समाजख़बर क्यों ज़रूरी है भारत में सेक्स एजुकेशन का सामान्य होना?

क्यों ज़रूरी है भारत में सेक्स एजुकेशन का सामान्य होना?

सेक्स एजुकेशन का उद्देश्य बच्चों को बिगाड़ना नहीं, बल्कि उन्हें जागरूक, सुरक्षित और संवेदनशील बनाना है। यह सिर्फ़ शारीरिक नहीं, बल्कि भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक समझ की शिक्षा है जो सहमति, सम्मान और समानता पर आधारित है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सेक्स एजुकेशन की शुरुआत कक्षा 9 से नहीं, उससे पहले होनी चाहिए। यह बात सिर्फ़ नीति से जुड़ी नहीं थी, बल्कि समाज के लिए एक संवेदनशील सुझाव भी थी। अदालत ने कहा कि जब तक कोई बच्चा किशोरावस्था की दहलीज़ पर पहुंचता है, तब तक वह इंटरनेट से अधूरी या ग़लत जानकारी के संपर्क में आ चुका होता है। यह टिप्पणी हमारे समाज के लिए एक आईना है। असल में हमारे बच्चे सवाल पूछने को तैयार हैं, लेकिन समाज अब भी सेक्शुअल एजुकेशन से जुड़े जवाब देने से कतराता है। हमारी शिक्षा प्रणाली जीव विज्ञान तो पढ़ाती है, पर जीव और संबंधों पर बात करने से अब भी झिझकती है। सेक्शूअलिटी एजुकेटर और अनटैबू की संस्थापक अंजू किश सुप्रीम कोर्ट के सुझाव का स्वागत करती हैं। वह कहती हैं,
“कक्षा 9 तक इंतज़ार करना बहुत देर हो जाती है। उस उम्र तक ज़्यादातर बच्चे इंटरनेट पर भ्रामक जानकारी और पॉर्न जैसी सामग्री देख चुके होते हैं। ऐसे में उनकी गलत धारणाओं को बाद में सुधारना मुश्किल हो जाता है। अगर सही शिक्षा शुरू से दी जाए, तो बच्चे ज़्यादा सुरक्षित और जागरूक बन सकते हैं। असल सवाल बच्चों की तैयारी का नहीं, बड़ों की असहजता का है। बच्चे तो तैयार हैं, बस वयस्कों को अपनी झिझक छोड़नी होगी।”

कक्षा 9 तक इंतज़ार करना बहुत देर हो जाती है। उस उम्र तक ज़्यादातर बच्चे इंटरनेट पर भ्रामक जानकारी और पॉर्न जैसी सामग्री देख चुके होते हैं। ऐसे में उनकी गलत धारणाओं को बाद में सुधारना मुश्किल हो जाता है। अगर सही शिक्षा शुरू से दी जाए, तो बच्चे ज़्यादा सुरक्षित और जागरूक बन सकते हैं।

भारत की शिक्षा नीतियों की भाषा आज भी ‘शर्म’ और ‘संकोच’ में लिपटी हुई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में ‘जीवन कौशल’ और ‘मानसिक स्वास्थ्य’ का ज़िक्र तो है, लेकिन ‘सेक्स एजुकेशन’ शब्द पूरी तरह गायब है। राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम और स्कूल हेल्थ एंड वेलनेस प्रोग्राम में भी इसे सीधे तौर पर नहीं कहा गया, बल्कि एडोलेसेंट हेल्थ अवेयरनेस यानी किशोर स्वास्थ्य जागरूकता के नाम से शामिल किया गया है। यह भाषाई झिझक दिखाती है कि नीतियां भले आधुनिक दिखती हों, लेकिन सोच अब भी पुरानी है। साल 2007 में शुरू हुआ एडोलेसेंस एजुकेशन प्रोग्राम सेक्स एजुकेशन की दिशा में पहला संगठित प्रयास था, लेकिन कई राज्यों ने इसे ‘संस्कृति के ख़िलाफ़’ कहकर रोक दिया। भारत में अक्सर ‘संस्कार’ का अर्थ संवाद की मनाही से जोड़ दिया जाता है, जहां वर्जनाओं को मूल्य और मौन को मर्यादा समझ लिया जाता है।

सेक्शुअल एजुकेशन के विषय पर अंजू आगे जोड़ती हैं, “हम अकसर यौन शिक्षा को सेक्शुअल संबंध के बराबर मान लेते हैं, जबकि यह असल में सुरक्षा, सहमति, शारीरिक स्वायत्तता और स्वस्थ रिश्तों की समझ के बारे में है। सबसे बड़ी बाधाएं हैं शर्म और चुप्पी। हमें बचपन से सिखाया गया है कि शरीर या सेक्स पर बात करना गलत है, जबकि सच्चाई यह है कि चुप्पी ही बच्चों को असुरक्षित बनाती है। जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि सवाल क्या हमें सेक्शुअल एजुकेशन देनी चाहिए का नहीं, बल्कि कब से शुरू करनी चाहिए का है, तब तक बच्चे इंटरनेट को ही अपना पहला शिक्षक मानते रहेंगे।”

