किसी देश में किसी भी विषय या विचारधारा पर आम सहमति का होना उस विषय या विचारधारा के सामानांतर खड़े दल के लिए बेहद ज़रूरी होता है। यह इसलिए क्योंकि यही वह स्थिति है जब जनता में वह दल सत्ता हासिल करने की सहमति का निर्माण कर सकता है। चूंकि यह काम मीडिया के विभिन्न रूपों को इस्तेमाल करते हुए एक तंत्र बनाकर किया जाता है, ऐसे में देश के बुद्धिजीवी तबके का यह फ़र्ज़ बन जाता है कि वह इस एजेंडे को ‘एक्सपोज़’ करके जनता को ‘कृत्रिम भ्रम’ से बाहर निकाले। स्वाभाविक रूप से स्टेट यह नहीं चाहेगा कि ऐसा हो इसलिए अक्सर बुद्धिजीवी तबका और सरकार आमने-सामने दिखाई देते हैं। इस द्वन्द की कीमत सामने खड़े बुद्धिजीवी वर्ग के किसी आदमी को चुकानी पड़ती है। हाल ही में अशोका यूनिवर्सिटी में कार्यरत और देश के बुद्धिजीवियों में से एक माने जाने वाले प्रताप भानु मेहता का इस्तीफा इसी द्वन्द का नतीजा है। लेकिन इस बात को और गहराई से समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि प्रताप भानु मेहता आखिर हैं कौन और क्यों उनका इस्तीफ़ा आज एक ‘सरकारी ज़रूरत’ है।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के सेंट जोन्स कॉलेज से फिलॉसफ़ी, पॉलिटिक्स एंड इकोनॉमिक्स में अपना ग्रेजुएशन पूरा करने वाले मेहता ने प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी से अपनी पीएचडी हासिल की। वह सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च के लिए बतौर अध्यक्ष भी अपनी सेवाएं दे चुके हैं मगर उनका यह परिचय इस्तीफे के कारणों का हिस्सा नहीं है। दरअसल मेरे जैसे विद्यार्थियों से उनका परिचय इंडियन एक्सप्रेस में कॉलम लिखने वाले लेखक के रूप में है। यही परिचय देश के उस अंग्रेज़ी बोलने-समझने वाले अपर मिडिल क्लास के बीच प्रचलित है जो रोज़ सुबह अखबार में अपनी नज़रें दौड़ाता है।
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मगर तमाम बड़ी डिग्रियों के बरक्स उनके परिचय का यह पहलू क्यों महत्वपूर्ण हो जाता? ऐसा इसलिए क्योंकि जन सहमति बनाने में मिडिल क्लास की ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसे में जब टीवी के माध्यम से स्टेट लोगों में कट्टर दक्षिणपंथ के लिए सहमति बनाने का प्रयास कर रहा हो तब वह अपने तंत्र में किसी भी तरह का लूपहोल नहीं रखना चाहता है। प्रताप भानु मेहता वही लूप होल हैं जो अपने लेखों के माध्यम से सरकार के फैसलों का लगातार विरोध करते रहे हैं। गौरतलब है कि यह वही मेहता हैं जिन्होंने साल 2014 में नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री के लिए दावेदारी का समर्थन भी किया था मगर नरेन्द्र मोदी द्वारा प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने के बाद से मेहता प्रतिरोध की सबसे मुखर आवाजों में से एक भी रहे हैं। हालांकि ऐसे समय में जब पब्लिक यूनिवर्सिटीज़ की स्वायत्ता पर क्रूरता से हमला हो रहा हो, किसी निजी विश्वविद्यालय में होने वाली यह घटना विशेष न होकर उसी कड़ी का हिस्सा लगती है। इन दोनों घटनाओं में केवल ‘गवर्नेंस’ के तरीके का अंतर है। एक ओर जहां पब्लिक यूनिवर्सिटी में यह काम सरकार सीधे तौर पर प्रशासन के ज़रिए करती है, वहीं दूसरी ओर निजी विश्वविद्यालयों पर अप्रत्यक्ष दबाव बनाकर यह काम किया जाता है।
