संस्कृतिकिताबें आत्मकथाएं और मानसिक स्वास्थ्य: स्त्री लेखन की चुप्पी तोड़ती आवाज़ें

आत्मकथाएं और मानसिक स्वास्थ्य: स्त्री लेखन की चुप्पी तोड़ती आवाज़ें

जब कोई लेखिका अपने दर्द, संघर्ष या आघात को लिखती है, तो वह दरअसल अपने मन का संतुलन वापस पाने की कोशिश कर रही होती है। हमारे समाज में, खासकर पितृसत्तात्मक ढांचे में, महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य सिर्फ निजी या चिकित्सकीय नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दा भी है।

हिंदी साहित्य में आत्मकथा लेखन एक ऐसी विधा है, जहां व्यक्ति अपने मन और जीवन के अनुभवों को समाज के सामने रखता है। यह सिर्फ़ जीवन की कहानी नहीं होती, बल्कि अपने समय और समाज का आईना होती है। स्त्री आत्मकथाएं और भी खास हैं, क्योंकि इनमें महिलाएं अपने जीवन की सच्चाइयों, संघर्षों और मनोवैज्ञानिक अनुभवों को खुलकर लिखती हैं। इन आत्मकथाओं में हिंसा, वर्जनाएं, मानसिक पीड़ा और समाज की पितृसत्तात्मक संरचनाएं झलकती हैं। ऐसे लेखन में हम देखते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव, बचपन की प्रताड़ना, और सामाजिक दबाव किस तरह स्त्रियों के मन और व्यवहार को प्रभावित करते हैं। स्त्री आत्मकथाएं सिर्फ़ व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं, बल्कि समाज में स्त्रियों के दमन और मानसिक संघर्षों का दस्तावेज़ भी हैं।

ये उन भावनाओं और सच्चाइयों को सामने लाती हैं, जिन्हें पारंपरिक साहित्य ने लंबे समय तक अनदेखा किया था। हिंदी साहित्य में जब हम महिला आत्मकथाकारों को पढ़ते हैं, तो ऐसी प्रताड़नाएं स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं  जो भौतिक परिस्थितियों के साथ-साथ अपने  मानसिक संघर्ष को अभिव्यक्त करती हैं जिसमें इन स्त्रियों के मानसिक स्वास्थ्य को देखा जा सकता है। मानसिक चेतना पर पड़ने वालें प्रभावों को हिंदी की स्त्रियों द्वारा लिखित आत्मकथा में देखा जा सकता है।  महिलाओं का संघर्ष शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से गहरा प्रभाव छोड़ता है। स्त्री  आत्मकथाएं मानसिक और सामाजिक अनुभवों को इस प्रकार सामने लाती हैं, जिन्हें परंपरागत साहित्यिक विधाओं ने या तो मौन कर दिया था या हाशिए पर ढकेल दिया था। 

आपहुदरी रमणिका गुप्ता की आत्मकथा है, जिसमें उन्होंने अपने जीवन की पीड़ा और मानसिक संघर्ष को खुलकर लिखा है। बचपन में हुए यौन शोषण को माँ से भी न कह पाना उनके भीतर गहरे भय और असुरक्षा की भावना पैदा करता है।

स्त्रीआत्मकथा लेखन में मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक दबाव

स्त्री आत्मकथाएं केवल अपनी कहानी कहने का माध्यम नहीं होतीं, बल्कि यह महिलाओं के मन, अनुभव और पहचान को समझने का जरिया भी हैं। इन आत्मकथाओं में महिलाएं अपने संघर्ष, भावनाओं और मानसिक स्थितियों को खुलकर व्यक्त करती हैं। यही कारण है कि आत्मकथा लेखन मानसिक स्वास्थ्य से गहराई से जुड़ा हुआ है। मानसिक स्वास्थ्य का मतलब केवल बीमारी या इलाज नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति की भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक स्थिति से जुड़ा होता है। जब कोई व्यक्ति अपने अनुभवों को लिखता है, तो वह अपने भीतर छिपे दर्द, डर और संघर्षों को शब्द देता है। यह प्रक्रिया अपने आप में एक तरह का उपचार यानी हीलिंग  बन जाती है।