भारतीय समाज को पूरी तरह सहज होने की ज़रूरत नहीं है ताकि वह ‘तैयार’ कहलाए। तैयारी का मतलब रुकना नहीं, बल्कि आगे बढ़ना है। सेक्शुअल एजुकेशन को डर, संकोच या देरी से नहीं, बल्कि स्नेह, आनंद और समावेशिता से प्रेरित होना चाहिए।”

सेक्सुअलिटी एजुकेटर अपूरूपा इस विरोधाभास पर कहती हैं, “जब भारत में नेता या अदालतें यह चर्चा करती हैं कि देश ‘यौन शिक्षा के लिए तैयार’ है या नहीं, तो वे युवाओं की ज़रूरतों और सुरक्षा से ज़्यादा बड़ों की सुविधा को महत्व देते हैं। ‘तैयारी’ का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि सिर्फ़ वयस्क सहमत हों या सहज महसूस करें। ऐसा करने से यह उन लोगों के लिए न्याय को टालने का एक तरीका बन जाता है जिनके पास शक्ति और विशेषाधिकार हैं। जब ‘तैयारी’ का मतलब यह हो कि वयस्कों को सहज होना है, तो हाशिए पर खड़े युवा जैसे क्वीयर और ट्रांस बच्चे, विकलांग युवा और हाशिये के समुदाय से आने वाले बच्चे तब तक इंतज़ार करते रहते हैं, जब तक प्रभावशाली लोग यह तय न कर लें कि अब उनके सीखने और अपने शरीर पर अधिकार जताने का ‘सही समय’ आ गया है। भारतीय समाज को पूरी तरह सहज होने की ज़रूरत नहीं है ताकि वह ‘तैयार’ कहलाए। तैयारी का मतलब रुकना नहीं, बल्कि आगे बढ़ना है। सेक्शुअल एजुकेशन को डर, संकोच या देरी से नहीं, बल्कि स्नेह, आनंद और समावेशिता से प्रेरित होना चाहिए।”

क्या बच्चों की जिज्ञासा उनका अपराध है

इस विषय पर फेमिनिज़म इन इंडिया ने कई विद्यार्थियों से बातचीत करने की कोशिश की। एक छात्र कहते हैं, “मैं इस विषय पर बात करने में सहज हूं, लेकिन जैसे ही ‘सेक्स’ शब्द बोलता हूं लोग मुझे ऐसे देखते हैं जैसे मैंने कुछ ग़लत कर दिया हो।” वहीं दूसरी छात्रा कहती हैं, “शिक्षक प्रजनन वाले हिस्से को बहुत जल्दी-जल्दी ख़त्म कर देते हैं। कभी-कभी तो उसे पढ़ाते ही नहीं।” अमूमन जब शब्दों पर पाबंदी लग जाती है, तो बच्चे इंटरनेट या दोस्तों की अधूरी जानकारी पर भरोसा करने लगते हैं। इस विषय पर अंजूकहती हैं, “शिक्षकों को सबसे पहले नियमित और संरचित प्रशिक्षण की ज़रूरत है, जो उनके अपने पूर्वाग्रहों को पहचानने और तोड़ने से शुरू होता है। जब तक वे अपनी मानसिक जकड़न से मुक्त नहीं होंगे, तब तक वे बच्चों के साथ खुलकर बातचीत नहीं कर सकते। लेकिन यह ज़िम्मेदारी सिर्फ़ स्कूल की नहीं है। हमें एक भरोसेमंद त्रिकोण बनाना होगा जिसमें प्रशिक्षित शिक्षक, जागरूक माता-पिता और ऐसे छात्र हों जो बिना डर या शर्म के सवाल पूछ सकें। बातचीत की शुरुआत बड़ों से करनी होगी, बच्चे अपने आप सहज हो जाएंगे।”

सेक्स एजुकेशन कोई ‘पश्चिमी मॉडल’ नहीं है, बल्कि भारतीय ज्ञान की पुनर्स्थापना है जहां देह को शर्म नहीं, बल्कि जीवन की गरिमा समझा जाता था।”

