मुंबई स्थित ‘परचम’ एक नारीवादी समूह है जो सामाजिक न्याय और विविधता का पक्षधर है। ‘परचम’ ने टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान के ‘एडवांस्ड सेंटर फॉर वीमेन्स स्टडीज़’ विभाग के साथ एक अहम स्टडी में हिस्सा लिया था। यह स्टडी कार्यस्थल पर मुस्लिम होने के कारण होने वाले अनुभवों का दस्तावेज़ीकरण है। इस स्टडी के मुताबिक मुस्लिम होने की धार्मिक पहचान के कारण रोज़गार के क्षेत्र में झेले गए भेदभाव पर कुछ ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस प्रक्रिया में पहले तो फॉर्मल सेक्टर में काम करने वाली मुस्लिम महिलाओं पर ध्यान केंद्रित किया जाना था। हालांकि इस स्टडी के दायरे को विषय के अनुसार और व्यापक बनाने के लिए पुरुषों को भी इस में शामिल किया गया। मुंबई और दिल्ली, इन दो शहरों को इस में इसलिए शामिल किया गया क्योंकि मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी और दिल्ली नीतियां बनाये जाने का शहर है। दोनों शहर रोजगार और जीवन यापन की असीम संभावनाएं और अवसर पेश करते हैं।
रिपोर्ट में कुछ सरकारी आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। साल 2005 में बनी सच्चर समिति के अनुसार वेतनभोगी रोजगार क्षेत्र में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बेहद कम है। वे अनुपातहीन रूप में मज़दूरी, छोटे स्तर के खानदानी उद्योगों, हाथ का काम जैसे सिलाई-कढ़ाई इत्यादि में भागीदार हैं। सिविल सेवा, सुरक्षा बल, रक्षा विभाग में उनकी संख्या बेहद कम है। इस कमिटी के अनुसार भारत की आज़ादी के बाद से कभी भी धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति पर विचार करने और नीतिबद्ध तरीक़े से उसका हल निकालने की कोई सफल कोशिश नहीं नज़र आती। सच्चर समिति के अनुसार साल 2001 में मुसलमानों की साक्षरता दर 59.1 फ़ीसद थी जो राष्ट्रीय साक्षरता दर(64.8 फ़ीसद) से कम रही। मुस्लिम युवाओं में बेरोजगार शहर और गांव दोनों ही जगहों पर देखी गई है।
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स्टडी में शामिल जामिया मिलिया इस्लामिया से शुरुआती पढ़ाई करने वाली एक मुस्लिम विद्यार्थी बताती हैं कि उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में दाख़िला लेते समय इस पूर्वाग्रह को चुनौती देना चाहा था कि अगर आप मुस्लिम है तो ज़ामिया में ही पढ़ाई करेंगी। शिक्षित होने वाली पहली पीढ़ी की पहली पसंद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी रही है। यह चुनाव उस यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्ज़े की वज़ह से नहीं बल्कि उसकी प्रसिद्धि और वहां लगने वाले कम ख़र्चे की वजह से है।
स्टडी में शामिल एक महिला बताती हैं कि कार्यस्थल पर होने वाली राजनीतिक बहस से वह इतनी तक गई थीं कि चुनाव के नतीजे जिस दिन आने थे उस दिन उन्होंने छुट्टी ले रखी थी। एक और व्यक्ति बताते हैं कि उन्हें उनके सहकर्मी यह कहकर चिढ़ाया करते थे कि बीजेपी जीत जाएगी तो उनके दुख की सीमा नहीं रहेगी।
स्टडी में शामिल धर्म के आधार पर भेदभाव के अनुभव
