आम तौर पर कैंसर का नाम सुनते ही ज़्यादातर लोगों के मन में डर, दर्द और निराशा की भावना आती है। लेकिन कैंसर से लड़ने वालों की असली कहानी सिर्फ़ इलाज तक सीमित नहीं होती। कैंसर सर्वाइवरशिप का मतलब है बीमारी से उबरने के बाद भी जीवन को नए सिरे से जीना, और उस सफर में आने वाली चुनौतियों को पहचानना। कैंसर से लड़ना सिर्फ़ शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक संघर्ष भी है। बहुत सी महिलाएं बीमारी से जूझने के साथ-साथ समाज की असंवेदनशीलता और भेदभाव से भी लड़ती हैं। ‘सर्वाइवरशिप’ का मतलब केवल कैंसर के इलाज के बाद ज़िंदगी का जारी रहना नहीं है। यह पूरी प्रक्रिया को बताता है जिसमें शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक पहलुएं शामिल हैं। अमेरिका की सोशल मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर डॉ. डी. स्किनर के अनुसार, “सर्वाइवरशिप केवल एक चिकित्सकीय शब्द नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान भी है।”
यह पहचान समाज में मौजूद लिंग, वर्ग और नैतिक अपेक्षाओं से बनती है। भारतीय समाज में यह और भी जटिल हो जाता है। यहां अक्सर ‘ज़िंदा रहना’ ही जीत मान लिया जाता है। लेकिन यह नहीं सोचा जाता कि वह व्यक्ति कैसे जी रहा है। ख़ासकर वे महिलाएं जो बीमारी के बाद शरीर में बदलाव, दर्द या अन्य समस्याओं से जूझती हैं। समाज उनके शरीर को अब ‘सामान्य’ नहीं मानता, और यह सोच उन्हें और भी अकेला कर देती है। नारीवादी दृष्टिकोण से देखें तो सर्वाइवरशिप सिर्फ़ शारीरिक नहीं, बल्कि गहराई से लैंगिक भी है। यह इस बात से जुड़ा है कि समाज शरीर, उत्पादकता और सुंदरता को कैसे देखता है। इसलिए, जब हम सर्वाइवरशिप की बात करते हैं, तो हमें यह भी समझना चाहिए कि किसे देखभाल मिलती है, किसकी ज़रूरतों को अनदेखा किया जाता है, और किसका जीवन ‘जीने योग्य’ माना जाता है।
अमेरिका की सोशल मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर डॉ. डी. स्किनर के अनुसार, “सर्वाइवरशिप केवल एक चिकित्सकीय शब्द नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान भी है।” यह पहचान समाज में मौजूद लिंग, वर्ग और नैतिक अपेक्षाओं से बनती है।
कैंसर सर्वाइवरशिप की समझ क्यों है जरूरी
कैंसर में डॉक्टरों की नज़र में जब इलाज पूरा हो जाता है, तभी सर्वाइवरशिप यानी उत्तरजीविता की शुरुआत होती है। लेकिन असल ज़िंदगी में यह सफर बहुत लंबा और मुश्किल होता है। मरीज को थकान, चिंता, डर, नींद की समस्या, यौन जीवन में बदलाव और समाज में दोबारा खुद को ढालने जैसी कई चुनौतियों से गुजरना पड़ता है। भारत में कैंसर से जुड़ी सामाजिक और सांस्कृतिक जटिलताएं इसे और कठिन बना देती हैं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के अनुसार, साल 2023 में भारत में 14 लाख से ज़्यादा नए कैंसर के मामले सामने आए। इतनी बड़ी संख्या के बावजूद हमारे देश में संगठित सर्वाइवरशिप प्रोग्राम या सहायता प्रणाली बहुत कम हैं। विदेशों में जैसे अमेरिका या यूरोप में कैंसर सर्वाइवर्स के लिए विशेष क्लीनिक और मानसिक स्वास्थ्य सहायता मिलती है, वैसी व्यवस्था भारत में नहीं है।
