“तुम थक नहीं जाते इन स्टुपिड लड़कियों के पीछे भागते-भागते”, समाज की परिभाषा के अनुसार लड़कों जैसे कपड़े पहनने वाली, लड़कों को बास्केट बॉल के खेल में पीछे कर देने वाली ‘टॉम बॉय’ अंजली फ़िल्म ‘कुछ कुछ होता है’ में ये डायलॉग अपने फिल्म के नायक राहुल (शाहरुख़ खान) से कहती है। हो सकता है कई लोगों को यहां तक कि कई औरतों को इसमें कुछ दिक़्क़त नज़र नहीं आए पर यहीं से जन्म लेता है आंतरिक स्त्रीद्वेष यानी इंटरनलाइज़्ड मिसोजिनी। समाज में स्त्रियों की आज़ादी के लिए एक बड़ा खतरा है आंतरिक स्त्रीद्वेष। पितृसत्ता से निकली यह आत्मघाती सोच स्त्रियों को ख़ुद को और दूसरी स्त्रियों को कमतर मनाने की दिशा में ले जाती है।आंतरिक स्त्रीद्वेष के तहत स्त्रियां खुद लैंगिक भेदभाव का परिचय देती हैं।
अपने आसपास के सभी सामाजिक ढांचों में पितृसतात्मक सिद्धांतों को देखते-देखते अक्सर स्त्रियों को आंतरिक स्त्रीद्वेष के चश्मे से देखने आदत हो जाती है। वे अपने व्यवहार, बाकी स्त्रियों के व्यवहार को पितृसतात्मक सिद्धांतों के पैमाने पर रखकर यह देखती हैं कि वे सही हैं या ग़लत। कई बार स्त्री होने को कमज़ोर मानते हुए वे अपने आप को बाकी स्त्रियों से अलग साबित करने में उनका अपमान करती हैं, मज़ाक बनाती हैं। जैसे “मुझे बाकी लड़कियों की तरह ड्रामा करना नहीं आता”। ‘टॉमबॉय’ शब्द का इजात और इसका इस्तेमाल होना भी इसका उदाहरण है। लड़कों की तरह छोटे बाल रखना, कपड़े पहनना, खेलकूद का शौक रखना, श्रृंगार में कम रुचि रखना ‘टॉमबॉय’ लड़की की पहचान कहे जाते हैं। शब्द में ही अंग्रेजी का ‘बॉय’ शब्द है मतलब ‘लड़कों जैसी।’ यह शब्द इस सोच को पुख्ता करता है कि लड़कियां, लड़कियों जैसी होकर ये काम नहीं कर सकतीं। उन्हें शारीरिक बल वाले खेल खेलने या दौड़ने, भागने, गुस्साने के लिए किसी और पहचान में जाना पड़ेगा यानी एक लड़का बनना पड़ेगा। इसी बिंदु पर स्त्री होने के व्यवहार को समाज नियंत्रित करने की नींव रख देता है।
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हर घर में, हर रिश्ते में थोड़ी-मोड़ी खटपट, अनबन या कहें असहमति की स्थितियां आती रहती हैं। इसके बावजूद सास-बहू, भाभी-ननद जैसे रिश्तों को स्त्रीद्वेष के उदाहरण की तरह प्रचारित किया गया है। चूंकि एक घर में विवाह के बाद आई नई बहू को घर के तौर तरीके समझने में व्यवहारिक समस्याएं आना लाज़मी है। जो फैसले पहले सास या ननद या दोनों साथ में लेती होंगी उनमें एक पारिवारिक सदस्य के तौर पर बहू की भागीदारी आएगी ही। कई बार विचार मिलेंगे, कई बार अलग-अलग होंगे। असहमति की स्थिति को ‘सास-बहू के झगड़े’ बोलकर एक सिद्धान्त या प्रचलित मुहावरे के तौर पर बताया जाना स्त्रीद्वेष को बढ़ावा देना है। नई बहू और नई सास बिना एक दूसरे को जाने समझे इस पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जाती हैं। ऐसी कहानियां इन दोनों स्त्रियों ने बचपन से सुने होते हैं, अपनी माओं से, उनकी माओं से। लड़की आदर्श बहू बनने के नैतिक भार से दबी आती है।
ग्रामीण भारत में आज भी लड़कियों को सिलाई-बुनाई का काम, खाना पकाना न आए या ज्यादातर स्त्रियों के तरह उनके बाल लंबे न हो, साड़ी बांधना नहीं आता हो तो “शादी के बाद सास क्या कहेगी” जैसी बातें उनसे कही जाती हैं। सास के ऊपर बहू को इन बिंदुओं पर नापने का दबाव होता है क्योंकि उसने अपनी बेटी को भी वही सारे प्रशिक्षण देकर किसी और जगह जाने के बाद अच्छी बहू बनने के लिए तैयार करना होता है। छोटी लड़कियों को खिलौने में किचन सेट का तौफा दिए जाने वाले पल ही उसके व्यवहार में खुद को स्त्री होने की सिमिताओं में बंधना कह दिया जाता है। स्त्रीत्व के पैमानों को बलपूर्वक स्त्रियों के जीवन को सफ़ल माने जाने के पैमाने बना दिए जाते हैं। ‘अच्छी मां’,’अच्छी बेटी’,’अच्छी बहू’, इन सभी शब्दों में