हिंदी में सबसे पहली स्त्री आत्मकथा ‘सरला: एक विधवा की आत्मजीवनी’ दुखिनीबाला ने लिखी थी। इसके बाद जानकी देवी बजाज की ‘मेरी जीवन यात्रा’ साल 1956 में आई। धीरे-धीरे मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, रमणिका गुप्ता और मैत्रेयी पुष्पा जैसी लेखिकाओं ने आत्मकथा को नया रूप दिया। इनकी रचनाओं में स्त्री के मन की उलझनें, आत्मसम्मान की लड़ाई और मानसिक थकान सब झलकती है। इन लेखिकाओं ने यह दिखाया कि मानसिक स्वास्थ्य कोई व्यक्तिगत कमजोरी नहीं, बल्कि सामाजिक ढांचे से जुड़ा मुद्दा है। समाज में अब भी महिलाएं कई बार दोयम दर्जे की मानी जाती हैं। इसलिए महिलाओं की आत्मकथाएं सिर्फ़ साहित्य नहीं, बल्कि मानसिक स्वतंत्रता और बराबरी की दस्तक भी है।

‘अन्या से अनन्या’ प्रभा खेतान की आत्मकथा है, जो स्त्री के अकेलेपन और भावनात्मक खालीपन को उजागर करती है। उन्होंने बचपन में अपने भाई के किए यौन हिंसा का सामना किया। आर्थिक रूप से सशक्त होने के बावजूद वे भीतर से टूटती रहीं।

स्त्री आत्मलेखन और जीवन के उतार-चढ़ाव

मन्नू भंडारी की आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ उनके जीवन के दर्द और मानसिक संघर्ष को दिखाती है। राजेन्द्र यादव से प्रेम-विवाह के बाद उन्हें अपनापन या भावनात्मक सहारा नहीं मिला। 35 साल तक उन्होंने इस ठंडे और संवादहीन रिश्ते को निभाया। पति की असंवेदनशीलता और उपेक्षा ने उनके मानसिक स्वास्थ्य को गहरी चोट पहुंचाई। लेखन उनके लिए दर्द से मुक्ति और आत्म-अभिव्यक्ति का ज़रिया बना। आपहुदरी रमणिका गुप्ता की आत्मकथा है, जिसमें उन्होंने अपने जीवन की पीड़ा और मानसिक संघर्ष को खुलकर लिखा है। बचपन में हुए यौन हिंसा को माँ से भी न कह पाना उनके भीतर गहरे भय और असुरक्षा की भावना पैदा करता है।

विवाह उनके लिए बचने का एक रास्ता था, लेकिन वह भी मानसिक घुटन से भरा साबित हुआ। यह आत्मकथा बताती है कि कैसे महिलाएं घर और समाज दोनों जगह मानसिक तनाव का सामना करती हैं। ‘अन्या से अनन्या’ प्रभा खेतान की आत्मकथा है, जो स्त्री के अकेलेपन और भावनात्मक खालीपन को उजागर करती है। उन्होंने बचपन में अपने भाई के किए यौन हिंसा का सामना किया। आर्थिक रूप से सशक्त होने के बावजूद वे भीतर से टूटती रहीं। प्रेमी डॉ. सराफ पर उनकी निर्भरता एक भावनात्मक तनाव बन गई। वह आत्मनिर्भर होकर भी आश्रित बनी रहीं। यह आत्मकथा दिखाती है कि सफलता के बावजूद भावनात्मक उपेक्षा स्त्री के मानसिक स्वास्थ्य को कितना गहरा असर पहुंचाती है।  

कहानी की नायिका कस्तूरी सिर्फ 16 साल की उम्र में अपनी माँ और भाई द्वारा 800 चाँदी के सिक्कों में बेच दी जाती है। यह उसके आत्मसम्मान पर पहला बड़ा घाव होता है। पति हीरालाल उसके चरित्र पर शक करता है और उसे ‘गंगा में खड़े होकर सौगंध खाने’ को कहता है। यह उनके सम्मान और मन दोनों को तोड़ देता है।

मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथाएं ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ और ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ एक ग्रामीण स्त्री के संघर्ष और मानसिक पीड़ा को गहराई से दिखाती हैं। कहानी की नायिका कस्तूरी सिर्फ 16 साल की उम्र में अपनी माँ और भाई द्वारा 800 चाँदी के सिक्कों में बेच दी जाती है। यह उसके आत्मसम्मान पर पहला बड़ा घाव होता है। पति हीरालाल उसके चरित्र पर शक करता है और उसे ‘गंगा में खड़े होकर सौगंध खाने’ को कहता है। यह उनके सम्मान और मन दोनों को तोड़ देता है। जब उन्हें सेक्स वर्कर कहा जाता है, तो यह उसके टूटे हुए मन की चीख बन जाती है। ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में मैत्रेयी पुष्पा ने अपने जीवन का सच्चा चित्र खींचा है। ‘बंटी की बहू’ से ‘मैत्रेयी पुष्पा’ बनने तक का सफर लगातार मानसिक और सामाजिक संघर्षों से भरा है। पति के घर में छिपकर लिखना, बेटियां होने पर अपमान झेलना, ये सब उनके आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरी चोट करते हैं। उनकी आत्मकथाएं दिखाती हैं कि एक स्त्री का निजी जीवन, रिश्ते और समाज की सोच, उसके मानसिक स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करते हैं।

स्त्री आत्मकथाओं में मानसिक संघर्ष 

इन आत्मकथाओं की खासियत यह है कि वे दिखाती हैं कि पितृसत्तात्मक समाज कैसे महिलाओं के मानसिक संघर्षों को जन्म देता है। साथ ही, लेखन खासकर आत्मकथा लेखन; उस पीड़ा से निकलने का एक रास्ता बन जाता है। यह लेख स्त्री आत्मकथाओं के ज़रिए मानसिक स्वास्थ्य और स्त्री अस्मिता के रिश्ते को समझने की कोशिश करता है। आत्मकथा सिर्फ साहित्य की विधा नहीं, बल्कि महिलाओं के भीतर के संघर्षों और समाज द्वारा बनाए मानसिक बंधनों का साक्ष्य है। हिंदी साहित्य में आत्मकथाएं सिर्फ निजी अनुभव नहीं बतातीं, बल्कि समाज और संस्कृति के गहरे सच भी उजागर करती हैं।

यह लेखन महिलाओं को अपनी बात कहने, अपने अनुभवों को दर्ज करने और समाज की पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती देने की ताक़त देता है। दुनिया भर में अब मानसिक स्वास्थ्य और साहित्य के बीच के संबंधों पर ध्यान दिया जा रहा है। लेखिका नयांजो सौदा ने लिखा है कि मानसिक स्वास्थ्य केवल बीमारी नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक अनुभव है, जो समाज और साहित्य दोनों में झलकता है। इस लिहाज़ से आत्मकथा लेखन महिलाओं के मन और अनुभवों को समझने का अहम जरिया बन जाता है।

ऑक्सफोर्ड की बॉडलीयन लाइब्रेरी के लेख ‘मेंटल हेल्थ एण्ड वेलबीइंग इन लिटरेचर’ में बताया गया है कि साहित्य मानसिक स्वास्थ्य को समझने और अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। आत्मकथा लेखन को लेख में ‘नैरेटिव थेरेपी’ यानी एक तरह की मानसिक चिकित्सा कहा गया है, जिसमें लेखिकाएं अपने आघात, अवसाद और पहचान के संकटों को शब्द देती हैं। यह प्रक्रिया उन्हें आत्म-साक्षात्कार और मानसिक पुनर्निर्माण की ओर ले जाती है। प्रीति दुबे के शोध ‘स्त्री हिंदी आत्मकथा-साहित्य: एक अनुशीलन’ (2019) के अनुसार, 21वीं सदी की हिंदी आत्मकथाएं दिखाती हैं कि महिलाएं अपने मानसिक और सामाजिक संघर्षों को खुलकर व्यक्त कर रही हैं।

आत्मकथा उनके लिए केवल दर्द का बयान नहीं, बल्कि एक चेतनात्मक विद्रोह भी है, जहां वे अपने भीतर और समाज दोनों से संवाद करती हैं। मन्नू भंडारी की ‘एक कहानी यह भी’ में उनकी वैवाहिक असफलता, रचनात्मक पहचान और मानसिक संघर्ष झलकते हैं।