यहां इलाज के बाद ध्यान सिर्फ यह देखने पर रहता है कि बीमारी दोबारा न लौटे। मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक पुनर्वास या प्रजनन स्वास्थ्य को अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है। साल 2023 की लैंसेट रिपोर्ट ऑन वुमेन, पावर एंड कैंसर बताती है कि कैंसर उपचार और शोध के क्षेत्र में भी गहरी लैंगिक असमानता है। महिलाएं अब भी नीति निर्माण और नेतृत्व की भूमिकाओं से दूर रखी जाती हैं। इस वजह से महिलाओं से जुड़े मुद्दे जैसे शरीर की छवि में बदलाव, बांझपन, यौन स्वास्थ्य या भावनात्मक तनाव को चिकित्सा प्रणाली में पर्याप्त जगह नहीं मिलती। भारत में यह असमानता और गहरी है क्योंकि हमारा समाज पहले से ही पितृसत्तात्मक ढांचे पर आधारित है। ऐसे में महिलाओं के अनुभव और ज़रूरतें कैंसर देखभाल या नीति में कम दिखाई देती हैं।
साल 2023 की लैंसेट रिपोर्ट ऑन वुमेन, पावर एंड कैंसर बताती है कि कैंसर उपचार और शोध के क्षेत्र में भी गहरी लैंगिक असमानता है। महिलाएं अब भी नीति निर्माण और नेतृत्व की भूमिकाओं से दूर रखी जाती हैं।
हर साल दुनिया भर में लगभग 23 लाख महिलाओं की कैंसर से समय से पहले मौत हो जाती है। द लैंसेट की रिपोर्ट बताती है कि इनमें से करीब 15 लाख मौतें रोकी जा सकती हैं, अगर बीमारी की पहचान शुरू में हो जाए या समय पर इलाज मिल सके। वहीं 8 लाख महिलाओं की जान बचाई जा सकती है अगर उन्हें बेहतर और समान स्वास्थ्य सेवाएं मिलें। यह आंकड़े दिखाते हैं कि कैंसर से बचना सिर्फ इलाज तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें रोकथाम, समय पर जांच, सही इलाज और इलाज के बाद पुनर्वास सब शामिल हैं। अगर महिलाओं को नियमित जांच, परामर्श और फॉलो-अप सेवाएं मिलें, तो उनकी मृत्यु दर घटेगी और जीवन की गुणवत्ता बेहतर होगी। इसलिए, कैंसर सर्वाइवर्शिप को सिर्फ बीमारी से लौटना नहीं, बल्कि फिर से पूर्ण जीवन की ओर बढ़ना समझना चाहिए। इसमें समाज, नीति-निर्माता और अस्पतालों की साझा जिम्मेदारी है कि वे महिलाओं को इलाज के साथ-साथ उनके सामाजिक और आर्थिक जीवन में फिर से स्थापित होने में मदद करें।
वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के डॉक्टर मार्क चेम्बरलेन ने अपने ब्रेन कैंसर के मरीजों में एक खास बात देखी। पुरुष मरीज अक्सर अपनी पत्नियों के साथ इलाज के लिए आते थे, जो उन्हें भावनात्मक और शारीरिक सहारा देती थीं। लेकिन महिला मरीजों में से ज्यादातर अकेली होती थीं। कई मामलों में, बीमारी का पता चलने के बाद पति ने उन्हें छोड़ दिया या तलाक दे दिया। कई शोध बताते हैं कि गंभीर बीमारी के बाद महिलाओं के छोड़े जाने की संभावना पुरुषों की तुलना में छह गुना अधिक होती है। यह दिखाता है कि हमारे समाज में देखभाल को अभी भी महिला का कर्तव्य माना जाता है, उसका अधिकार नहीं। केइन, जब महिला बीमार पड़ती है, तो यह सामाजिक और भावनात्मक जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। इस तरह, कैंसर से जूझना सिर्फ शरीर की नहीं, बल्कि रिश्तों और असमानताओं से भी लड़ाई है।
हर साल दुनिया भर में लगभग 23 लाख महिलाओं की कैंसर से समय से पहले मौत हो जाती है। द लैंसेट की रिपोर्ट बताती है कि इनमें से करीब 15 लाख मौतें रोकी जा सकती हैं, अगर बीमारी की पहचान शुरू में हो जाए या समय पर इलाज मिल सके।
भारत में कैंसर इलाज की व्यवस्था अब भी बहुत हद तक जैव-चिकित्सीय और पितृसत्तात्मक सोच पर आधारित है। इलाज सिर्फ शरीर पर केंद्रित होता है, मरीज की भावनाओं या सामाजिक जरूरतों पर नहीं। इंडियन जर्नल ऑफ कैंसर के अनुसार, ज़्यादातर डॉक्टर इलाज में तकनीकी रूप से तो कुशल हैं, लेकिन उन्हें मनोवैज्ञानिक या लैंगिक संवेदनशीलता की कोई खास ट्रेनिंग नहीं दी जाती। कई बार महिलाओं की शिकायतें जैसे लगातार थकान, दर्द, या अवसाद को डॉक्टर गंभीरता से नहीं लेते और टाल देते हैं। महिला मरीजों के इलाज के बाद की विशेष ज़रूरतों जैसे प्रजनन से जुड़ी सलाह यौन स्वास्थ्य या उनके भावनात्मक स्वास्थ्य पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। द ईकानमिस्ट टाइम्स में प्रकाशित रिपोर्ट में टाटा मेमोरियल अस्पताल के डॉ. राजेंद्र अच्युत बदवे बताते हैं कि भारत में कैंसर से उबरने वालों के लिए बनाए गए अधिकांश प्रोग्राम शहरी और अमीर वर्ग तक सीमित हैं। ग्रामीण इलाकों, दलित-आदिवासी समुदायों और ट्रांसजेंडर लोगों की इसमें लगभग कोई भागीदारी नहीं है।