अकादमिक जगत की मौजूदा खस्ताहाल के लिए वह लोग भी बराबर ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने अतीत में दक्षिणपंथ को समर्थन दिया है। ऐसे में प्रताप भानु अनायास ही उस व्यवस्था के शिकार हो गए हैं जिसके शिलालेखों के फुटनोट में उनका भी नाम दर्ज है।
जर्मन दर्शनशास्त्री जर्गन हेबरमास ‘पब्लिक स्फीयर’ की अवधारणा पर बात करते हुए कहते हैं कि इसका चरित्र तय परंपराओं के प्रति बेहद आलोचनात्मक होता है। यूनिवर्सिटी जैसे पब्लिक स्फीयर ही किसी भी पॉलिटिकल एक्शन को तय करते हैं। देश में हुआ जेपी आंदोलन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यूनिवर्सिटी स्पेसेज़ केवल पढ़ाई के लिए ही नहीं होते बल्कि ये वे जगहें होती हैं जहां पढ़ने वाला कोई भी शख्स अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करता है। इसी क्रम में कोई भी इंसान तार्किक होता है जिसके फलस्वरूप वह उन बातों का प्रतिरोध करना सीखता है। मगर बीते कुछ सालों में यूनिवर्सिटीज़ के प्रशासन द्वारा ही ऐसे कदम उठाए गए हैं, जिससे कोई भी छात्र तार्किक होने से बचने लग जाए।
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इसी कड़ी में एक घटना देश में पत्रकारिता की पढ़ाई के सबसे अच्छे संस्थान माने जाने वाले आईआईएमसी में घटित हुई। इस संस्थान में बीते कई सालों से विरोध-प्रदर्शन के बावजूद फीस में लगातार इजाफ़ा किया जा रहा है। इस सत्र में भी यह क्रम जारी रहा साथ ही चूंकि सत्र की शुरुआत के दौरान कोरोना के कारण देशभर में लॉकडाउन की स्थिति बनी हुई थी इसलिए संस्थान द्वारा सत्र का पहला सेमेस्टर ऑनलाइन चलाने का निर्णय लिया गया। ऐसे में जब छात्र लाइब्रेरी जैसी सुविधाओं से वंचित थे तब भी उनसे इन सबकी फीस वसूल की गई। अब जब देशभर में बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियां हो रही हैं तो छात्रों की मांग है कि कैंपस को खोलकर फिज़िकल क्लास करवाई जाएं वरना छात्रों की अतिरिक्त फीस वापस की जाए मगर संस्थान इन शर्तों को मंज़ूर करने को तैयार नहीं है। इसके विरोध में कुछ छात्रों ने अपनी गूगल डीपी बदलकर संस्थान का विरोध किया। ऐसी ही एक घटना साल 2019 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया में घटित हुई जब यूनिवर्सिटी में इज़राइल द्वारा प्रायोजित एक कार्यक्रम का विरोध करने पर पांच छात्रों को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया था।
यहां यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि अकादमिक जगत की हालिया स्थिति के लिए अकेले सरकार ही ज़िम्मेदार नहीं है बल्कि देश का बुद्धिजीवी तबका भी इसके नाश में बराबर योगदान देता आया है। साल 2005 में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री रहे अर्जुन सिंह द्वारा लाई गई नीतियों के बाद देश भर में निजी विश्विद्यालयों की संख्या अचानक से बढ़ी। ये नए विश्वविद्यालय आर्थिक रूप से संपन्न थे मगर इन्हें बौद्धिक रूप से सबल करने का काम प्रताप भानु मेहता जैसे लोगों ने ही किया। देश की पब्लिक यूनिवर्सिटीज़ को छोड़कर निजी विश्विद्यालयों को चुनने का निर्णय लेकर इन बुद्धिजीवियों ने भविष्य में पब्लिक यूनिवर्सिटी की निजीकरण को दिशा देने का काम किया यकीनन उस ‘पब्लिक स्फीयर’ के बनने से स्टेट के साथ-साथ कॉरपोरेट भी डरता है और यही कारण है कि जो सरकारी चाबुक अब तक पब्लिक यूनिवर्सिटी पर चल रही थी, उसका उद्देश्य अब सभी तरह के प्रतिरोध ख़त्म करने हैं।
