वाराणसी की तंग गलियों और गांव के छोटे-छोटे आंगनों में महिलाएं हर सुबह अपने हाथों में रुद्राक्ष के मनके उठाती हैं। यही उनका काम है और इसी से उनका घर चलता है। आस्था का प्रतीक रुद्राक्ष उनके लिए रोज़ी-रोटी का साधन बन चुका है। सूरज निकलने से पहले ही वे अपने घर के आंगन में बैठ जाती हैं। सामने रखे छोटे-छोटे मनके और बगल में सूत की पतली डोर। उंगलियां लगातार चलती रहती हैं। कोई 108 मनके गूंथती है, तो कोई 54। हर माला के साथ उनके धैर्य और मेहनत की छाप जुड़ी होती है। उनका काम पूजा की तरह शांत और साधना जैसा गहरा है। पर इस मेहनत के पीछे एक कठिनाई भी छिपी है—लंबे घंटों तक काम करने के बाद भी उन्हें बहुत कम मेहनताना मिलता है। यही उनकी रोज़मर्रा की सबसे बड़ी चुनौती है।
बनारस के पास मड़ौली और लखनपुर गांव रुद्राक्ष की मालाओं के लिए जाने जाते हैं। यहां बड़ी संख्या में महिलाएं मालाएं गूंथने का काम करती हैं। इन मालाओं को देशभर के मंदिरों और धार्मिक स्थलों पर बेचा जाता है। लेकिन इस काम से जुड़ी महिलाओं की ज़िंदगी बेहद कठिन है। एक माला बनाने पर उन्हें सिर्फ 10 से 15 रुपये मिलते हैं। कई बार ठेकेदार समय पर पैसे भी नहीं देते। इसके बावजूद महिलाएं यह काम छोड़ नहीं पातीं, क्योंकि यही उनके परिवार का मुख्य सहारा है। दिन भर घर का काम, बच्चों की देखभाल और फिर रात तक मालाएं गूंथना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। लगातार झुककर और छोटे-छोटे मोतियों में धागा पिरोने से उनकी आंखों पर दबाव पड़ता है और शरीर दर्द से भर जाता है। फिर भी काम रुकता नहीं, क्योंकि हर अधूरी माला का मतलब है अगले दिन खाने की चिंता।
हमारा पूरा गांव सौ साल से यही काम कर रहा है। पर किसी की हालत नहीं बदली। पैसा बिचौलियों की जेब में जाता है। वे बड़ी-बड़ी कोठियां बना रहे हैं। हम तो कभी दो वक्त की रोटी तक जुटा पाने में असफल रहते हैं। नौ छोटी माला बनाकर मुश्किल से 175-185 रुपये मिलते हैं।
रुद्राक्ष बनाती महिलाओं का श्रम और गरीबी
मड़ौली गांव की महिलाएं रुद्राक्ष की मालाएं बनाकर अपनी आजीविका चलाती हैं। इन मालाओं को लोग भक्ति और साधना का प्रतीक मानते हैं, लेकिन इन्हें बनाने वाली महिलाओं का जीवन अब भी कठिनाइयों से घिरा है। वे धागे में रुद्राक्ष पिरोते हुए रोज़मर्रा की ज़रूरतों और संघर्षों से जूझती रहती हैं। हैरानी की बात है कि जिन मालाओं को शिव को चढ़ाया जाता है, वही मालाएं बनाने वाली महिलाओं के जीवन में स्थिरता और बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंच पातीं। 45 साल की आशा देवी कहती हैं, “रुद्राक्ष में छेद करना इतना बारीक काम है कि आंखें खराब हो जाती हैं। कई औरतें तो अंधी तक हो गईं। लेकिन इलाज कौन कराए? यहां तो चश्मा खरीदने तक के पैसे नहीं होते।”

गांव की महिला तारा देवी कहती हैं, “हमारा पूरा गांव सौ साल से यही काम कर रहा है। पर किसी की हालत नहीं बदली। पैसा बिचौलियों की जेब में जाता है। वे बड़ी-बड़ी कोठियां बना रहे हैं। हम तो कभी दो वक्त की रोटी तक जुटा पाने में असफल रहते हैं। नौ छोटी माला बनाकर मुश्किल से 175-185 रुपये मिलते हैं। इसमें छेद करने का काम भी शामिल होता है। कभी-कभी तो भूखे पेट सोना पड़ता है। शिव के नाम पर माला गूथते-गूथते हमारे ही घर अंधेरे में डूबे रहते हैं।”
