर पर महिलाओं की टीम बनाकर उनके साथ मिलकर काम करती हूं।  योजनाएं बनाती हूं और कई सामाजिक व चुनावी अभियानों का संचालन करती हूं । पहले की तुलना में अब महिलाएं ज़्यादा सक्रिय और मज़बूती से भाग ले रही हैं, लेकिन महिलाओं की संख्या अभी भी कम है। राजनीति और वकालत,दोनों में महिलाओं की राय को नज़रअंदाज़ किया जाता है। शुरुआत में तो निराशा होती थी। लेकिन तर्क और ज्ञान से खुद को साबित किया और वही मेरी ताक़त बनी।”

महिला-पुरुष समानता अब भी कागज़ों तक सीमित 

तस्वीर साभारः Business Today

कटिहार जिले की राखी यादव एक समाज सेविका हैं, वो इस समय राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी ) कटिहार की नगर अध्यक्ष और जिला प्रधान महासचिव हैं।  वह बताती हैं, सात साल पहले जब वह पार्टी से जुड़ीं तो महिलाओं की संख्या बेहद कम थी। आज संख्या बढ़ी है, लेकिन सक्रिय भागीदारी अभी भी कम है। चुनाव और रैलियों के दौरान महिलाओं को एकत्रित करने में आने वाली दिक़्क़तों पर वह बताती हैं, “अमूमन ऐसे मौकों पर समस्याएं आती हैं। शहर की महिलाएं, जो संपन्न या कामकाजी होती हैं, उन्हें राजनीति के नाम पर घर से बाहर आने की अनुमति नहीं मिलती। जबकि गांव की महिलाएं, जो दिहाड़ी मज़दूर या घरेलू कामगार होती हैं, उनके सामने दूसरी परेशानीयां होती है। रैली में आने से उनके काम का नुकसान होता है और उनके पास आने-जाने के लिए साधन पर खर्च करने लायक पैसे भी नहीं होते। “

उस समय ज्यादातर महिलाएं सामने नहीं आती थीं, क्योंकि घर की ज़िम्मेदारियां, समाज का डर और सुरक्षा की चिंता उन्हें रोक देती थी। धीरे-धीरे मैंने स्वास्थ्य शिविर, दस्तावेज़ बनवाने में मदद और प्रशिक्षण जैसे काम शुरू किए। अब मैं ज़िले के स्तर पर महिलाओं की टीम बनाकर उनके साथ मिलकर काम करती हूं। 

 वह कहती आगे कहती हैं,  “बिहार में शिक्षा और गरीबी की स्थिति आज भी गंभीर है, ख़ासकर गांवों में। युवा बेरोज़गारी से जूझ रहे हैं और आदिवासी, संथाल और तथाकथित पिछड़ी जातियों की महिलाएं रोज़ाना सामाजिक शोषण  का सामना करती हैं। इन असली मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर धर्म के नाम पर राजनीति की जाती है। पूजा करना सबका व्यक्तिगत अधिकार है, लेकिन धर्म और राजनीति को अलग रहना चाहिए। धर्म के नाम पर की जाने वाली राजनीति ही बेरोज़गारी और गरीबी का असली कारण है। “महिला-पुरुष समान हैं” यह कथन ज़्यादातर दिखावा भर है और केवल कागज़ों पर लिखा जाता है। आम घरेलू महिला से लेकर कामकाजी महिला तक, चाहे वह किसी भी वर्ग या पेशे की हो, किसी न किसी रूप में शोषण का सामना करती है।” 

पुरुषवादी राजनीति में महिलाओं की मजबूती मीना शर्मा का अनुभव

तस्वीर साभार: Canva

बिहार के कटिहार जिले की मीना शर्मा पेशे से एडवोकेट हैं और इस समय विशेष लोक अभियोजक के रूप में कार्यरत हैं। वह करीब 28–29 साल पहले एक साधारण सदस्य के रूप में जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) से जुड़ी थीं । वर्तमान में कटिहार के कदवा ब्लॉक की जेडीयू महिला विंग की प्रभारी हैं। वो कहती हैं कि महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और आरक्षण जैसे कामों ने उन्हें लंबे समय तक पार्टी से जुड़े रहने की ताक़त दी है। वह कहती हैं,  “राजनीति में महिलाओं को अक्सर पुरुषवादी मानसिकता का सामना करना पड़ता है, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। हमने बेड़ियां तोड़ी हैं, और पुरुषों को ये बताया है कि, जो आप कहेंगे सिर्फ वही सही नहीं है । जब हम ज़मीन पर पूरी ईमानदारी से काम करते हैं, तो हमें अपने अधिकार भी पूरे मिलने चाहिए और हमारी बात सुनी जानी चाहिए। हालांकि शुरुआत में महिला होने की वजह से मेरी बातों को अक्सर ख़ारिज कर दिया जाता था। लेकिन समय के साथ, मेरे काम और प्रस्तावों की गंभीरता को मान्यता मिली और लोगों ने माना कि मेरे सुझावों में दम है। 

इन सारी महिलाओं से बात कर के यह साफ़ होता है कि वो किसी भी धर्म, जाति, क्षेत्र या किसी भी राजनीति पार्टी से हों, ये महिलाएं केवल भागीदारी नहीं निभा रहीं हैं, बल्कि अपने संघर्ष और नेतृत्व से बिहार की राजनीति का चेहरा बदलने का काम कर रही हैं। गांव-गांव तक संदेश पहुंचाना, महिलाओं को रैलियों और संवादों में लाना, और शिक्षा-आर्थिक सशक्तिकरण की बात करना यह दिखाता है कि ये महिलाएं अब केवल मतदाता नहीं रहीं,बल्कि परिवर्तन की धुरी बन चुकी हैं। वे मानती हैं कि जब तक महिलाएं शिक्षित, आत्मनिर्भर और राजनीतिक रूप से मुखर नहीं होंगी, तब तक लोकतंत्र अधूरा है। चुनावी राजनीति के बीच से उठी इन आवाज़ों ने ये माना है कि अब महिलाएं न केवल अपने अधिकार की मांग कर रही हैं, बल्कि नेतृत्व के नए आयाम गढ़ रही हैं। इन सब बातों से साबित होता है कि बिहार की राजनीति में महिलाओं की मौजूदगी अब प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि निर्णायक होती जा रही है।

Comments:

  1. mudasir says:

    “An empirical study on women’s participation in elections, supported by relevant data and evidence, reveals that when women come forward to vote, they are not merely selecting leaders—they are actively reshaping the destiny of Bihar through the power of their voices.” Great work by author of article.

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