भारत में देवदासी प्रथा लंबे समय से एक गंभीर सामाजिक समस्या रही है, जिसने गरीब और दलित परिवारों की महिलाओं को पीढ़ी दर पीढ़ी शोषण, यौन हिंसा और सामाजिक बहिष्कार में धकेल दिया। जिस कारण उन्हें और उनके बच्चों को समाज में पहचान और सम्मान नहीं मिल पाया। हाल ही में पारित कर्नाटक देवदासी (रोकथाम, निषेध, राहत और पुनर्वास) अधिनियम साल 2025 ने इस प्रथा के खिलाफ संघर्ष को और तेज़ कर दिया है। इस विधेयक का मुख्य उद्देश्य पीढ़ी दर पीढ़ी शोषित देवदासियों और उनके बच्चों को मान्यता, न्याय, पुनर्वास और संस्थागत सहायता प्रदान करना है।यह कानून सिर्फ सज़ा देकर देवदासी प्रथा को खत्म करने की कोशिश नहीं करता, बल्कि शोषित और शोषण करने वाले, दोनों की पहचान करके, लोगों को जागरूक कर सबको इस प्रथा से मुक्त करने का प्रयास करता है। यह मानता है कि जब तक गरीबों को रोजगार और सहारा नहीं मिलेगा, तब तक यह बुरी प्रथा रोकने के बाद भी खत्म नहीं होगी और कमजोर लोग फिर से शोषण का शिकार हो सकते हैं।
सबसे अहम बात यह है कि यह कानून समुदाय को मदद पाने वाला नहीं, बल्कि हकदार मानता है और उन्हें मिलकर अपने अधिकारों के लिए खड़े होने की ताकत देता है। मानवाधिकार समूहों के अंतर्गत इस विधेयक की इसके प्रगतिशील पहलू के लिए सराहना की जा रही है। हालांकि, इसके व्यापक निषेध और परिभाषा संबंधी व्यापकता कर्नाटक के जोगप्पा समुदाय के लिए कानूनी परेशानी पैदा कर सकते हैं। यह विधेयक इन समर्पण प्रथाओं को खत्म करते हुए, सिस-नॉर्मेटिविटी यानी पारंपरिक लिंग मानकों को मजबूत करता है और लैंगिक विविधता वाले जोगप्पा समुदाय के लिए संभावित कानूनी समस्या पैदा कर सकता है । इसका नतीजा उनकी संस्कृति को नुकसान और लैंगिक विविधता के अधिकारों का हनन है।
यह विधेयक इन समर्पण प्रथाओं को खत्म करते हुए, सिस-नॉर्मेटिविटी यानी पारंपरिक लिंग मानकों को मजबूत करता है और लैंगिक विविधता वाले जोगप्पा समुदाय के लिए संभावित कानूनी समस्या पैदा कर सकता है ।
क्यों चर्चा में है यह विधेयक ?

इस कानून का उद्देश्य ही इसे खास बनाता है। इसके अनुसार, यह समाज को जागरूक करेगा और देवदासी महिलाओं को शोषण से बचाएगा। साथ ही यह भी सुनिश्चित करता है कि देवदासी महिलाओं के बच्चे बच्चे पैतृक पहचान, उत्तराधिकार और भरण-पोषण का दावा कर सकें। राज्य उनके पुनर्वास की पूरी व्यवस्था करेगा और देवदासी प्रथा को पूरी तरह खत्म करने के कदम उठाएगा। द लिफ़लेट पत्रिका के मुताबिक, विधेयक की भाषा, अपने वर्तमान स्वरूप में, समर्पण और उससे जुड़ी सांस्कृतिक प्रथाओं को अपराध घोषित करती है। हालांकि ये प्रथाएं देवदासियों के लिए शोषणकारी हैं, लेकिन फिर भी कुछ प्रथाएं, जैसे (येल्लम्मा को समर्पण और मुत्थु बांधना) , जोगप्पा समुदाय की पहचान और उनके लैंगिक अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सामाजिक और मानवविज्ञान के विशेषज्ञ कहते हैं, कि अगर जोगप्पा समुदाय को उनकी परंपरागत प्रथाओं से अलग किया गया, तो उनकी पहचान और जीवन शैली खत्म हो जाएगी।
जहां कुछ प्रथाओं में जेंडर के आधार पर भेदभाव होता है और उन्हें गलत माना जाता है, वहीं जोगप्पा की अनुष्ठानिक या धार्मिक प्रथाएं उनके समुदाय को जोड़ती हैं और उनकी परंपरा बनाए रखती हैं। येल्लम्मा के प्रति समर्पण के इर्द-गिर्द संगठित उनका समुदाय, सामूहिक एकजुटता और जुड़ाव में के माध्यम से आत्म-निर्माण का एक ढांचा प्रदान करता है। इसलिए, जोगप्पा समुदाय प्रणाली के महत्व को समझना ज़रूरी है। जिसने ऐतिहासिक रूप से लैंगिक विविध अभिव्यक्तियों को मान्यता देने के लिए एक स्थान प्रदान किया है।
सामाजिक और मानवविज्ञान के विशेषज्ञ कहते हैं, कि अगर जोगप्पा समुदाय को उनकी परंपरागत प्रथाओं से अलग किया गया, तो उनकी पहचान और जीवन शैली खत्म हो जाएगी।
जोगप्पा समुदाय पर अधिनियम का प्रभाव