सिर्फ़ एक से डेढ़ रुपये मेहनताने के लिए संघर्ष करती महिलाएं
मड़ौली गांव की गलियों में सुबह-सुबह आंगन में महिलाएं, उनके पास बिखरे रुद्राक्ष के दाने और थके हुए हाथों में सुई-धागा दिखना आम है। रुद्राक्ष बनाने का काम करती श्रमिक रेनू बताती हैं, “बीस साल हो गए। यही काम करते-करते ज़िंदगी बीत गई। सोचा था बच्चे पढ़ेंगे-लिखेंगे, कुछ और करेंगे। पर गरीबी ने उन्हें भी इसी दलदल में धकेल दिया।” एक पूरी माला गूथने में घंटों लगते हैं, लेकिन मेहनताना-सिर्फ़ एक से डेढ़ रुपये। मीरा देवी, जिनकी उम्र अब 55 के पार है, अपने छिल चुके हाथ दिखाकर कहती हैं, “धागा खींचते-खींचते उंगलियों में गांठें पड़ गई हैं। कभी सोचा था बुढ़ापे में आराम करेंगे, पर यहां तो जवान बेटे-बेटियां भी उसी जगह फंसे हुए हैं। हमारी पीढ़ियां खत्म हो जाएंगी, पर यह गरीबी खत्म नहीं होगी।” असंगठित क्षेत्र में महिलाएं सदियों से श्रमिक के तौर पर कभी बिना मेहनताना या कभी मामूली वेतन के काम कर रही हैं। लेकिन, सरकारी और गैर सरकारी मुहिमों के बावजूद स्थिति में मूलभूत सुधार नहीं आया है।
बीस साल हो गए। यही काम करते-करते ज़िंदगी बीत गई। सोचा था बच्चे पढ़ेंगे-लिखेंगे, कुछ और करेंगे। पर गरीबी ने उन्हें भी इसी दलदल में धकेल दिया।
शहर की दुकानों में हर समय इन मालाओं की मांग बनी रहती है। दुकानदारों को इससे अच्छा मुनाफ़ा होता है। बबिता, जिनके पति के पास काम नहीं है और तीन बच्चे हैं, कहती हैं, “अच्छा होता अगर हमें भी मालाएं सीधे बेचने का मौका मिलता, बिना किसी बिचौलिये के। काश सरकार या समाज हमारी मेहनत को पहचानता। मेरी चाहत है कि मेरे बच्चे पढ़ें-लिखें और इस काम पर निर्भर न रहें।” इन महिलाओं की मेहनत को बाज़ार की व्यवस्था पूरा मूल्य नहीं लौटा पाती। मड़ौली और आस-पास की महिलाएं जहां एक माला के बदले मुश्किल से एक रुपये पाती हैं, वहीं वही माला बाजार में पांच सौ से हजार रुपये तक बिकती है। लक्ष्मणपुर गांव की उर्मिला देवी कहती हैं, “कभी दो दिन काम मिलता है, तो चार दिन खाली बैठना पड़ता है। ऐसे में हमें उधार लेकर घर का चूल्हा जलाना पड़ता है। मैं माला गूंथने का काम करती हूं। एक दर्जन माला बनाने पर सिर्फ 12 रुपये मिलते हैं। एक दिन में मुश्किल से दो या तीन दर्जन बना पाती हूं। इतनी मेहनत से दिनभर में जो कमाई होती है उससे क्या गुजर-बसर हो सकता है। कई बार आंखें दर्द करने लगती हैं, फिर भी बैठकर काम करना पड़ता है। अगर रुद्राक्ष की डोर अधूरी रह गई तो हमारे बच्चों का पेट अधूरा रह जाएगा।”
मजबूरी में काम कर रहीं महिलाएं

वहीं लक्ष्मनपुर की इंद्रावती देवी बताती हैं, “मैं हर हफ्ते एक दिन तीन किलोमीटर दूर से यहां आती हूं। यहां से माल लेकर जाती हूं और माला गूंथकर वापस पहुंचाती हूं। हमारे तीन बेटियां और दो बेटे हैं। बड़ा बेटा शादीशुदा है। बेटों को कहीं मजदूरी का काम मिल जाता है तो वही कर लेते हैं, वरना वे भी माला गूंथने में हाथ बंटाते हैं। यह काम इतना आसान नहीं है। दिन-रात बैठकर आंख गड़ाकर धागे में मनके पिरोना पड़ता है। कमाई इतनी कम होती है कि बच्चों की पढ़ाई तक मुश्किल हो जाती है। मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चों को यह काम न करना पड़े। लेकिन फिलहाल यही सहारा है। हम तो जैसे-तैसे गुज़र कर रहे हैं।” इस गांव की कई महिलाएं रोज़ गुज़ारे के लिए माला गूंथने का काम करती हैं। सभी महिलाओं की एक जैसी चिंता है। वे जानती हैं कि कमाई कम है, पर वे चाहती हैं कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर इस काम से आगे बढ़ें।
