संस्कृतिसिनेमा ‘गार्गी’: रिश्तों और समाज के बीच न्याय के लिए संघर्ष करती महिला की कहानी

‘गार्गी’: रिश्तों और समाज के बीच न्याय के लिए संघर्ष करती महिला की कहानी

गौतम रामचंद्रन की साल 2022 की तमिल फिल्म ‘गार्गी’ सिर्फ़ यौन हिंसा की हकीकत को नहीं दिखाती, बल्कि उस महिला की मानसिक और भावनात्मक कठिनाइयों को भी सामने लाती है, जिसे अपने ही पिता के खिलाफ खड़ा होना पड़ता है।

भारतीय फिल्मों में बहुत कम ही ऐसा होता है। जब किसी महिला के भीतर चल रहे दर्द और संघर्ष को सच्चाई और हिम्मत के साथ दिखाया जाए, जैसा कि गौतम रामचंद्रन की साल 2022 की तमिल फिल्म गार्गी में दिखाया गया है। यह फिल्म सिर्फ़ यौन हिंसा की हकीकत को नहीं दिखाती, बल्कि उस महिला की मानसिक और भावनात्मक कठिनाइयों को भी सामने लाती है, जिसे अपने ही पिता के खिलाफ खड़ा होना पड़ता है। फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि गार्गी को किसी भी पल ‘नायिका’ नहीं बनाया जाता। वह कई बार उलझन में रहती है, टूटती है, गुस्सा करती है, शक करती है।  लेकिन यह सब दिखाने में निर्देशक कोई जल्दबाजी नहीं करते। गार्गी पहले अपने  पिता का बचाव करती है, जिन्होनें उसे हर कठिन समय में सहारा दिया और यही बात गार्गी को खास बनाती है। फिल्म में उसे पूरी सच्चाई और गहराई के साथ दिखाया गया है। वह न सिर्फ़ “सर्वाइवर” है और न ही कोई “वीरांगना”, बल्कि वह एक समझदार और संघर्ष करने वाली महिला है, जो आखिर में रिश्तों से ज़्यादा न्याय को महत्व देती है।

रिश्तों और न्याय के बीच गार्गी की लड़ाई

तस्वीर साभार : Chennai Online

फिल्म की मुख्य किरदार गार्गी एक शिक्षिका है। जब उसे पता चलता है कि उसके पिता, एक नौ साल की बच्ची के सामूहिक बलात्कार के आरोपियों में से एक हैं। अब उसके सामने एक कठिन सवाल आता  है, क्या वह अपने पिता के अपराध पर चुप रहे? या वह सामाजिक रिश्तों से ऊपर उठकर न्याय की मांग करे? पितृसत्ता एक ऐसी रूढ़िवादी व्यवस्था है जो महिलाओं को चुप रहने, माफ़ करने, और सबकुछ सहन करने वाली बनाए रखती है। लेकिन वह इस चुप्पी को तोड़ती है और अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाती है। भारतीय समाज में यौन हिंसा केवल एक अपराध नहीं है। यह सत्ता, पितृसत्ता और चुप्पी का मिला – जुला  त्रिकोणीय गठजोड़ है।

गौतम रामचंद्रन की साल 2022 की तमिल फिल्म ‘गार्गी’ सिर्फ़ यौन हिंसा की हकीकत को नहीं दिखाती, बल्कि उस महिला की मानसिक और भावनात्मक कठिनाइयों को भी सामने लाती है, जिसे अपने ही पिता के खिलाफ खड़ा होना पड़ता है।

भारत में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में दिन – प्रतिदिन बढ़ौतरी देखी जा सकती है। द हिन्दू में छपी साल 2021 की राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी ) की रिपोर्ट के अनुसार,  देश में औसतन हर दिन 86 से अधिक बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं। यह सिर्फ़ आंकड़े नहीं हैं, बल्कि उस समाज की असफलता को दिखाता है, जहां हर लड़की को अपने आस-पास के लोगों पर भी संदेह करना सिखाया जाता है। चाहे वह पिता, भाई, शिक्षक या पड़ोसी ही क्यों न हों। यह फिल्म सोचने पर मजबूर करती है कि अगर अपराधी आपका खुद का पिता हो, तो आप क्या करेंगे? क्या नारीवाद का अर्थ सिर्फ़ बाहर के लोगों से लड़ना है, या घर में छिपे अपराधी को भी पहचान कर उसके खिलाफ खड़े होकर आवाज़ उठाना ज़रूरी है?

