हमारे देश में महिलाओं के लिए कई ऐसे कानून मौजूद हैं जिनके बारे में अक्सर खुद महिलाओं को जानकारी नहीं होती। इस वजह से ज़रूरत पड़ने पर जानकारी के अभाव में महिलाएं अक्सर इन कानूनों का सही इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं। आज अपने इस लेख में हम ऐसे 8 कानूनों के बारे में बात कर रहे हैं जिनके बारे में महिलाओं को पता होना चाहिए।
कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध एवं प्रतितोष) अधिनियम, 2013
कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध एवं प्रतितोष) अधिनियम, 2013 कार्यस्थल पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले लैंगिक उत्पीड़न को रोकने के लिए बनाया गया है। अगर कोई महिला कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न का सामना करती है तो वह अपनी शिकायत का निवारण इस कानून के तहत कर सकती है। इस कानून के मुताबिक हर औरत को, उसकी उम्र और रोज़गार की स्थिति का ख्याल किए बगैर, उसे सकुशल और सुरक्षित काम का माहौल मिलना चाहिए, जो सभी प्रकार के उत्पीड़न से मुक्त होना चाहिए। ये कानून पूरे भारत पर लागू होता है और यह कहता है कि कार्यस्थल पर किसी भी महिला के साथ किसी भी प्रकार का लैंगिक उत्पीड़न नहीं होना चाहिए। इस कानून के मुताबिक, कार्यस्थल के संदर्भ में, पीड़ित महिला के अंदर हर वह महिला (किसी भी उम्र की, भले ही वह उस संस्थान में कार्यरत है या नहीं) शामिल है जो यह आरोप लगाती है कि उसके साथ यौन उत्पीड़न हुआ है।
और पढ़ें : नई नौकरी शुरू करने से पहले पूछिए यह 6 सवाल
घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005
ये एक धर्मनिरपेक्ष सिविल कानून है जो महिलाओं को घरों में होने वाली हिंसा से बचाता है। इस कानून के तहत, पीड़िता महिला को विभिन्न प्रकार की सहायता मिल सकती है जैसे कि मुआवजा, सुरक्षा, साझा घर में रहने का अधिकार, आदि। ‘घरेलु हिंसा’ की परिभाषा में शामिल है किसी भी महिला को शारीरिक, यौनिक, मौखिक या आर्थिक रूप से इस प्रकार से पीड़ित करना जिससे कि उसकी सुरक्षा, जीवन, स्वास्थ्य या कल्याण को नुकसान या चोट पहुंचे। इसके अलावा, अगर दहेज की मांग को पूरा करने के लिए महिला या उसके रिश्तेदारों को किसी भी प्रकार की चोट या नुकसान पहुंचाया जाता है, तो वह भी इस कानून के अंतर्गत घरेलू हिंसा की परिभाषा में आता है।
और पढ़ें : घरेलू हिंसा से जुड़े कानून और कैसे करें इसकी शिकायत?
समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976
इस कानून में ये दिया गया है कि पुरुष और महिला कर्मचारियों के बीच में उनके लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। इस कानून के तहत पुरुष और महिला कर्मचारियों को समान कार्य के लिए समान तनख्वाह मिलनी चाहिए। इस कानून का मकसद है कि कर्मचारियों की भर्ती, वेतन निर्धारण, स्थानांतरण, प्रशिक्षण और पदोन्नति जैसे मामलों में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। भेदभाव का मतलब होता है किसी भी एक लिंग को दूसरे की तुलना में, ज्यादा महत्व देना।
गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971
इस कानून के अंतर्गत एक महिला गर्भपात करवा सकती है। लेकिन हर महिला हर परिस्थिति में गर्भपात नहीं करवा सकती। कुछ स्थितियों के तहत गर्भपात करवाया जा सकती है जैसे कि गर्भवती महिला की जान को खतरा हो सकता है या उसे शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को चोट पहुंच सकती है या अगर बच्चे का जन्म हुआ तो वो शारीरिक और मानसिक रूप से असामान्यताओं के साथ पैदा होगा या वह महिला बलात्कार की वजह से गर्भवती हो गई है (जिसकी वजह से उसके मानसिक स्वास्थ्य पर गहरी चोट पहुंची है), आदि। इन सीमित आधारों पर ही, डॉक्टर की सहमति के साथ 12 हफ़्तों के भीतर गर्भपात करवाया जा सकता है। असाधारण परिस्थितियों में, दो डॉक्टरों की सहमति के साथ 20 हफ़्तों के भीतर भी गर्भपात करवाया जा सकता है।