कभी दो दिन काम मिलता है, तो चार दिन खाली बैठना पड़ता है। ऐसे में हमें उधार लेकर घर का चूल्हा जलाना पड़ता है। मैं माला गूंथने का काम करती हूं। एक दर्जन माला बनाने पर सिर्फ 12 रुपये मिलते हैं। एक दिन में मुश्किल से दो या तीन दर्जन बना पाती हूं।
मड़ौली की 28 साल की पूजा अपने पति और दो बच्चों के साथ मिलकर माला गूंथने का काम करती हैं। उनके पति वायरिंग का काम करते हैं, लेकिन आमदनी कम होने के कारण पूरा परिवार रोज़ करीब पचास माला तैयार करता है। पूजा चाहती हैं कि बच्चे केवल पढ़ाई करें, लेकिन हालात ऐसे हैं कि उन्हें भी छोटे-छोटे काम में मदद करनी पड़ती है। काजल का परिवार भी माला बनाने पर निर्भर है। वह रोज़ पांच दर्जन तक माला तैयार करती हैं और पंद्रह-बीस दिन में ठेकेदार को देती हैं। बरसात के दिनों में गांव की हालत और कठिन हो जाती है। गलियों में पानी भर जाता है और पीने के पानी की अलग परेशानी होती है। काजल कहती हैं कि काम और जरूरतों के बीच उनकी जिंदगी बस गुज़ारे तक सीमित रह गई है।

मड़ौली की 42 वर्षीय इंदू कई सालों से रुद्राक्ष की मालाएं बना रही हैं। वह बताती हैं कि पहले काम का माहौल थोड़ा बेहतर था, व्यापारी समय से पैसे भी दे देते थे और मनके भी उपलब्ध कराते थे। अब हालात बदल गए हैं। मज़दूरी वही है, लेकिन खर्चे बढ़ गए हैं। मशीनों से काम होने लगा है, जिससे आंखों पर ज़्यादा दबाव पड़ता है और बिजली का खर्च भी उन्हें ही उठाना पड़ता है। इंदू कहती हैं कि इलाज कराने तक के पैसे नहीं बचते। वहीं, बिचौलियों के कारण भी उन्हें लगातार नुकसान उठाना पड़ता है। भीगे हुए रुद्राक्ष देकर उनका वज़न बढ़ा दिया जाता है और बाद में वही पैसा मजदूरों से वसूला जाता है। दाना टूट जाने पर भी भरपाई उन्हीं से करवाई जाती है। इन सब मुश्किलों के बावजूद महिलाएं यह काम जारी रखती हैं, क्योंकि यही उनके परिवार की रोज़ी-रोटी का सहारा है।
यह काम इतना आसान नहीं है। दिन-रात बैठकर आंख गड़ाकर धागे में मनके पिरोना पड़ता है। कमाई इतनी कम होती है कि बच्चों की पढ़ाई तक मुश्किल हो जाती है। मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चों को यह काम न करना पड़े। लेकिन फिलहाल यही सहारा है। हम तो जैसे-तैसे गुज़र कर रहे हैं।
रुद्राक्ष का केंद्र होते हुए भी पीछे छूटती महिलाएं
66 साल की विधवा मुन्नी देवी अब कमजोर हो चुकी हैं। वह कहती हैं कि अब हाथ और आंखें पहले जैसे काम नहीं करते, और आमदनी इतनी कम है कि रोज़ खर्च चलाना मुश्किल हो जाता है। वहीं, मंजू बताती हैं, “महाकुंभ में जहां व्यापारी मालाओं को ऊंचे दामों पर बेचते हैं, वहीं हमें मेहनताना वही पुराना मिलता है। दिन-रात काम करने के बाद भी रोज़ की कमाई 20–25 रुपये से ज्यादा नहीं होती।” बनारस के मड़ौली और लखनपुर गांव आज रुद्राक्ष के काम के लिए दुनिया भर में पहचाने जाते हैं। यहां सिर्फ मालाएं ही नहीं, बल्कि मुकुट, बाजूबंद, ब्रेसलेट, जैकेट और टोपी भी तैयार होकर देश-विदेश भेजी जाती हैं।