न्याय व्यवस्था की कमियां और संवैधानिक आदर्श

तस्वीर साभार : Movie Crow

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 39-A कहता है कि हर नागरिक को निशुल्क या मुफ़्त न्याय सहायता उपलब्ध कराई जाएगी। लेकिन जब गार्गी को अपने पिता के पक्ष में वकील चाहिए होता है, तब कोई उसका केस नहीं लेना चाहता है, यहां तक कि सरकारी वकील भी औपचारिकता मात्र निभाते हैं। यह साफ़ तौर पर दिखाता है कि गरीब, या हाशिये पर खड़ी महिलाओं को न्याय व्यवस्था में आज भी प्राथमिकता नहीं मिलती है। फिल्म में वकील इंद्रन को दिखाया गया है, जिन्हें बोलने में दिक़्क़त है या थोड़ा रुक- रुक बोलते हैं। शुरुआत में उसे यह केस लड़ने में हिचकिचाहट महसूस होती है। 

जब गार्गी को अपने पिता के पक्ष में वकील चाहिए होता है, तब कोई उसका केस नहीं लेना चाहता है, यहां तक कि सरकारी वकील भी औपचारिकता मात्र निभाते हैं। यह साफ़ तौर पर दिखाता है कि गरीब, या हाशिये पर खड़ी महिलाओं को न्याय व्यवस्था में आज भी प्राथमिकता नहीं मिलती है।

इससे यह दिखता है कि न्याय की चाह उन लोगों के साथ जुड़ी है, जिनकी आवाज़ अक्सर दबा दी जाती है। इस लड़ाई की असली ताकत उसकी बोलने की क्षमता नहीं, बल्कि उसका साहस है। जो यह दिखाता है कि न्याय हर एक इंसान का अधिकार हैफिल्म में एक ट्रांस महिला जज को दिखाया गया है। उनका जेंडर के आधार पर बहुत मज़ाक मज़ाक भी उड़ाया जाता है, वह जवाब देती हैं, “मैं इस केस के लिए सबसे उपयुक्त हूं क्योंकि मैं पुरुषों के अहंकार और महिलाओं के दर्द को जानती हूं,” यह संवाद सिर्फ उनकी यौनिक पहचान को स्वीकार करना नहीं है, बल्कि यह दिखाता है कि न्याय देने के लिए अनुभव और समझ बहुत जरूरी है किसी का जेंडर नहीं।

महिलाओं  के प्रति अपराध और परिवारों पर प्रभाव

तस्वीर साभार : Chennai Online

एक बलात्कार सिर्फ़ उस लड़की पर हमला नहीं होता, बल्कि पूरे परिवार और समाज पर असर करता है। फिल्म में यह बहुत ही संवेदनशील तरीके से दिखाया गया है, जब सर्वाइवर के पिता कहते हैं, “इतना दर्द सहने से अच्छा है कि वह मर जाती।” यह बताता है कि एक पुरुष, जिसने अपने परिवार की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाई, अब उस सिस्टम से हार चुका है जिसे उसने खुद बनाया था। अब उसे लगता है कि इस सिस्टम से न्याय की कोई उम्मीद नहीं है, और इस वजह से उसकी बेटी के लिए मौत एक राहत की तरह लगती है।यह वाक्य उस सामाजिक नज़रिए को उजागर करता है जो यह मानकर चलता है कि यौन हिंसा के बाद किसी लड़की की ज़िंदगी खत्म हो जाती है।

बलात्कार सिर्फ़ उस लड़की पर हमला नहीं होता, बल्कि पूरे परिवार और समाज पर असर करता है। फिल्म में यह बहुत ही संवेदनशील तरीके से दिखाया गया है, जब सर्वाइवर के पिता कहते हैं, “इतना दर्द सहने से अच्छा है कि वह मर जाती।”

उसकी  पहचान को सिर्फ उसकी इज्ज़त तक सीमित कर दिया जाता है।  समाज को लगता है कि उसकी ज़िन्दगी का कोई मूल्य ही  नहीं बचा है । यह सोच बिल्कुल गलत और महिलाओं के खिलाफ है। गार्गी के लिए सबसे कठिन समय तब आता है, जब उसे अपने ही पिता के विरुद्ध खड़ा होना पड़ता है। बचपन में पिता ने कहा था, “अगर कोई तुम्हें गलत तरीके से छुए तो अपने पापा को याद करना, हिम्मत आ जाएगी,”  और अब वही पिता बलात्कारी साबित होते हैं। गार्गी की यह लड़ाई हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हममें यह साहस है, कि हम अपनों को भी कठघरे में खड़ा कर सकें जब उन्होंने किसी के साथ अन्याय किया हो। यह फिल्म आज के समय की सबसे जरूरी नारीवादी फिल्म है, जो चुप नहीं रहती बल्कि सवाल पूछने पर मजबूर करती है।