विधेयक के कड़े नियम समर्पण के हर काम को शोषणकारी प्रथा के रूप में देखते हैं । अगर जोगप्पा की परंपरा को खास तौर पर अलग नहीं किया गया, तो इसे अपराध माना जा सकता है। धारा (44) के तहत इसके लिए निर्धारित दंड दो साल से कम नहीं है, बल्कि इसे पांच साल की अवधि तक भी बढ़ाया जा सकता है और कम से कम एक लाख रुपये के लिए जुर्माने का भी प्रावधान है । यह अधिनियम जोगप्पा समुदाय के लिए सांस्कृतिक अस्तित्व और लैंगिक-अभिव्यक्ति के एक तरीके को एक अपराध में बदल देता है।
यहां यह समझना जरूरी है कि कभी-कभी ऐसा कानून जो लोगों को सुरक्षा देता है, वही दूसरी तरफ दबाव भी बना सकता है। इससे भारत में लैंगिक विविधता के संवैधानिक अधिकार कमजोर हो सकते हैं। इसका नतीजा संरक्षण नहीं बल्कि मिटाना है। यानी, यह कानून अनजाने में स्थानीय परंपराओं और अनुष्ठानों पर पुराने रूढ़िवादी नियमों की तरह प्रभाव डालता है और सिर्फ सरवाईबर और शोषण के एक ही पक्ष पर ध्यान देता है। यह कानून उन लोगों के अलग-अलग अनुभवों को नहीं पहचानता जो इतिहास में समर्पण को अलग तरह से अनुभव कर चुके हैं। कुछ के लिए यह शोषण था (देवदासी प्रथा), तो कुछ के लिए यह आध्यात्मिक और लैंगिक पहचान का तरीका था (जोगप्पा परंपरा)। इसलिए, अगर कानून की भाषा में सुधार नहीं किया गया, तो जोगप्पा समुदाय को अपराधी मान लिया जा सकता है।
अगर जोगप्पा की परंपरा को खास तौर पर अलग नहीं किया गया, तो इसे अपराध माना जा सकता है। धारा (44) के तहत इसके लिए निर्धारित दंड दो साल से कम नहीं है, बल्कि इसे पांच साल की अवधि तक भी बढ़ाया जा सकता है और कम से कम एक लाख रुपये के लिए जुर्माने का भी प्रावधान है
देवदासी के बच्चों को अपने जैविक पिता से उत्तराधिकार का अधिकार
यह विधेयक देवदासी प्रथा से पैदा हुए बच्चों के लिए जैविक पिता को कानूनी रूप से जवाबदेह बताता है। इसमें यह प्रावधान किया गया है कि उनके बच्चों को अपनी माँ और पिता की संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार मिलेगा। देवदासी प्रथा में बच्चे पैदा होने के समय माताओं की सहमति और संसाधन अक्सर कम होते हैं। इसलिए बच्चों को अपने पिता की संपत्ति का हक मिलना चाहिए, जो उनके जीवन को बेहतर बनाएगा और परिवार की गरिमा भी लौटाएगा। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है ये बच्चे एक सामाजिक प्रथा के तहत पैदा होते हैं, जिसमें पुरुषों के साथ संबंध को देवता के साथ विवाह जैसा माना जाता है। इसलिए इन बच्चों के लिए उनके पिता को जिम्मेदार ठहराना ज़रूरी है ।
देवदासी परिवार के सम्मान का अधिकार

