बिहार की रहने वाली आशा वर्कर प्रमिला बताती हैं, “शुरूआती दिनों में यह काम करना बेहद मुश्किल था। मेरे घर में कमाने वाला कोई नहीं था और घर की जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी। तब मैं आशा से जुड़ने के फैसला लिया। मुझे गांव के मुखिया ने सुझाव दिया था कि मैं आशा में काम कर सकती हूं। इसमें 12 दिन की ट्रेंनिग कराई गई थी। घर-परिवार के लोगों ने मेरे इस काम का विरोध किया। उनका मानना था कि घर की औरत काम नहीं करेगी। लेकिन मैंने इस काम को किया ताकि मैं अपने परिवार और अपना भरण-पोषण कर सकूं।” हमारे देश में आशा वर्कर्स भारत की विशेषकर ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ मानी जाती हैं। इन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत नियुक्त किया जाता है और खास प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि ये अपने समुदाय के लोगों को स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी दें।
प्राथमिक उपचार उपलब्ध कराएं और उन्हें सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ें। आमतौर पर ये महिलाएं 25 से 45 वर्ष की उम्र के बीच की होती हैं। ये महिलाएं अपने ही गाँव या मोहल्ले से आती हैं और कम से कम आठवीं या दसवीं तक पढ़ी-लिखी होती हैं। एक आशा वर्कर लगभग 1,000 लोगों की आबादी के लिए जिम्मेदार होती है, जबकि पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में यह अनुपात बदल सकता है। इनके काम में गर्भवती महिलाओं को संस्थागत प्रसव के लिए प्रेरित करना, बच्चों का टीकाकरण, पोषण और स्वच्छता के प्रति जागरूक करना, परिवार नियोजन को बढ़ावा देना और छोटी-मोटी दवाएं और स्वास्थ्य सामग्री उपलब्ध कराना शामिल है। दिसंबर 2023 तक देश में लगभग 9.83 लाख आशा वर्कर तैनात थीं, जो लक्षित 10.35 लाख के बेहद करीब है।
शुरूआती दिनों में यह काम करना बेहद मुश्किल था। मेरे घर में कमाने वाला कोई नहीं था और घर की जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी। तब मैं आशा से जुड़ने के फैसला लिया।
आशा वर्कर्स को क्यों नहीं मिल रहा उचित दर्जा
ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी संख्या करीब 9.2 लाख और शहरी इलाकों में लगभग 79,900 है। नैशनल हेल्थ मिशन के 2020 के आंकड़ों के अनुसार बिहार राज्य में 89437 महिलाएं आशा वर्कर्स के तौर पर काम कर रही थीं। वहीं बिहार सरकार के चिकित्सा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, वर्तमान में राज्य में 93000 महिलाएं आशा कार्यकर्त्ताओं के रूप में काम कर रही हैं। इन्हें ‘स्वयंसेवक’ माना जाता है, इसलिए इनका भुगतान वेतन के रूप में नहीं बल्कि कार्य-आधारित प्रोत्साहन के रूप में किया जाता है, जो राज्य के हिसाब से अलग-अलग और कई बार विलंबित भी होता है। लंबे समय से आशा वर्कर नियमित वेतन, पेंशन, छुट्टी और सामाजिक सुरक्षा जैसी सुविधाओं की मांग कर रही हैं। हाल ही में केंद्र सरकार ने इनके मासिक फिक्स्ड इंसेंटिव को बढ़ाकर ₹3,500 कर दिया है और 10 साल से अधिक सेवा करने वालों के लिए सेवानिवृत्ति लाभ को ₹20,000 से बढ़ाकर ₹50,000 कर दिया है। इसके अलावा कई राज्यों में इन्हें नई ट्रेनिंग देकर मानसिक स्वास्थ्य, बुजुर्ग देखभाल, टीबी सर्वेक्षण और अन्य सामुदायिक स्वास्थ्य अभियानों में भी जोड़ा जा रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आशा वर्कर्स की भूमिका को वैश्विक स्तर पर मान्यता देते हुए 2022 में भारत की लगभग 10.4 लाख आशा वर्कर्स को ग्लोबल हेल्थ लीडर्स के सम्मान से नवाजा था। यह मान्यता न सिर्फ उनके योगदान का प्रमाण है, बल्कि इस बात का भी संकेत है कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़ी ये महिलाएं, देश के करोड़ों लोगों के जीवन में बदलाव लाने की ताकत रखती हैं। आशा वर्कर्स का काम एक तरह से आशाओं से शुरू होती है। गांव की गलियों से लेकर शहर की बस्तियों तक, गुलाबी साड़ी पहने ये महिलाएं लोगों के लिए भरोसे का नाम हैं। ये टीकाकरण की तारीख बताती हैं, गर्भवती महिलाओं का हाल जानती हैं और बच्चों के पोषण पर ध्यान देती हैं। किसी के बीमार होने पर सबसे पहले इन्हीं को बुलाया जाता है। कई बार ये रात में भी प्रसव के लिए अस्पताल तक जाती हैं, धूप या बारिश में दवाइयां पहुंचाती हैं और घर-घर जाकर जांच करती हैं। लेकिन यह काम आसान नहीं है।
ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी संख्या करीब 9.2 लाख और शहरी इलाकों में लगभग 79,900 है। नैशनल हेल्थ मिशन के 2020 के आंकड़ों के अनुसार बिहार राज्य में 89437 महिलाएं आशा वर्कर्स के तौर पर काम कर रही थीं। बिहार सरकार के चिकित्सा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, वर्तमान में राज्य में 93000 महिलाएं आशा कार्यकर्त्ताओं के रूप में काम कर रही हैं।
न पक्की नौकरी, न स्थायी वेतन
कम पैसों में और बिना तय वेतन के, ये महिलाएं बड़ी जिम्मेदारी निभाती हैं। भारत में ज्यादातर आशा वर्कर गरीब और साधारण परिवारों से तालुक्क रखती हैं। ये महिलाएं ज़्यादातर गांव या छोटे कस्बों में रहती हैं। कई बार इनकी पढ़ाई सिर्फ प्राथमिक या मिडिल स्कूल तक ही होती है, लेकिन अपने इलाके के लोगों की मदद करने की इच्छा या आर्थिक जरूरत इन्हें इस काम की तरफ लाती है। अधिकतर आशा वर्करों के परिवार खेती, मजदूरी या छोटे-मोटे काम करके गुजर-बसर करते हैं। घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने की वजह से ये काम उनके लिए कमाई का भी जरिया बन जाता है। इनमें से बहुत सी महिलाएं दलित, पिछड़े वर्ग या अल्पसंख्यक समुदाय से होती हैं। मुश्किल हालात और कम साधनों के बावजूद ये अपने गांव और मोहल्ले में लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ने और बीमारियों से बचाव के बारे में जागरूक करने का काम करती हैं।
प्रमिला बताती हैं, “गाँव की महिलाओं और बच्चों का स्वास्थ्य मेरी पहली ज़िम्मेदारी है। मेरा काम सिर्फ टीकाकरण या दवा देना नहीं है, बल्कि हर उस चीज़ के लिए लोगों को जागरूक करना है जो उनके स्वास्थ्य से जुड़ी है। शुरुआत में मेरा ज़्यादातर ध्यान बच्चों के टीकाकरण और गर्भवती महिलाओं के रजिस्ट्रेशन पर होता था। उन्हें समय पर सरकारी अस्पताल भेजना, उनके खान-पान और साफ-सफाई के बारे में समझाना, स्तनपान की अहमियत बताना और नवजात शिशु की देखभाल कैसे करें ये सब मेरी रोज़ की ज़िम्मेदारियां थीं। समय के साथ इन ज़िम्मेदारियों में काफी बदलाव आया है। पहले जहां सिर्फ कुछ बीमारियों पर काम होता था, अब डेंगू, मलेरिया, टीबी, नसबंदी और कोविड महामारी जैसे बड़े अभियान में भी हमें शामिल किया जाता है। पहले सिर्फ पेन और कागज़ होता था, अब डिजिटल ऐप पर काम करना पड़ता है। कई बार मोबाइल की नेटवर्क या तकनीकी दिक्कतें काम को और भी मुश्किल बना देती हैं। काम की मात्रा बढ़ी है, लेकिन हमारा दर्जा अब भी वही है, न पक्की नौकरी, न स्थायी वेतन। इसके बावजूद हम गाँव-गाँव जाकर हर घर तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि हमें पता है कि अगर हम रुक गए, तो सबसे ज़्यादा नुकसान उन महिलाओं और बच्चों को होगा जिनकी हम देखभाल करते हैं।”
जब हमसे सरकारी कर्मचारी जैसे दायित्व निभवाए जाते हैं, तो अधिकारों में यह भेदभाव क्यों? हमारी मांग सिर्फ़ इंसाफ की है, न कि कोई विशेषाधिकार की। अब वक़्त आ गया है कि सरकारें सिर्फ़ वादे न करें, बल्कि ज़मीनी स्तर पर हमारी मेहनत को पहचानें और स्थायी समाधान लेकर आएं।
नियमित वेतन और समय पर भुगतान की कमी
आशा वर्कर्स लंबे समय तक फील्ड में काम करने, धूप-बारिश में घर-घर जाने और रात में भी इमरजेंसी में मदद करने के बावजूद उनका मेहनताना बहुत कम है। वहीं उनपर काम का बोझ भी बढ़ रहा है। आशा वर्कर्स को गर्भवती महिलाओं का पंजीकरण, बच्चों का टीकाकरण, पोषण निगरानी, बीमार मरीजों को अस्पताल तक पहुंचाना, सरकारी योजनाओं की जानकारी देना ये सब करना पड़ता है। कई बार एक ही दिन में कई गांव या मोहल्लों में जाना पड़ता है, लेकिन यात्रा भत्ता या अन्य सुविधाएं नहीं मिलतीं। उनके सुरक्षा और सम्मान की कमी भी पायी गयी है। फील्ड में काम करते समय उन्हें कभी-कभी लोगों के ताने, असहयोग या बदसलूकी का सामना करना पड़ता है। कोविड महामारी जैसी आपात स्थितियों में भी उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर काम किया, लेकिन उनके योगदान को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। इन सभी कारणों से आशा वर्कर आर्थिक असुरक्षा, शारीरिक थकान और मानसिक तनाव से जूझती रहती हैं।

