समाजराजनीति लोकतंत्र में हर किसी को हो बोलने की आजादी| #लोकतंत्र, चुनाव और मैं

लोकतंत्र में हर किसी को हो बोलने की आजादी| #लोकतंत्र, चुनाव और मैं

मैं अपनी धार्मिक पहचान को लेकर सतर्क हो गई हूं। यात्राओं के दौरान मैं कोशिश करती हूं कि ट्रेन में मेरी धार्मिक पहचान उजागर न हो। मैं सोचती हूं कि ट्रेन में टीटीई जब टिकट की जाँच करने आए तो वो मेरा नाम ज़ोर से न बोले। मैं आमतौर पर अकेले ही यात्रा करती हूं और ऐसी यात्राएं मैं पिछले दस सालों से करती आ रही हूं। पहले मुझे अपने महिला होने के नाते असुरक्षा महसूस होती थी। लेकिन, अब उस असुरक्षा में मेरी 'धार्मिक पहचान' का पहलू भी जुड़ गया है।


बात उस समय की है जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ती थी। सामाजिक विज्ञान के हमारे एक शिक्षक ने कक्षा के दौरान हमें बताया था कि हमारे देश का एक संविधान है, जिसमें कुछ नियम दिए गए हैं। इनका पालन नागरिकों और सरकार दोनों के लिए करना अनिवार्य है। उन्होंने यह भी बताया था कि हमारा संविधान बहुत खास है क्योंकि इसे अलग-अलग देशों के संविधानों के अच्छे मूल्यों को चुनकर बनाया गया है और इसे तैयार करने में दो साल ग्यारह महीने 18 दिन का लंबा समय लगा था। संविधान पर आधारित उसी पाठ के तहत हमें यह भी बताया गया था कि संविधान के अनुसार हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है, यानी यहां जनता अपना प्रतिनिधि खुद चुनती है और संविधान की वजह से ही हम आम नागरिकों के पास कई अधिकार हैं। मुझे याद है कि यह सब सुनकर मुझे संविधान पर और इसके द्वारा हमें प्रदान किए गए अधिकारों पर बहुत गर्व हुआ था। लेकिन पिछले कुछ सालों से देश में जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं तो उससे ऐसा लगता है कि कहीं कुछ तो बदल गया है।

सरकार का हमारे जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप बढ़ गया है और संविधान ने हमें जो अधिकार दिए थे उनमें कमी हो रही है। सरकार से सवाल-जवाब करना, नेताओं को उनकी कथनी और करनी के लिए जवाबदेह ठहराना मुश्किल हो गया है और हमसे हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कमोबेश छीन ली गई है। सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना तो किसी देश के नागरिकों का अधिकार होता है और आलोचना के आधार पर ही नागरिक सरकार को जवाबदेह ठहराते हैं, फिर ऐसा माहौल क्यों बना दिया गया है कि हम किसी नेता या किसी पार्टी विशेष की आलोचना में कुछ लिखें तो हमें या तो ट्रोलिंग का सामना करना पड़ता है या फिर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स हमारे उस पोस्ट को ही हटा देता है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि अकबरपुर लोकसभा क्षेत्र का नाम लेने में उन्हें संकोच होता है। वे जीतेंगे तो इसे बदल देंगे। इस बयान ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि कब जगहों का नाम बदलना वोट मांगने का आधार बन गया? कब शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे मुद्दों की बजाए धर्म वोट मांगने का आधार बन गया?

मेरी माँ पिछले कुछ समय से अक्सर यह हिदायत देती रहती है कि अभी समय ठीक नहीं और किसी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर किसी के खिलाफ़ कुछ पोस्ट मत करना। आखिर कब लोगों ने सरकार से डरना शुरू कर दिया? आखिर कब सरकार ने संवैधानिक मूल्यों को दरकिनार करते हुए यह तय करना शुरू कर दिया कि कौन किससे शादी करेगा, कौन क्या खाएगा और कौन क्या पहनेगा? आखिर कब सत्ता की दमनकारी नीतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठानेवालों को राष्ट्रद्रोही करार दिया जाने लगा और झूठे मुकदमों में फँसाकर उन्हें जेल में भेजा जाने लगा? आखिर कब नेताओं द्वारा सम्प्रदायवाद को राष्ट्रवाद का जामा पहनाकर आम जनता को भड़काया जाने लगा? आखिर कब नफ़रती, स्त्रीद्वेषी टिप्पणियां सामान्य हो गईं और ऐसा बहुत कुछ सामान्य हो गया है,जो पहले सामान्य नहीं था। यह सब संवैधानिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है?

धार्मिक पहचान को लेकर असुरक्षा का भाव

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी।

हालिया सालों में मैं यह भी देख रही हूं कि नेताओं द्वारा मुस्लिम समुदाय को निशाना साधकर दिए जानेवाले नफ़रती भाषण बहुत बढ़ गए हैं जिसकी वजह से मुसलमानों के प्रति नफ़रत और पूर्वाग्रह बढ़ा है। इसका नतीजा यह हुआ है कि मैं अपनी धार्मिक पहचान को लेकर सतर्क हो गई हूं। यात्राओं के दौरान मैं कोशिश करती हूं कि ट्रेन में मेरी धार्मिक पहचान उजागर न हो। मैं सोचती हूं कि ट्रेन में टीटीई जब टिकट की जाँच करने आए तो वो मेरा नाम ज़ोर से न बोले। मैं आमतौर पर अकेले ही यात्रा करती हूं और ऐसी यात्राएं मैं पिछले दस सालों से करती आ रही हूं। पहले मुझे अपने महिला होने के नाते असुरक्षा महसूस होती थी। लेकिन, अब उस असुरक्षा में मेरी ‘धार्मिक पहचान’ का पहलू भी जुड़ गया है। कितने निष्पक्ष और स्वतंत्र रह गए हैं? चुनाव का समय चल रहा है। अलग-अलग पार्टियों के नेता कानपुर आकर जनसभा को संबोधित कर रहे हैं और उनसे वोट की अपील कर रहे हैं।