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अकादमिक जगत के मौजूदा हाल के लिए यह बुद्धिजीवी कैसे ज़िम्मेदार हैं, यह तवलीन सिंह और प्रताप भानु मेहता के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। प्रताप भानु की ही तरह तवलीन भी ऐसी पत्रकार रही हैं जिन्होंने सरकार के कदमों का समर्थन किया है। हालांकि यहां हमें इन दोनों की तुलना से बचना चाहिए क्योंकि सरकार के समर्थन के मामले में तवलीन बहुत आगे खड़ी नज़र आती हैं। मगर यह उदाहरण महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये वो लोग थे जिन्होंने भारत में दक्षिणपंथ के उत्थान में अपनी बड़ी भूमिका निभाई थी। जब मेहता साल 2014 में नरेंद्र मोदी का समर्थन करते हैं तो दरअसल वह अपनी अदूरदर्शिता और कूपमंडूकता का ही परिचय देते नज़र आते हैं। साथ ही यह बात कि दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के साथ ही अभिव्यक्ति की आज़ादी पर खतरा मंडराने लगेगा और पूंजीवाद का चहुंमुखी ‘विकास’ होगा, समझना इन बुद्धिजीवियों के लिए कठिन हो गया था, आज इसपर यकीन करना मुश्किल हो जाता है।
तवलीन सिंह अपने तमाम साक्षात्कारों में पूंजीवाद को खुला समर्थन करती हुई नज़र आती हैं। न्यूज़लाउंड्री को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि वह मोदी का समर्थन करती रहीं थीं क्योंकि उन्हें लगता था कि यूपीए राज में अर्थव्यवस्था को लेकर समाजवादी रुख अपनाया गया था जबकि मोदी एक ऐसे नेता लगते थे जो पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करेंगे। हालांकि तवलीन सिंह को अपना वह गूढ़ ज्ञान भी साझा करना चहिए था। यह इन बुद्धिजीवियों का बौद्धिक दिवालियापन ही है जिसके चलते आज दक्षिणपंथी अपनी जड़ें समाज में ऐसे जमा चुके हैं कि यहां लिंचिंग को भी सामाजिक मान्यता प्राप्त हो चुकी है। इस दिवालियेपन को ऐसे समझिए कि तवलीन की ही तरह मेहता भी अपने लेखों में आरक्षण के बजाय ‘अफर्मेटिव एक्शन’ की वकालत बिना उसका कोई ठोस खाका बताए करते रहे हैं। हमनें अपनी समाजशास्त्र की किताबों में यह पढ़ा है कि अफर्मेटिव एक्शन से तात्पर्य किसी भी वंचित तबके के उत्थान के लिए अपनाए गए उन तरीकों से है जो समाज के शेष वर्ग के साथ ‘पॉज़िटिव डिस्क्रिमिनेशन’ करता है। आरक्षण भी ऐसी ही एक व्यवस्था है जहां दलित, बहुजन और आदिवासी तबके के उत्थान के लिए किसी भी जगह इन तबकों को सवर्णों से ऊपर वरीयता दी जाती है। ऐसे में प्रताप भानु मेहता के लिए ‘अफर्मेटिव एक्शन’ का क्या मतलब है, यह आज भी रहस्य का विषय है। चूंकि किसी भी समाज में मौजूद संस्थान उस समाज की मौजूदा स्थिति के अनुरूप ही कार्य करते हैं ऐसे में उनके हाल के लिए सामाजिक परिस्थितियों के कारक पर ध्यान देना लाज़मी हो जाता है यही कारण है कि हमें यह कहना पड़ रहा है कि अकादमिक जगत की मौजूदा खस्ताहाल के लिए वह लोग भी बराबर ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने अतीत में दक्षिणपंथ को समर्थन दिया है। ऐसे में प्रताप भानु अनायास ही उस व्यवस्था के शिकार हो गए हैं जिसके शिलालेखों के फुटनोट में उनका भी नाम दर्ज है।
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