अच्छी ख़बर कल्पना सरोज : कहानी देश की पहली दलित महिला उद्यमी की

कल्पना सरोज : कहानी देश की पहली दलित महिला उद्यमी की

कल्पना वापस अपने गांव अकोला जाकर वहां खेती करना चाहती हैं और साथ ही पूरे गांव और वहां की महिलाओं के लिए उद्योग के रास्ते खोलना चाहती हैं।

जब भी आप किसी से, बच्चे से लेकर बड़े से पूछेंगे कि किसी भी आन्ट्रप्रनुर यानि उद्यमी का नाम बताएं तो वे आपको पुरुषों के नाम गिनाने लगेंगे। इन पुरुषों में भी सवर्ण पुरुष ही भारी संख्या में मौजूद होंगे। हक़ीक़त भी ऐसी ही है। साल 2005 में हार्वर्ड बिजनेस स्कूल द्वारा किए गए सर्वेक्षण में सामने आया कि भारत में दलितों द्वारा चलाए जाने वाले उद्योग सिर्फ 9.6% ही हैं। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ दलित स्टडीज के अनुसार 96 फीसद इसमें से लघु उद्योग हैं जिनमें महिलाएं मुश्किल से ही पाई जाती हैं। ऐसा इसीलिए क्योंकि हमारे देश में इतिहास से लेकर वर्तमान तक पूंजी एक तरह के वर्ग के हाथ में रही है। लेकिन आज हम बात करेंगे महिला उद्यमी की जो इस देश की पहली दलित महिला उद्यमी हैं और उनका नाम है पद्मश्री कल्पना सरोज। साल 2013 में इन्हें ट्रेड एंड इंडस्ट्री फील्ड में पद्मश्री पुरस्कार से नवाज़ा गया था। ये इस वक़्त कमानी ट्यूब्स कंपनी, मुंबई, महाराष्ट्र की सीईओ हैं, टेड एक्स स्पीकर हैं, कल्पना सरोज फाउंडेशन जो महिलाओं के मुद्दे पर काम करता है, उस एनजीओ की फाउंडर हैं। आज के समय में इनकी कंपनी की सालाना आय 750 करोड़ है।

देश की पहली महिला उद्यमी के साथ पहली दलित महिला जोड़कर मैंने इसीलिए लिखा क्योंकि जाति और पितृसत्ता के दोहरे दंश को दलित महिलाएं झेलती हैं। वहीं कोई भी सवर्ण महिला के संघर्ष के आड़े पितृसत्ता तो आती है लेकिन जाति नहीं। आप यह बात खुद कल्पना सरोज की जीवन यात्रा आगे पढ़ते हुए महसूस कर पाएंगे। साल 1961 में रोपरखेडा महाराष्ट्र के एक गरीब दलित परिवार में जन्मी कल्पना सरोज के पिता महादेव अपने ही गांव में पुलिस कांस्टेबल थे। उनके पिता बहुत पढ़े- लिखे तो नहीं थे लेकिन क्योंकि कल्पना को पढ़ने में दिलचस्पी थी, इसीलिए उन्होंने कल्पना को गांव के ही सरकारी विद्यालय में पढ़ने भेज दिया जहां उनके शिक्षक उनसे कभी ठीक ढंग से पेश नहीं आए। उनके कक्षा के बाकी बच्चे उनसे अलग बैठते थे क्योंकि वह एक दलित थीं। बाकी बच्चों के मां बाप, शिक्षकों को यह पसंद नहीं था कि कोई दलित वह भी लड़की उनके साथ पढ़े। सातवीं कक्षा में उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा। कल्पना आगे और पढ़ना चाहती थीं लेकिन गांव और दलित समुदाय, लड़कियों की शादी छोटी उम्र में ही करने का रिवाज था। इसीलिए उनकी शादी 12 साल की उम्र में ही कर दी गई। उन्हें उस भट्टी में झोंक दिया गया जहां आज भी तमाम लड़कियां, औरतें घरेलू शारीरिक और मानसिक हिंसा का सामना कर रही हैं। जहां से वे चाहकर भी लौट नहीं पाती क्योंकि इस देश में लड़कियों को शुरू से सिखाया जाता है, “मायके से डोली, ससुराल से अर्थी ही उठनी चाहिए वरना घरवालों की नाक कट जाती है, इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाती है।” कल्पना ने भी ऐसी हिंसा का सामना किया और उन्होंने ज़हर खाककर अपनी जान देने की भी कोशिश की।

साल 2011 के सोशियो इकनॉमिक कास्ट सेंसस के अनुसार देश के 45 फीसद दलितों के पास ज़मीन नहीं है। इसीलिए एक दलित महिला कल्पना सरोज का रियल एस्टेट में कदम रखना, कॉरपोरेट की पूरी हेजेमनी को तोड़ना था।