इसी कड़ी में अखबार में पढ़ा कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि अकबरपुर लोकसभा क्षेत्र का नाम लेने में उन्हें संकोच होता है। वे जीतेंगे तो इसे बदल देंगे। इस बयान ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि कब जगहों का नाम बदलना वोट मांगने का आधार बन गया? कब शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे मुद्दों की बजाए धर्म वोट मांगने का आधार बन गया? मुझे ये भी लगता है कि चुनावों में अब एक पार्टी विशेष का ही वर्चस्व रहता है, उसके पास ही पैसा है। अख़बार से लेकर टीवी न्यूज़ चैनल्स तक उसी के पक्ष में हैं। न तो अब चुनाव निष्पक्ष रह गए हैं और न ही चुनावों के होने मात्र से यह माना जा सकता है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सब कुछ सही चल रहा। चुनावों के ठीक पहले विपक्षी पार्टी आम आदमी पार्टी के नेताओं की गिरफ़्तारी, देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बैंक खाते फ़्रीज़ किया जाना, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के नए नियम लागू करते हुए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, विपक्षी पार्टी के नेताओं द्वारा संदेहास्पद स्थिति में अपने नाम वापस ले लेना आदि यह सब दर्शाता है कि अब चुनाव निष्पक्ष नहीं रह गए हैं।

वोट की चोट है ज़रूरी

तस्वीर साभारः फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बनर्जी।

वर्तमान में लोकतंत्र और लोकसभा चुनाव पर बोलते हुए भोपाल में रहनेवाली अफ़साना कहती हैं, “वर्तमान में चुनावों में जिस तरह से सब कुछ चल रहा है, ‘लोकतंत्र’ तो रह नहीं गया है और ऐसे में इस व्यवस्था पर बहुत विश्वास भी नहीं रह गया है। लेकिन फिर भी लगता है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव होगा तो चीजें ठीक हो जाएगी। इसलिए जरूरी है वोट तो देना ही चाहिए।” आगे उन्होंने चुनावों में महिलाओं की भागीदारी की स्थिति पर चिंता जताते हुए कहा कि महिलाएं अपनी सोच के आधार पर वोट नहीं देती हैं। वे परिवार के पुरुष सदस्य किसको वोट दे रहे हैं, उस आधार पर वोट देती हैं। वे अपने बच्चों और घर के कामों में इतना व्यस्त हो जाती हैं कि उनमें वो राजनीतिक चेतना भी विकसित नहीं हो पाती कि अपनी स्थितियों को देखते हुए उपयुक्त उम्मीदवार को वोट दे सकें। इस बारे में उन्हें शिक्षित किया जाना ज़रूरी है कि वे इसमें स्वतंत्र भागीदारी कर सकें।

लोकतंत्र में हो सबकी भागीदारी

वर्तमान में लोकतंत्र और चुनावों की स्थिति पर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विषय से परास्नातक का कोर्स कर रही निशा (बदला हुआ नाम) अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। उनका कहना है, “भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों पर कोई फोकस नहीं किया जा रहा है, सरकार खुद एक खास किस्म के राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रही है। लोकतंत्र में किसी भी समुदाय के सदस्य को भागीदारी का अधिकार होता है लेकिन वैसा हो नहीं रहा है। चुनावों में अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व नहीं है और मुस्लिम महिलाओं का तो और भी कम है। इसके बाद अगर वोटिंग की बात करें तो उसमें भी मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। ख़ासतौर पर मैं सरकार के रवैये से बहुत हतोत्साहित होती हूँ, साथ ही मेरे समुदाय की महिलाओं में वोटिंग के महत्त्व को लेकर जागरूकता का जो अभाव है, वह भी मुझे निराश करता है।”

वर्तमान में चुनावों में जिस तरह से सब कुछ चल रहा है, ‘लोकतंत्र’ तो रह नहीं गया है और ऐसे में इस व्यवस्था पर बहुत विश्वास भी नहीं रह गया है, लेकिन फिर भी लगता है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव होगा तो चीजें ठीक हो जाएगी तो इसलिए जरूरी है वोट तो देना ही चाहिए।

देश की मौजूदा स्तिथि को देखते हुए कुल मिलाकर मैं कह सकती हूँ कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था खतरे में है और इसे यहां के नागरिक ही बचा सकते हैं। एक नागरिक के तौर पर हम अपने वोट को अपनी ताकत कैसे बना सकते हैं और संवैधानिक मूल्यों को ध्वस्त होने से कैसे रोका जा सकता है यह हम सबके लिए सोचने की बात है। यह ज़रूरी है कि हम एक जागरूक नागरिक बनें। न केवल खुद के जीवन और अधिकार के बारे में सोचे बल्कि अपने सहनागरिकों के अधिकारों के बारे में भी उतने ही सजग रहे। सरकार की नीतियों और उनके क्रियाकलापों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना सीखें क्योंकि लोकतंत्र की सच्ची ताकत इसी में निहित है।


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