और पढ़ें : भारत में गर्भ समापन का प्रगतिशील कानून और सरोकार की चुनौतियाँ
प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम, 1961
इस कानून के अंतर्गत महिलाओं को कुछ विशिष्ट अवधि के लिए बच्चे के जन्म से पहले और बाद में प्रसूति सुविधाएं और दूसरी प्रकार की सुविधाएं मिलती हैं। यह कानून मुख्यतौर पर कारखानों, दुकानों और ऐसे प्रतिष्ठानों पर लागू होता है जहां 10 या उससे ज्यादा लोग काम करते है। बच्चे की जन्म की तारीख से पहले, जिस भी महिला ने पिछले 12 महीनो में 80 दिन काम किया है और हर महीने 21,000 रूपए से ज्यादा कमा रही है वो इस कानून के अंतर्गत मातृत्व लाभ की पात्र है। उच्चतम न्यायलय के साल 2000 में आए फैसले के बाद इस कानून का फायदा उन महिलाओं को भी मिलेगा जो अस्थायी तौर पर काम कर रही है। 2017 के संशोधन के बाद, प्रसूति-छुट्टी 12 हफ़्तों से 26 हफ़्तों तक बढ़ा दी गई है।
बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006
यह भारत सरकार का एक अधिनियम है, जिसे समाज में बाल विवाह को रोकने हेतु लागू किया गया है। इस कानून के तीन मकसद है – बाल विवाह रोकना, ऐसी शादियों के शिकार हुए बच्चों की रक्षा करना और ये अपराध करवाने वालों पर मुकदमा चलाना। इस कानून के तहत बाल विवाह एक कोगनीज़ेबल और नॉन- बेलएबल अपराध है। अगर कहीं पर भी इस प्रकार का कोई अपराध होता है, तो उसे रोकने के लिए कोर्ट एक आदेश (मनाही-हुक्म) पारित कर सकती है। और अगर इसके बावजूद भी बाल-विवाह करवाया जाता है, तो ऎसे विवाह का कानून की नज़रों में कोई महत्व नहीं होगा। इस कानून में बाल- विवाह करवाने वालों के लिए, जो ऐसा अपराध करने वालों को बढ़ावा देते है, उन सबके लिए सजा का प्रावधान है। ये अपराध करने वालों को 2 साल तक की सजा और जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
और पढ़ें : कोरोना महामारी के दौरान बढ़ती बाल-विवाह की समस्या
दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961
इस कानून के तहत दहेज़ लेने और देने, दोनों पर ही रोक लगी हुई है। दहेज़ की परिभाषा में निम्नलिखित वस्तुएं शामिल हैं (अ) कोई भी संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति (वैल्युएबल सिक्योरिटी) जिसको दे दिया गया है या देने की बात हुई है (ब) संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दी गई है। (स) सम्पति या मूल्यवान प्रतिभूति एक पक्ष से दूसरे पक्ष को दी गई है। अगर कोई भी व्यक्ति दहेज़ लेता है या देता है तो उसे कम से कम पांच साल की सजा हो सकती है और इसी के साथ उस व्यक्ति को कम से कम 15,000 रुपए का जुर्माना (या अगर दहेज़ की राशि इससे ज्यादा थी तो वो) भी भरना होगा।
और पढ़ें: दहेज प्रतिबंध अधिनियम | #LawExplainers
विवाह-विच्छेद अधिनियम
विवाह-विच्छेद अधिनियम,1869 के अंतर्गत ईसाई समुदाय के लोग तलाक ले सकते है। ईसाइयों के बीच तलाक और अन्य वैवाहिक राहत से संबंधित ये एक सामान्य कानून है। इसके अतिरिक्त, अगर हिन्दू, बौद्ध, सिख और जैन धर्म के लोग तलाक लेना चाहते है तो वे हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की मदद ले सकते है। उसी तरह, मुस्लिम और पारसी समुदाय के लोग अपने पर्सनल कानूनों के तहत विवाह-विच्छेद करवा सकते है। मुख्य तौर पर, किसी भी कानून के अंतर्गत शादी के तुरंत बाद ही तलाक नहीं लिया जा सकता, कम से कम एक साल का वक्त बीतना जरूरी है। केवल असाधारण परिस्थितियों में ही, हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत, एक साल का वक़्त बीते बगैर भी तलाक मिल सकता है।
और पढ़ें : भारत में बलात्कार संबंधित कानूनों का इतिहास
तस्वीर साभार : सुश्रीता भट्टाचार्जी