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कल्पना के पिता शादी के छह महीने बाद जब अपनी बेटी से मिलकर देखते हैं कि उस पर शारीरिक हिंसा हुई है, वह बिना ये सोचे कि “चार लोग क्या कहेंगे” अपनी बेटी को वापस घर ले आते हैं और कभी वापस ससुराल में नहीं भेजते। घर आकर कल्पना को आस-पड़ोस के ताने भी झेलने पड़ें। 15 साल की होने पर कुछ कर गुज़रने का दम भरा तो अपने किसी चाचा के साथ वह मुंबई आ गईं और गारमेंट फैक्ट्री में बतौर असिस्टेंट टेलर काम करने लगीं। वक़्त के साथ टेलरिंग में उनका हाथ जम गया तो वह सीनियर टेलर बनीं। इसी बीच उनकी छोटी बहन का दवा जैसी मूलभूत सुविधा ना मिलने के कारण देहांत हो गया जिससे कल्पना को ये दिमाग में बैठ गया कि बिना पैसे के कुछ भी संभव नहीं। एक रोज़ काम करते-करते रेडियो के ज़रिये उन्हें दलितों के लिए खास कामकाजी लोन के प्रोग्राम के बारे में पता चला, तब वह लोन लेती हैं और अपने घर कुछ सिलाई मशीन लाती हैं और बाकी औरतों के साथ काम शुरू कर देती हैं। काम बढ़ने लगा तो उन्होंने टेलरिंग के साथ-साथ फर्नीचर का काम शुरू कर दिया। इसी बीच साल 1980 में उनकी शादी समीर सरोज से हो जाती है जिनका स्टील फर्नीचर का बिज़नेस था लेकिन कुछ सालों बाद ही उनके जीवन साथी की असमय मृत्यु हो जाती है।

कल्पना के जीवन का पड़ाव तब बदलने लगा जब एक दिन एक व्यक्ति उनसे आकर कहता है कि कल्पना उसकी ज़मीन डेढ़ लाख में खरीद लें क्योंकि उसे रुपयों की ज़रूरत है। इस ज़मीन के साथ कोई कानूनी दांव-पेंच जुड़ा हुआ था। लेकिन कुछ महीनों के भीतर कल्पना ने केस जीत लिया और डेढ़ लाख में खरीदी ज़मीन की कीमत पचास लाख का मूल्य पार कर चुकी थी। यहीं से कल्पना रियल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन के बिज़नेस में कदम रखती हैं। साल 2011 के सोशियो इकनॉमिक कास्ट सेंसस के अनुसार देश के 45 फीसद दलितों के पास ज़मीन नहीं है। इसीलिए एक दलित महिला कल्पना सरोज का रियल एस्टेट में कदम रखना, कॉरपोरेट की पूरी हेजेमनी को तोड़ना था। इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख के अनुसार मुश्किलें तब बढ़ गईं जब साल 1999 में कल्पना को मारने के लिए सुपारी दी गई। उत्तर भारत में एक ठाकुर समुदाय के आदमी से वह ज़मीन खरीदती हैं जो कानूनी दांव-पेंच में उलझी हुई थी। बाकी ठाकुरों को यह बात भला कैसे रास आती कि जिन महिलाओं को उसमें भी दलितों को दबाकर रखने में मज़ा आता है वे उनकी जमीनों पर बिजनस करें लेकिन सरोज की हत्या के उद्देश्य से दी गई सुपारी हर बार नाकामयाब रही।

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आप देखेंगे यही काम किसी सवर्ण महिला के हाथों होता तो शायद ही हत्या जैसी धमकियां दी जातीं। इसीलिए मैंने शुरू में जाति और पितृसत्ता को दलित महिलाओं के लिए दोहरा दंश कहा। वक़्त बढ़ता गया, कल्पना का काम ठीक-ठाक चलता रहा। साल 2006 में कमानी ट्यूब्स कंपनी के कामगार कल्पना सरोज से मदद मांगने आते हैं और वह पूरी कमानी ट्यूब्स कंपनी को खरीद लेती हैं लेकिन यहां भी उनकी जाति पीछा नहीं छोड़ पाई। कंपनी के वर्कर्स यूनियन, जिसमें सवर्ण कर्मचारी भी शामिल थे उन्होंने कल्पना पर कोर्ट में आरोप लगाए कि 97 में से 63 वर्कर्स को कल्पना ने काम पर नहीं आने दिया है उनके पैसे नहीं दिए जिसके जवाब में कल्पना ने कहा कि उन्होंने सबको काम दिया और बल्कि ज़्यादा शेयर दिया। 

उनकी कंपनी ने अच्छा प्रदर्शन किया और आज वह उसी डूबी हुई कंपनी को ऐसे मुकाम पर ले आई हैं जिसका सालाना टर्नओवर 750 करोड़ है। कल्पना सरोज कहती हैं, “आइवी लीग डिग्री और फैंसी एमबीए आपको उद्यमी नहीं बनाती हैं। धैर्य, दृढ़ता और अपने आप में विश्वास रखने की अलौकिक क्षमता आपको उद्यमी बनाती है।” ऐसी परिस्थितियों में कल्पना सरोज का इस तरह महिला उद्यमी बनके उभरना बाकी महिलाओं के लिए सच में प्रेरणा का श्रोत है। कल्पना वापस अपने गांव अकोला जाकर वहां खेती करना चाहती हैं और साथ ही पूरे गांव और वहां की महिलाओं के लिए उद्योग के रास्ते खोलना चाहती हैं। वह अपना प्रेरणास्रोत बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर को बताते हुए कहती हैं, “अगर बाबा साहेब, वह सपोर्ट जो मुझे मिला उसके बिना इतना सब कुछ कर गए तो मैं कुछ प्रतिशत तो काम कर ही सकती हूं।” आंबेडकरवादी होने के साथ-साथ वह एक बुद्धिस्ट भी हैं।

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तस्वीर साभार : गूगल

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