विधेयक के प्रधान के अनुसार देवदासी से जन्मे किसी भी बच्चे के साथ इस आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा कि उसका पिता अज्ञात है। राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि देवदासी के किसी भी बच्चे को शिक्षा, स्वास्थ्य और पहचान पत्र जैसे लाइसेंस, पासपोर्ट, पैन कार्ड, राशन कार्ड आदि जैसे प्रमुख सार्वजनिक लाभों के लिए आवेदन करते समय अपने पिता का नाम घोषित करने के लिए बाध्य न किया जाए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि किसी भी आवेदन को जमा करने के लिए पिता के नाम का विवरण अनिवार्य नहीं है, सभी स्तरों पर प्रशासनिक सुधार किए जाएंगे।
राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि देवदासी के किसी भी बच्चे को शिक्षा, स्वास्थ्य और पहचान पत्र जैसे लाइसेंस, पासपोर्ट, पैन कार्ड, राशन कार्ड आदि जैसे प्रमुख सार्वजनिक लाभों के लिए आवेदन करते समय अपने पिता का नाम घोषित करने के लिए बाध्य न किया जाए।
देवदासी परिवार को स्वास्थ्य सेवा का अधिकार
राज्य हर देवदासी महिला के अच्छे स्वास्थ्य और देखभाल के अधिकार की रक्षा करेगा। हर देवदासी परिवार को राज्य की तरफ से मुफ्त स्वास्थ्य जांच मिलेगी। इसमें आम बीमारियों जैसे दिल और फेफड़े की समस्या, खून की कमी (एनीमिया) और हाशिये पर रहने व सेक्स वर्क से जुड़ी बीमारियां जैसे यौन संचारित रोग की जांच शामिल होगी। इसके साथ ही राज्य जरूरत पड़ने पर मुफ्त इलाज, दवाइयां और पोषण सहायता भी देगा।
नाबालिग लड़कियों का समर्पण और शोषण

कर्नाटक में देवदासी प्रथा को खत्म करने के लिए पहले भी कानून बनाए जा चुके हैं। उदाहरण के लिए, मद्रास देवदासी (समर्पण निवारण) अधिनियम, साल 1982 में कर्नाटक देवदासी (समर्पण निषेध) अधिनियम,और साल 2009 में इसका संशोधन। समय के साथ इसके तौर-तरीकों में बदलाव आया, लेकिन इसमें हिंसा और शोषण की भावना बनी रही, ताकि यह कानून के दायरे में अपराध न लगे। इससे साफ पता चलता है कि सिर्फ कानून बनाना काफी नहीं है, जब तक समाज इस प्रथा को पूरी तरह अस्वीकार नहीं करता। देवदासी का अर्थ है ईश्वर की महिला सेवक। देवदासी प्रथा के नाम पर छोटी लड़कियों को मंदिर में सौंप दिया जाता है। इस प्रथा में नाबालिग लड़कियों को देवदासी बनाने के लिए किसी भी मंदिर में देवता से उसकी शादी करवा दी जाती है। इसके बाद लड़की अपना पूरा जीवन मंदिर के काम और हिंसा का सामना करते हुए बिताती हैं। देवदासियों से मंदिर और उसके अधिकारियों के सामने नाचने-गाने का काम भी कराया जाता है। इस दौरान देवदासी लड़कियों और महिलाओं को यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है।
हर देवदासी परिवार को राज्य की तरफ से मुफ्त स्वास्थ्य जांच मिलेगी। इसमें आम बीमारियों जैसे दिल और फेफड़े की समस्या, खून की कमी (एनीमिया) और हाशिये पर रहने व सेक्स वर्क से जुड़ी बीमारियां जैसे यौन संचारित रोग और वायरल रोग की जांच शामिल होगी।
जोगप्पा समर्पण की सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियां

इसी तरह जोगप्पा भी दक्षिण भारत, विशेष रूप से कर्नाटक के आसपास, लिंग विविधता वाले पुरुषों और लड़कों का एक समूह है, जिन्हें महिला देवदासियों की तरह देवी येल्लम्मा की सेवा में दीक्षित किया जाता है। उनके समर्पण में एक अनुष्ठान शामिल होता है जिसमें वे अपने गले में माला बांधते हैं और देवी को समर्पित होते हैं। जोगप्पा समुदाय लिंग विविधता को व्यक्त करने और सामाजिक निरंतरता बनाए रखने के लिए एक सांस्कृतिक ढांचा प्रदान करता है। इस प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा देवी येल्लम्मा को समर्पित होना होता है। यह समर्पण उनका व्यक्तिगत निर्णय होता है और कई बार परिवार भी इसकी अनुमति देता है। जोगप्पा के लिंग परिवर्तन में विशिष्ट रूप से अनुष्ठानिक बधियाकरण या सर्जरी का निषेध होता है।
साथ ही, जोगप्पा समुदाय सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वे लोकगीत गाने, नृत्य करने और देवी के उत्सवों में भाग लेने के लिए जाने जाते हैं। इस समुदाय को कई जगहों पर सम्मानित नजरों से देखा जाता है और लोग इनसे आशीर्वाद लेने आते हैं। हालांकि, आधुनिक समय में ये आर्थिक कठिनाइयों, सामाजिक भेदभाव और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। इसलिए उनके पुनर्वास, शिक्षा और आजीविका के अवसरों को बढ़ावा देने के लिए विशेष योजनाओं को बढ़ावा देने की ज़रूरत है।