अच्छाई का पैमाना स्त्री के आत्मनिर्भर होने से डरता है। ‘अच्छी मां’ बनने को स्त्रीत्व की पराकाष्ठा की तरह देखे और सिखाए जाने वाले समाज में अगर कोई स्त्री मां नहीं बनना चाहती तो उसे घर की बाकियों स्त्रियों द्वारा अपने से अलग माना जाता। या तो बहुत ही बोल्ड, या स्वार्थी, ज्यादातर महिलाएं उसके फैसले को लेकर सहज भी नहीं होंगी क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में मातृत्व को सबसे ज्यादा गंभीरता से लिया होता है। स्त्रीद्वेष के चक्र से से निकलने का एक ही तरीका है, ‘सिस्टरहुड’।
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नारीवादी आंदोलनों के दूसरे और तीसरे चरण में ‘सिस्टरहुड’ मौजूद था। सिस्टरहुड किसी भी सामाजिक संस्थान में औरतों को सामूहिक एकजुटता के भाव की तरफ ले जाती है। एक महिला का अन्य महिलाओं खासकर जिनके विचार, जीवन में किए गए छोटे-बड़े चुनाव उससे अलग हैं, उन के प्रति समावेशी रवैया ही ‘सिस्टरहुड’ है। ऑड्रे लार्ड, अमरीकी नारीवादी लेखिका ने कहा था, “मैं तबतक आज़ाद नहीं हूं जब तक एक भी औरत कैद में है। भले ही उसकी बेड़ियां मेरी बेड़ियों से अलग हो।” कई बार स्त्रियों द्वारा किए गए चुनाव जैसे किसी स्त्रीविरोधी तरीके से मनाए जा रहे त्योहार का हिस्सा बनना या बाजार और समाज द्वारा उनपर थोपी गई सुंदरता की परिभाषा पर खरा उतरने की कोशिशें करना स्वतंत्र चयन नहीं होते। ‘सिस्टरहुड’ आपको इन चयनकर्ता स्त्री की मनोदशा और उनके सामाजिक बेड़ियों को समझने की दिशा में प्रेरित है। उन्हें अपने चयन के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से काम कर रही सांस्कृतिक या बाज़ारवादी ढकोसले का उन्हें एहसास करवा पाने से प्रेरित है। ना कि उन्हें कम समझदार, पिछड़ा, शोषित कहकर उनके संघर्षों को खारिज़ कर देने से।
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स्लट शेमिंग, यानी किसी महिला के चरित्र को उसके कपड़ों, सोशल मीडिया की उपस्थिति, मेकअप, दोस्तों की संगति या कोई भी बहाना देकर ख़राब मानना। ‘बॉडी शेमिंग’, यानी किसी एक तरह के रंग, वज़न, बालों की लंबाई, कोई भी शारीरिक बनावट के कारण बुरी दिखने वाली महिला कहना आंतरिक स्त्रीद्वेष का ही उदाहरण हैं। स्त्रीद्वेष लगातार महिलाओं को एक दूसरे की प्रतिद्वंद्वी सिर्फ इसलिए मानने पर मजबूर करता है क्योंकि उन्हें लगता है कि महिला के रूप में किसी से महिला से बेहतर दिखना या होना है। यह स्वास्थ्य प्रतिस्पर्धा से एकदम विपरीत है। इस कारण दूसरी स्त्री को योग्यताहीन लेकिन मौकापरस्त बताने की मानसिकता का जन्म होता है। ऑफिस स्पेस में किसी महिला की तरक्की होने से लेकर परिवार के निज़ी व्यक्तिगत घेरों में यह मानसिकता काम करती दिख जाएगी। अपने आप को बेहतर करने की कोशिश में स्त्री दूसरी स्त्री को ‘स्त्रियां कम दिमाग़ होती हैं’ के नज़र से देखने लग पड़ती है।
सिस्टरहुड इस सोच को तोड़ती है। अपने जेंडर के कारण सभी स्त्रियों को रोज़मर्रा के जीवन में अपने तरह के होने की वजह से कुछ न कुछ नाम दे दिए जाते हैं। ‘बहुत बोल्ड’, ‘बहनजी’, ‘कुछ ज़्यादा ही स्त्रीवादी’, ‘दब्बू’, ‘ सांवली बदसूरत’, ‘कुछ ज्यादा ही गोरी’, कई तरह के नाम हैं। ऐसे नाम पुरुषों के लिए नहीं बने हैं। इन नामों के रखे जाने के पीछे की आंतरिक स्त्रीद्वेष सोच एक जितनी ही स्त्री-विरोधी है। इसे समझते हुए अपने से अलग स्त्री को समाज द्वारा रखे इन नामों के खांचों में रखकर नहीं देखना ही सिस्टरहुड है।आंतरिक स्त्रीद्वेष हमारी अपनी और स्त्रियों की साझी लड़ाई को कमज़ोर करती है। इसे अपने व्यवहार में चिन्हित करना और खत्म करने प्रक्रिया में शामिल रहना हमारी और हमारे आसपास की स्त्रियों के जीवन को थोड़ी कम थकाऊ बना सकती है
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तस्वीर: श्रेया टिंगल