आत्मकथा उनके लिए केवल दर्द का बयान नहीं, बल्कि एक चेतनात्मक विद्रोह भी है, जहां वे अपने भीतर और समाज दोनों से संवाद करती हैं। मन्नू भंडारी की ‘एक कहानी यह भी’ में उनकी वैवाहिक असफलता, रचनात्मक पहचान और मानसिक संघर्ष झलकते हैं। उनके उपन्यास ‘आपका बंटी’ में मातृत्व का दबाव और सामाजिक अपेक्षाओं से पैदा तनाव दिखता है। वहीं रमणिका गुप्ता की ‘आपहुदरी’ जैसी आत्मकथाएं स्त्रियों के यौन, जातिगत और राजनीतिक शोषण के खिलाफ एक गहरा प्रतिरोध है। इन रचनाओं में मानसिक पीड़ा और संघर्ष को बड़ी सच्चाई और संवेदनशीलता से व्यक्त किया गया है।

स्त्री आत्मकथा: बदलाव की आवाज़

हिंदी साहित्य में आत्मकथाओं पर काफी काम हुआ है, लेकिन उनमें छिपे मानसिक स्वास्थ्य के पहलुओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। लेखिकाओं के भीतर के संघर्ष, असुरक्षा और भावनात्मक दर्द को ज़्यादातर सिर्फ साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में देखा गया। नयांजो सौदा के लेख ‘एक्सप्लोरिंग मेंटल हेल्थ नैरेटिव्स इन कंटेम्पररी लिटरेचर’ के अनुसार, आत्मकथा मानसिक स्वास्थ्य को समझने का एक अहम साधन हो सकती है। इसमें लेखक अपने मन, यादों और पहचान के संकट को खुद व्यक्त करता है। पश्चिमी साहित्य में इस पर गहराई से काम हुआ है। जैसे नैरेटिव थेरेपी, ट्रॉमा स्टडीज़ और बिब्लियोथेरैपी के ज़रिए आत्मकथा को मानसिक उपचार और आत्म-समझ का माध्यम माना गया है। ऑक्सफोर्ड की बॉडलीयन लाइब्रेरीकी एक रिपोर्ट कहती है कि साहित्य, खासकर आत्मकथा, मानसिक स्वास्थ्य को सामाजिक और सांस्कृतिक नज़रिए से समझने का एक महत्वपूर्ण मंच है। लेकिन हिंदी साहित्य में यह विमर्श अभी बहुत कम दिखाई देता है।

हिंदी साहित्य में आत्मकथाओं पर काफी काम हुआ है, लेकिन उनमें छिपे मानसिक स्वास्थ्य के पहलुओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। लेखिकाओं के भीतर के संघर्ष, असुरक्षा और भावनात्मक दर्द को ज़्यादातर सिर्फ साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में देखा गया।

मानसिक स्वास्थ्य के मामले में आत्मकथाओं का महत्व

जब कोई लेखिका अपने दर्द, संघर्ष या आघात को लिखती है, तो वह दरअसल अपने मन का संतुलन वापस पाने की कोशिश कर रही होती है। हमारे समाज में, खासकर पितृसत्तात्मक ढांचे में, महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य सिर्फ निजी या चिकित्सकीय नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दा भी है। समाज जब महिलाओं की भूमिकाओं को सीमित करता है, तो यह उनकी आज़ादी, आत्म-सम्मान और पहचान को प्रभावित करता है। भारत में मानसिक स्वास्थ्य को अब भी कलंक की तरह देखा जाता है, खासकर ग्रामीण महिलाओं के बीच। वे अवसाद, चिंता और आत्महीनता जैसी स्थितियों का सामना करती हैं लेकिन समाज उन्हें बोलने या मदद लेने से रोकता है। स्त्री आत्मकथाएं इस चुप्पी को तोड़ती हैं। वे उन भावनात्मक और मानसिक अनुभवों को आवाज़ देती हैं जिन्हें समाज अक्सर छिपा देता है। इस तरह आत्मकथाएं न केवल साहित्यिक अभिव्यक्ति हैं, बल्कि उपचार और आत्म-बोध की प्रक्रिया भी हैं।