वेतन समय से न मिलने पर प्रमिला बताती हैं, “पैसे समय से न मिलने पर हमारी रोज़ाना की ज़िदगी काफ़ी प्रभावित होती है। डिलवरी चार्ज के हमें 300 रूपये मिलते है तथा टिका लगाने के कुछ रूपये मिलते है। हमारे काम का कोई समय तय नहीं है और हमें बिना किसी छुट्टी के काम करना पड़ता है। इसके आलावा घर का काम भी करना पड़ता है, दोहरी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। हर मौसस की मार झेलते हुए हम दिन-रात काम करते है। छुट्टी का छोड़िए हमें सिर्फ वेतन भी समय से मिल जाएं तो हमारे लिए बहुत बड़ी बात है। हम अपने अधिकार के लिए समय-समय पर एकजुट होकर आंदोलन करते है लेकिन हमेशा हमारी बातों को दबा दिया जाता या अनसुना कर दिया जाता है। ऐसा लगता है कि हम सरकार के कर्मचारी ही न हो।” बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव नज़दीक हैं। इसे लेकर वह कहती हैं, “ऐसे में मेरी सबसे बड़ी उम्मीद यही है कि इस बार की चुनावी बहसों और वादों में आशा वर्करों की आवाज़ भी शामिल हो। वर्षों से हम जमीनी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ बनकर काम कर रहे हैं। हम हर मोर्चे पर डटी रहीं। फिर भी हमारा काम ‘स्वेच्छा सेवा’ कहलाता है, जिससे न तो हमें सम्मानजनक वेतन मिलता है, न स्थायित्व।”
गाँव की महिलाओं और बच्चों का स्वास्थ्य मेरी पहली ज़िम्मेदारी है। मेरा काम सिर्फ टीकाकरण या दवा देना नहीं है, बल्कि हर उस चीज़ के लिए लोगों को जागरूक करना है जो उनके स्वास्थ्य से जुड़ी है। शुरुआत में मेरा ज़्यादातर ध्यान बच्चों के टीकाकरण और गर्भवती महिलाओं के रजिस्ट्रेशन पर होता था।
आखिरकार आशा वर्कर हर हाल में सेवा का संकल्प क्यों लेती है

वह कहती हैं, “इस बार की चुनावी रैली, घोषणापत्र और वादों में हम आशा वर्कर यह सुनना चाहती हैं कि सरकार हमारा वेतन नियमित और पर्याप्त करेगी, हमें समान अधिकार देगी और हमें सरकारी कर्मचारी का दर्जा प्रदान किया जाएगा। जब हमसे सरकारी कर्मचारी जैसे दायित्व निभवाए जाते हैं, तो अधिकारों में यह भेदभाव क्यों? हमारी मांग सिर्फ़ इंसाफ की है, न कि कोई विशेषाधिकार की। अब वक़्त आ गया है कि सरकारें सिर्फ़ वादे न करें, बल्कि ज़मीनी स्तर पर हमारी मेहनत को पहचानें और स्थायी समाधान लेकर आएं। चुनावी वक़्त में हर कोई जनता की बात करता है—इस बार आशा वर्करों की भी आवाज़ सुनी जाए। यही हमारी अंतिम और दृढ़ मांग है।” आशा वर्कर भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था की जमीनी कड़ी है। उन्होंने गांव-गांव और बस्तियों में जाकर टीकाकरण, गर्भवती महिलाओं की देखभाल, बच्चों के पोषण और बीमारियों के रोकथाम में अहम भूमिका निभाई है। महामारी, आपदा या आपात स्थिति, हर जगह उन्होंने बिना रूके सेवा दी है।
लेकिन उनके योगदान के बावजूद उन्हें नियमित वेतन, सामाजिक सुरक्षा और पर्याप्त सुविधाएं नहीं मिलतीं। स्वेच्छा सेवा के नाम पर कम मेहनताना, समय पर भुगतान न होना और काम का अत्यधिक बोझ उनकी सबसे बड़ी चुनौतियां हैं। सुरक्षा, सम्मान और प्रशिक्षण की कमी भी उनके काम को और मुश्किल बना देती है। इसके बावजूद, वे अपने समुदाय की सेहत सुधारने में लगातार जुटी रहती हैं। अब समय आ गया है कि सरकार और समाज उनके काम को सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पेशा मानकर उचित वेतन, स्थायित्व और सुविधाएं दे। आशा वर्कर्स को मजबूत बनाना मतलब भारत की जमीनी स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करना है क्योंकि इनकी मजबूती ही हर गांव और मोहल्ले की सेहत की गारंटी है।