क्या शिक्षक तैयार हैं सेक्शुअल एजुकेशन के लिए

हालांकि शिक्षक जानते हैं कि यह शिक्षा ज़रूरी है, लेकिन समाज की निगाहें उन पर हमेशा संदेह से टिकी रहती हैं। अर्पित, जो एक ग्रामीण स्कूल में पढ़ाते हैं, कहते हैं, “मुझे नर्वसनेस होती है। यह असहजता विषय को लेकर नहीं है, बल्कि इस बात से है कि दूसरे शिक्षक, छात्र और माता-पिता कैसे प्रतिक्रिया देंगे। हमारे यहाँ के लोग इस विषय पर बहुत खुले नहीं हैं।” पाइनवुड स्कूल में पढ़ा रही आशना कहती हैं, “मैं इन विषयों पर बात करने के लिए तैयार हूं, लेकिन अगर उम्र के अनुसार संवाद करने और संवेदनशील सवालों से निपटने पर कोई प्रशिक्षण मिले तो आत्मविश्वास और बढ़ेगा।” वहीं लर्नर्स इंटरनेशनल स्कूल के शिक्षक सागर असरानी बताते हैं, “मुझे किसी अतिरिक्त संसाधन की नहीं, बल्कि छोटे क्लासरूम की ज़रूरत लगती है। बेहतर शिक्षक-छात्र अनुपात और समय होना चाहिए, ताकि जिन छात्रों को समस्या हो, उन्हें व्यक्तिगत रूप से समझाया जा सके। छोटे बच्चे सही माहौल और सही व्यक्ति के संपर्क में हों, तो बहुत जल्दी समझते हैं।”

इन बयानों से समझ आता है कि भारत में सेक्स एजुकेशन की कमी जानकारी या इच्छा की नहीं, बल्कि संस्थागत सहयोग और समर्थन की है। सेक्सुएलिटी एजुकेटर अपूरूपा कहती हैं, “भारत के कई स्थानीय और आदिवासी समुदायों में शरीर, ज्ञान और आनंद से जुड़ी समृद्ध परंपराएं रही हैं। ये लोकगीतों, कहानियों और अनुष्ठानों के रूप में जीवित थीं। इन्हें फिर से जीवित करना न सिर्फ़ सेक्शुअल एजुकेशन को सहज और आत्मीय बना सकता है, बल्कि इसे संस्कृति, सम्मान और गर्व से भी जोड़ सकता है। दक्षिण भारत के कई हिस्सों में पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों और मंदिर कलाओं में सहमति, सुख और लिंग की विविधता के विचार शामिल थे। लेकिन समय के साथ ये शिक्षाएं मुख्यधारा की शिक्षा प्रणाली से हटा दी गईं।”

भारत के कई स्थानीय और आदिवासी समुदायों में शरीर, ज्ञान और आनंद से जुड़ी समृद्ध परंपराएं रही हैं। ये लोकगीतों, कहानियों और अनुष्ठानों के रूप में जीवित थीं। इन्हें फिर से जीवित करना न सिर्फ़ सेक्शुअल एजुकेशन को सहज और आत्मीय बना सकता है, बल्कि इसे संस्कृति, सम्मान और गर्व से भी जोड़ सकता है।

घरों में असहजता की जड़ें और कैसे हो इसमें बदलाव

आज भी देश में घरों में खासकर माता-पिता सेक्स एजुकेशन को लेकर गहरी दुविधा में हैं। वे अपने बच्चों को सुरक्षित देखना चाहते हैं और इस विषय पर बात करने में असहज महसूस करते हैं क्योंकि उन्हें खुद इस बारे में कभी सही शिक्षा नहीं मिली। जयपुर की रहने वाली उरा शेखर, जो दो बच्चों की माँ हैं; बताती हैं, “हमारे समय में हमें इस विषय पर कोई शिक्षा नहीं मिली। मुझे सेक्स और संबंधों के बारे में सिर्फ़ दोस्तों की बातों और फ़िल्मों से कुछ जानकारी मिली, वह भी अधूरी थी। मैंने अपने माता-पिता को कभी एक-दूसरे के प्रति स्नेह दिखाते नहीं देखा। इसलिए यह स्वीकार करना कि मैं उस प्रक्रिया का परिणाम हूं जिसमें उन्हें एक साथ होना पड़ा, मेरे लिए असहज बात थी। स्कूल में जब कक्षा 9 की किताब में मानव प्रजनन का अध्याय आया, तो हमारी शिक्षिका ने उसे पढ़ाया ही नहीं। लड़के मज़ाक उड़ाते थे और शिक्षिका बहुत असहज दिखती थीं। तब मैंने तय किया कि मैं अपने बच्चों से कुछ नहीं छिपाऊँगी। उनसे खुलकर इन विषयों पर बात करूंगी। मैं ‘अनस्कूलिंग’ की समर्थक हूं और मानती हूं कि माता-पिता को स्कूलों में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।”