सर्वाइवरशिप में भी गहरी असमानता दिखती है। भारत में ज़्यादातर इलाज खुद के खर्चे पर होता है, जिससे गरीब और हाशिए के समुदायों की पहुंच सीमित रहती है। साथ ही, सामाजिक कलंक भी बड़ा कारण है। कई बार परिवार महिलाओं को बीमारी छिपाने के लिए कहते हैं ताकि उनकी शादी या इज़्ज़त पर असर न पड़े। एक विशेषज्ञ के अनुसार, “हम जीवित रहने को तो महत्व देते हैं, पर जीवित व्यक्ति की गुणवत्ता को नहीं।” यही कारण है कि भारत के राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम में सर्वाइवरशिप का ज़िक्र तो है, लेकिन उसके लिए न कोई ठोस योजना है, न बजट। यह कमी दिखाती है कि पितृसत्तात्मक ढांचा अब भी तय करता है कि कौन-सा जीवन ‘जीने लायक’ माना जाए और किसके जीवन को ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाए।
डियन जर्नल ऑफ कैंसर के अनुसार, ज़्यादातर डॉक्टर इलाज में तकनीकी रूप से तो कुशल हैं, लेकिन उन्हें मनोवैज्ञानिक या लैंगिक संवेदनशीलता की कोई खास ट्रेनिंग नहीं दी जाती। कई बार महिलाओं की शिकायतें जैसे लगातार थकान, दर्द, या अवसाद को डॉक्टर गंभीरता से नहीं लेते और टाल देते हैं।
कैंसर जैसी बीमारियों में नारीवादी दृष्टिकोण की अहमियत
कैंसर से बचना सिर्फ़ बीमारी से लड़ना नहीं है, बल्कि यह आत्मसम्मान और पहचान को फिर से परिभाषित करने की प्रक्रिया भी है। सर्वाइवरशिप कई बार प्रतिरोध और आत्म-स्वीकृति का रूप ले लेता है। ऑड्रे लॉर्डे की किताब द कैंसर जर्नल्स इसका एक उदाहरण है। उन्होंने आर्टफिशल स्तन पहनने से इंकार किया क्योंकि उन्हें लगा कि असली इलाज सच्चाई को स्वीकारने में है, न कि उसे छिपाने में। भारत में भी कई महिलाएं और क्वियर समुदाय के लोग कैंसर से जूझते हुए अपनी कहानियों के ज़रिए समाज के सौंदर्य और लिंग से जुड़े मानकों को चुनौती दे रहे हैं। आज कई संगठन और कार्यकर्ता यह मांग कर रहे हैं कि कैंसर सर्वाइवरशिप से जुड़ी नीतियों और शोध में जेंडर लेंस लाया जाए और हाशिये के समुदायों को जैसे क्वीयर और ट्रांस लोगों को भी शामिल किया जाए। कैंसर सर्वाइवरशिप की देखभाल सिर्फ डॉक्टरों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह समाज, सरकार और स्वास्थ्य तंत्र सबकी साझा जिम्मेदारी है।
ज़रूरत है ऐसी देखभाल प्रणाली की जो लिंग-संवेदनशील, समावेशी और नारीवादी मूल्यों पर आधारित हो। भारत में राज्य ही नहीं बल्कि जिला अस्पतालों में सर्वाइवरशिप क्लीनिक हों, जहां परामर्श, फिजियोथेरेपी और कैंसर से जुड़ी महिलाओं के विशेष जरूरतों और समस्याओं पर परामर्श उपलब्ध हों। स्वास्थ्यकर्मियों को लैंगिक समानता और संवेदनशीलता पर प्रशिक्षण दिया जाए। साथ ही, कैंसर उत्तरजीवियों को भेदभाव और नौकरी खोने से बचाने के लिए कानूनी सुरक्षा मिले। राष्ट्रीय कैंसर नीति में ग्रामीण, क्वियर और हाशिए के समुदायों को शामिल किया जाए। भारत में कैंसर से बचना सिर्फ जिंदा रहना नहीं, बल्कि गरिमा, एजेंसी और सम्मान के साथ जीने का अधिकार और सुविधा होनी चाहिए। तभी हम कह पाएंगे कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था सचमुच इंसानों की ज़िंदगी बचाने के योग्य है।