हिंदी की स्त्री आत्मकथाएं केवल व्यक्तिगत जीवन की कहानियां नहीं हैं, बल्कि वे समाज, पितृसत्ता और मानसिक स्वास्थ्य के जटिल रिश्तों का गहन दस्तावेज़ हैं। इन लेखनियों में स्त्रियां अपने भीतर के दर्द, असुरक्षा, और संघर्षों को शब्दों में ढालती हैं, जिससे वे आत्म-स्वीकृति और उपचार की दिशा में कदम बढ़ाती हैं। आत्मकथा लेखन उनके लिए प्रतिरोध और पुनर्निर्माण—दोनों का माध्यम बन जाता है। यह केवल साहित्य नहीं, बल्कि समाज में मानसिक स्वास्थ्य, स्त्री अस्मिता और समानता पर संवाद खोलने का सशक्त माध्यम है। इन आत्मकथाओं के ज़रिए हम समझ पाते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य कोई निजी अनुभव नहीं, बल्कि गहराई से सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचे से जुड़ा हुआ मुद्दा है।

सोर्स:

  • हादसे (2005) रमणिका गुप्ता ,राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  • अन्या से अनन्या (2007),  प्रभा खेतान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।  
  • एक कहानी यह भी (2007), मन्नू भंडारी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली
  • गुड़िया भीतर गुड़िया (2008 ), मैत्रेयी पुष्पा,  राजकमल प्रकाशन~2008–09 (पुस्तक 2023 संस्करण)
  • कस्तूरी कुंडल बसै (2009),  मैत्रेयी पुष्पा,  राजकमल प्रकाशन ~2008–09 (पुस्तक 2023 संस्करण
  • आपहुदरी  (2016) रमणिका गुप्ता,सामयिक प्रकाशन प्रथम संस्करण 2015, पुनर्मुद्रण 2016 के बाद
  • Dubey, Preeti. (2019). Stree Hindi Atmakatha-Sahitya: Ek Anusheelan (21वीं सदी के विशेष सन्दर्भ में). University of Kota.
  • Nanyonjo, Sauda. (2025). Exploring Mental Health Narratives in Contemporary Literature. EEJHSS.
  • Uttarakhand Open University. (n.d.). मानसिक स्वास्थ्य की अवधारणा. BAPY-120, DGC-105.
  • Gaon Ke Log. (2025). हिंदी साहित्य में महिला आत्मकथा लेखन.
  • Feminism in India, Gaon ke Log, Samalochan, Dubey 2019, Nanyonjo 2025, Oxford Blogs 2023)
  • Bodleian Libraries, Oxford. (2023). Mental Health and Wellbeing in Literature.
  • MULTI LANGUAGE RESEARCH JOURNAL,स्त्री संघर्ष का सफ़र : अन्‍य से अनन्या”प्रोफेसर डॉ. संगीता एकनाथराव आहेर”, विभाग – हिंदी, महिला कला महाविद्यालय, गेवराई, बीड (महाराष्ट्र) 
  • भंडारी, मन्नू. (2007). एक कहानी यह भी. राजकमल प्रकाशन.
  • भंडारी, मन्नू. (1971). आपका बंटी. राजकमल प्रकाशन.
  • गुप्ता, रमणिका. (2015). आपहुदरी: एक ज़िद्दी लड़की की आत्मकथा. वाणी प्रकाशन.
  • गुप्ता, रमणिका. (2005). हादसे. राजकमल प्रकाशन.
  • गुप्ता, रमणिका. (2002). आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी.
  • खेतान, प्रभा. (1990). अन्या से अनन्या तक. वाणी प्रकाशन.
  • पुष्पा, मैत्रेयी. गुड़िया भीतर गुड़िया, कस्तूरी कुंडल बसै.
  • A General Introduction to Psychoanalysis का हिन्दी अनुवाद सिगमंड फ्रायड की मनोविश्लेषण 
  • The Subjection of Women”1869 – John Stuart Mill (स्त्रियों की दासता )
  • The Second Sex” by Simone de Beauvoir 1949 – हिन्दी में सारांश (प्रभा खेतान द्वारा अनुवाद – स्त्री उपेक्षा)
  • स्त्री विमर्श का नया चेहरा – अल्पना मिश्रा

Comments:

  1. Sarah says:

    What a deep understanding of the subject matter! Fresh perspective.

  2. Manjeet Sanyal says:

    Reflective and reviving through deep thought

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