ऊरा की कहानी सिर्फ़ एक माँ की नहीं, बल्कि भारत की उस पीढ़ी की है जो बिना सही जानकारी के बड़ी हुई, पर अब अपने बच्चों के लिए वही गलती नहीं दोहराना चाहती। आज कई शहरी और शिक्षित माता-पिता समझने लगे हैं कि चुप्पी सुरक्षा नहीं देती। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे जानकारी से नहीं, बल्कि सम्मान और समझ से आगे बढ़ें। हालांकि अब भी एक बड़ा वर्ग इस विषय पर असमंजस में है। उन्हें डर है कि बहुत कुछ जानने से बच्चे भटक सकते हैं। भारत में सेक्स एजुकेशन को अक्सर ‘संस्कार-विरोधी’ कहा जाता है, जबकि सच यह है कि हमारी सबसे पुरानी सभ्यता ही शरीर और संबंधों को सबसे गहराई से समझती थी। खजुराहो, कोणार्क, अजंता-एलोरा की मूर्तियां, आदिवासी लोककथाएं और दक्षिण भारत की मंदिर कलाएं सभी शरीर, आनंद और सहमति की स्वीकृति के प्रतीक थीं। औपनिवेशिक शासन और विक्टोरियन नैतिकता ने इन्हें अशोभनीय कहा और पितृसत्ता ने मर्यादा के नाम पर संवाद को बंद कर दिया।

हमारे समय में हमें इस विषय पर कोई शिक्षा नहीं मिली। मुझे सेक्स और संबंधों के बारे में सिर्फ़ दोस्तों की बातों और फ़िल्मों से कुछ जानकारी मिली, वह भी अधूरी थी। मैंने अपने माता-पिता को कभी एक-दूसरे के प्रति स्नेह दिखाते नहीं देखा। इसलिए यह स्वीकार करना कि मैं उस प्रक्रिया का परिणाम हूं जिसमें उन्हें एक साथ होना पड़ा, मेरे लिए असहज बात थी।

सेक्सुएलिटी एजुकेटर अपूरूपाकहती हैं,भारत में सेक्स एजुकेशन कोई विदेशी विचार नहीं है। यह हमारी अपनी परंपराओं का पुनर्जागरण है। कई स्थानीय समाजों में देह, इच्छा और आनंद को सम्मान के साथ देखा जाता था। अब हमें उस खोए हुए ज्ञान को फिर से जीवित करना है। इसलिए सेक्स एजुकेशन कोई ‘पश्चिमी मॉडल’ नहीं है, बल्कि भारतीय ज्ञान की पुनर्स्थापना है जहां देह को शर्म नहीं, बल्कि जीवन की गरिमा समझा जाता था।” सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी कि “कक्षा नौ तक इंतज़ार बहुत देर है” हमें यह समझाती है कि तैयारी का मतलब है — डर से बाहर निकलना।

अंजू कहती हैं,“खामोशी सुरक्षा नहीं देती। जब भी हम सेक्शुअल एजुकेशन की बातचीत से बचते हैं, तब हम बच्चों को यह सिखाते हैं कि इंटरनेट हमसे ज़्यादा भरोसेमंद है। ये सच भी है कि इंटरनेट उनसे यह बात पहले ही कर चुका है, बिना सही संदर्भ और संवेदनशीलता के और खतरनाक रूढ़ियों के साथ। यौन शिक्षा उम्र के साथ बढ़ने वाली एक सतत प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य सिर्फ़ शोषण या किशोरावस्था में गर्भधारण रोकना नहीं है, बल्कि ऐसी पीढ़ी तैयार करना है जो सहमति को समझे, सीमाओं का सम्मान करे और सोच-समझकर निर्णय ले। यही असली तैयारी है जो हमारे समाज को डर या झिझक से नहीं, बल्कि जागरूकता, संवाद और सम्मान से बदल सकती है।”

भारत अब ऐसे मोड़ पर है जहां सेक्स एजुकेशन पर चुप रहना सबसे बड़ा खतरा है। सेक्स एजुकेशन का उद्देश्य बच्चों को बिगाड़ना नहीं, बल्कि उन्हें जागरूक, सुरक्षित और संवेदनशील बनाना है। यह सिर्फ़ शारीरिक नहीं, बल्कि भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक समझ की शिक्षा है जो सहमति, सम्मान और समानता पर आधारित है। हमें यह याद रखना चाहिए कि सेक्शुअल एजुकेशन कोई विदेशी विचार नहीं, बल्कि हमारी परंपरा का हिस्सा रही है जहां देह को गरिमा से देखा जाता था। समय है कि हम शर्म और मौन की दीवारें तोड़ें।

Comments:

  1. Himanshu says:

    Nice Article Mansi Ji
    Sex education is not about teaching children to engage in sexual activities—it is about teaching them to respect themselves and others. Therefore, the article makes a meaningful and relevant contribution to an important social issue.

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