दुख, साहस और न्याय का मिलन

तस्वीर साभार : India Today

बहुत-सी फिल्में यौन हिंसा को दिखाने के नाम पर उसे विज़ुअल वॉयुरिज़्म में बदल देती हैं। यानी किसी की पीड़ा या निजी चीज़ को सिर्फ देखने के लिए दिखाना, ताकि लोग उसका मज़ा लें, न कि उसके दर्द को समझें। लेकिन इस फिल्म में उसकी पीड़ा को गहराई से दिखाया गया है इसलिए यह दर्शकों  के मन में गहरी छाप छोड़ती है। यह फिल्म केवल एक केस की कहानी नहीं हैं। बल्कि, यह एक महिला दर्शक को आत्मपरीक्षण यानी खुद को जांचने के लिए मजबूर करती है। यह हमें सिखाती है कि नारीवाद महज़ सोशल मीडिया का विमर्श नहीं है, यह घर के भीतर सत्ता के सवाल उठाने का साहस भी है। फिल्म की सबसे खास बात यह है कि गार्गी अंत में  खुद को किसी की बेटी और बहन के रूप में नहीं देखती, बल्कि खुद को एक आत्मनिर्भर और न्याय का पक्ष लेने वाली महिला के रूप में देखना शुरू करती है। वह उस चुप रहने वाली महिला की छवि को तोड़ती है, जो अब तक सिनेमा और समाज में दिखाई जाती रही है। फिल्म के आखिर में जब गार्गी अदालत में अपने पिता को दोषी ठहराते हुए सुनती है, तो उसकी आंखो में राहत के आंसू होते हैं। यही वह पल है जब एक महिला अपने अंदर के सारे भावों दुख, शर्म, साहस और न्याय सबको एक साथ स्वीकार करती है। 

फिल्म की सबसे खास बात यह है कि गार्गी अंत में  खुद को किसी की बेटी और बहन के रूप में नहीं देखती, बल्कि खुद को एक आत्मनिर्भर और न्याय का पक्ष लेने वाली महिला के रूप में देखना शुरू करती है। वह उस चुप रहने वाली महिला की छवि को तोड़ती है, जो अब तक सिनेमा और समाज में दिखाई जाती रही है।

यह फिल्म यौन हिंसा को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं दिखाती, यह काबिले तारीफ़ है। लेकिन साथ ही कुछ सवाल भी खड़े होते हैं।  जब आप सर्वाइवर को थोड़ा छिपा देते हैं, तो क्या यह उसकी सुरक्षा कर रहे हैं या उसकी कहानी उससे छीन रहे हैं? हो सकता है जवाब आसान न हो, लेकिन सवाल पूछना ज़रूरी है। फिल्म में सारा फोकस गार्गी की भावनात्मक यात्रा, उसके कानूनी संघर्ष और पिता के प्रति विश्वास के टूटने पर है। लेकिन सर्वाइवर की असली भावनाएं जैसे शर्म, डर और उलझन बैकग्राउंड में धुंधली रह जाती हैं। हम यह मान सकते हैं कि निर्देशक ने जान बूझकर यह दूरी बनाए रखी ताकि बच्ची को और उसकी पीड़ा को दिखाने में कोई असंवेदनशीलता न आ जाए। लेकिन यही दूरी हमें उस असहज सच्चाई से भी अलग कर देती है, जो यौन हिंसा के अनुभव का असली केंद्र होती है। इसलिए यह फिल्म जितनी सराहनीय है, उतनी ही जटिल भी और शायद यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि और सबसे बड़ी सीमा दोनों बन जाती है।

तस्वीर साभार : Full On Cinema

फिल्म ‘गार्गी’ सिर्फ़ यौन हिंसा की घटना दिखाने वाली फिल्म नहीं है। यह एक महिला की अंदरूनी लड़ाई, भावनात्मक संघर्ष और न्याय की तलाश की कहानी है। गार्गी साहसी और संघर्ष करने वाली महिला के रूप में सामने आती है, जो रिश्तों और न्याय के बीच मुश्किल चुनाव करती है। फिल्म समाज में पितृसत्ता, चुप्पी और सत्ता के गलत गठजोड़ को दिखाती है और सवाल उठाती है कि नारीवाद सिर्फ़ बाहर की लड़ाई तक सीमित नहीं है। घर के अंदर छिपे अन्याय को पहचानना और उसके खिलाफ खड़े होना भी नारीवाद का हिस्सा है। साथ ही यह फिल्म न्याय व्यवस्था की कमजोरियों, महिलाओं के खिलाफ अपराधों के समाज पर असर और परिवारों पर पड़ने वाले भावनात्मक दबाव को बहुत संवेदनशील तरीके से दिखाती है। यही कारण है कि यह फिल्म आधुनिक भारतीय सिनेमा की सबसे जरूरी, प्रभावशाली और नारीवादी फिल्मों में से एक मानी जा सकती है। जो एक हम सब के लिए एक सवाल छोड़ती है कि क्या हम भी गार्गी की तरह सच का साथ देंगे, जब सच हमारे अपने लोगों के खिलाफ होगा?

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