करीब सौ साल पहले नेपाल और इंडोनेशिया से आए रुद्राक्ष को यहां के कारीगरों ने अपनी मेहनत और हुनर से नई पहचान दी। स्थानीय कारोबारी बाबूलाल बताते हैं, “हमारा परिवार चार पीढ़ियों से इस काम में जुड़ा है। हर साल करीब 70 टन रुद्राक्ष का कारोबार यहां से होता है। माला बनाने की प्रक्रिया काफी मेहनत भरी है। दानों को आकार और वजन के हिसाब से छांटा जाता है, फिर गिना और छेदा जाता है, उसके बाद धागे या धातु की तार में पिरोया जाता है। इस दौरान कई बार मंत्रोच्चारण भी किया जाता है। विदेशी पर्यटकों की पहली पसंद यही मालाएं होती हैं। गांव में संसाधन और सुविधाएं कम हैं, लेकिन कारीगरों की कला ने इन्हें वैश्विक पहचान दिलाई है।”
हमारा परिवार चार पीढ़ियों से इस काम में जुड़ा है। हर साल करीब 70 टन रुद्राक्ष का कारोबार यहां से होता है। माला बनाने की प्रक्रिया काफी मेहनत भरी है। दानों को आकार और वजन के हिसाब से छांटा जाता है, फिर गिना और छेदा जाता है, उसके बाद धागे या धातु की तार में पिरोया जाता है।
तकनीक और ई-कॉमर्स से तेजी से बढ़ता रुद्राक्ष उद्योग
रुद्राक्ष उद्योग अब नई तकनीक और ई-कॉमर्स की मदद से तेजी से बढ़ रहा है। पहले जहां कारीगर हाथ से मनके छेदकर मालाएं बनाते थे, अब एक्स-रे, सीटी स्कैन और माइक्रोस्कोप जैसी आधुनिक तकनीक से असली और नकली की पहचान आसान हो गई है। ऑनलाइन सर्टिफिकेशन और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म ने मड़ौली और लखनपुर के कारीगरों को देश-विदेश तक पहचान दिलाई है। हालांकि उन्हें प्रशिक्षण और सरकारी सहयोग की कमी का सामना करना पड़ता है। बनारस में पीढ़ियों से महिलाएं रुद्राक्ष की माला गूंथती आ रही हैं, लेकिन आज तक उन्हें असंगठित श्रमिक के रूप में भी मान्यता नहीं मिली। न तो उनका श्रम विभाग में पंजीकरण है और न ही किसी योजना का लाभ। धार्मिक महत्व के कारण रुद्राक्ष की हमेशा मांग रहती है और बाजार में मालाएं हज़ारों रुपये तक बिकती हैं, लेकिन गूंथने वाली महिलाओं की मज़दूरी अक्सर सौ रुपये से भी कम रहती है। उनकी मेहनत का असली फायदा व्यापारी और बिचौलिये उठाते हैं।
बनारस की सामाजिक कार्यकर्ता श्रुति नागवंशी कहती हैं, “महिला सशक्तिकरण की बात तब पूरी होगी जब रुद्राक्ष की माला गूंथने वाली इन महिलाओं के श्रम को भी उचित मान्यता और पारिश्रमिक मिले। वे सिर्फ रोज़गार नहीं करतीं, आस्था को भी जीवित रखती हैं। लेकिन उनकी ज़िंदगी आज भी अभाव से घिरी है। हमें सोचना होगा कि क्या शिव की नगरी में शिव की आराधना करने वाली इन स्त्रियों को बेहतर जीवन नहीं मिलना चाहिए?” असंगठित क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी 90 फीसद से ज्यादा है, फिर भी ई-श्रम जैसी योजनाओं में इन महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। यह दिखाता है कि सरकारी नीतियां अभी तक उनके जीवन तक नहीं पहुंची हैं। इन महिलाओं की कठिनाई सिर्फ आर्थिक नहीं, सामाजिक भी है। कम उम्र से ही उन्हें घर-गृहस्थी के साथ माला गूंथने के काम में लगा दिया जाता है। पढ़ाई छूट जाती है और उनका सिमट जाता है। ज़रूरत है कि इस काम को केवल धार्मिक परंपरा के रूप में न देखा जाए, बल्कि इसे महिलाओं के श्रम अधिकारों से जोड़ा जाए। सरकार और समाज को चाहिए कि उनका श्रम पंजीकृत हो, उन्हें न्यूनतम मज़दूरी मिले और उनके काम को स्वयं सहायता समूहों या सहकारी समितियों के ज़रिए संगठित किया जाए। इससे उनकी आजीविका सुरक्षित होगी और यह परंपरागत कला भी टिकाऊ रूप से आगे बढ़ सकेगी।