एक मुस्लिम पुरुष बताते हैं कि शहरी स्कूल में पढ़ने के दौरान उन्हें ‘कटुआ’ शब्द से संबोधित कर चिढ़ाया गया था। वहीं एक महिला बताती हैं कि अक्सर उनकी दोस्त उनसे उनके पहचान को लेकर सवाल करती थी। उस महिला के अनुसार यह सवाल उत्सुकता के कारण पूछे जाते थे। एक अन्य मुस्लिम महिला अपने स्कूली दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि जब वे आठवीं क्लास में थी तब उनकी शिक्षक ने उनसे तीन तलाक़ और हलाला से जुड़े सवाल किए थे। उस उम्र का कोई बच्चा इसका ठीक जवाब कैसे दे सकता था। वह अपनी शिक्षक के बारे में कहती हैं, “वे मुझसे प्यार करती थीं। पता नहीं ये दो अलग बर्ताव कैसे साथ चल रहे थे।” अन्य मुस्लिम समुदाय के लोगों ने ऐसे ही कुछ अनुभव गिनवाए। ये अनुभव नाज़िया एरम की किताब ‘मदरिंग अ मुस्लिम'(2018) में दर्शाए गए स्कूली क्लासरूम के बर्ताव से मेल खाती हैं जिसमें मुस्लिम बच्चों को गैर-मुस्लिम बच्चों द्वारा चिढ़ाए जाने के अनुभव की बात की गई है।
स्नातक करने वाली पहली मुस्लिम पीढ़ी के लोगों के अनुसार नौकरी के लिए उन्होंने अलग-अलग वेबसाइट पर अपनी सीवी भेजी थी। कहीं से सकारात्मक जवाब नहीं आया। नौकरी मिलने में नेटवर्किंग मददगार साबित होती है। स्टडी में हिस्सा लेने वाले ज्यादार लोगों के मुताबिक जिन्होंने नौकरी पाई वे अपनी कंपनी में पहले मुस्लिम कर्मचारी थे। भले ही उन कंपनियों में पहले से सौ से ऊपर लोग काम कर रहे थे।
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स्टडी में शामिल एक कामकाजी पुरुष बताते हैं, ” कार्यस्थल पर थोड़ा-बहुत रहता है मुस्लिम नॉन मुस्लिम का। एक बार एक सहकर्मी ने कहा था कि भारत-पाकिस्तान के मैच में पाकिस्तान जीता तो मुम्ब्रा में बम्ब फटेगा।” कई लोगों के मुताबिक ऑफिस उनकी अच्छी कार्यशैली और बर्ताव की वजह से उन्होंने कभी भेदभाव नहीं झेला लेकिन वे अपनी धार्मिक पहचान को लेकर हमेशा सजग रहते हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति बताते हैं कि रोज़े के दौरान इफ्तार के दिनों में वह जल्दी ऑफिस चले जाया करते थे ताकि शाम में जल्दी घर जाने में उन्हें ऑफिस प्रशासन से इजाजत मिलने में दिक्कतें न आए।
स्टडी में शामिल एक मुस्लमान महिला बताती हैं कि कार्यस्थल पर होने वाली राजनीतिक बहस से वह इतनी तक गई थीं कि चुनाव के नतीजे जिस दिन आने थे उस दिन उन्होंने छुट्टी ले रखी थी। एक और व्यक्ति बताते हैं कि उन्हें उनके सहकर्मी यह कहकर चिढ़ाया करते थे कि बीजेपी जीत जाएगी तो उनके दुख की सीमा नहीं रहेगी। एक अन्य व्यक्ति ने ऑफिस वॉट्सअप ग्रुप पर एक संदेश भेजे जाने की बात बताई जिसमें कोविड फैलने में तब्लीगी जमात के हवाले से सभी भारतीय मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा था। “आप मुस्लिम जैसे दिखते नहीं” जैसे वाक्य तारीफ़ में बोले जाने से इस स्टडी में कई लोगों ने परेशानी जताई। जिस दिन अज़मल कसाब को फांसी दी गई एक मुस्लिम महिला को उनके सहकर्मी ने ताना मारते हुए कहा, “आप दुःखी होंगी”।
(इस स्टडी में दस्तावेज़ीकरण के नैतिक मूल्य जैसे बोधित सहमति यानी कि इंफोर्मेड कंसेंट को प्रभाव में लाया गया है।)
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