आर्टिकल 15, मैडम चीफ़ मिनिस्टर, इन फिल्मों से आप परिचित होंगे। जाति के मुद्दों पर बनी ये दोनों हिंदी फिल्में इसी जाति व्यवस्था द्वारा शीर्ष पर बिठाए गए लोगों की नज़र से थीं। एक सवर्ण दलितों के मुद्दों को कैसे देख रहा है? ये फिल्में बस उतना ही विचार समेटे हुए थीं लेकिन मैं आज बात करना चाहती हूं कर्णन फ़िल्म को लेकर। कर्णन मारी सेल्वाराज द्वारा निर्देशित तमिल फिल्म है जिसे फिलहाल इंग्लिश सबटाइटल्स के साथ देखना ही मुमकिन है। हालांकि फिल्म देखते हुए भाषा की ज़रूरत भी महसूस होना बंद हो जाती है क्योंकि सभी कलाकारों का अभिनय ख़ुद भाषा का निर्माण कर रहा है। धनुष ने कर्णन का मुख्य किरदार निभाया है। फिल्म तमिलनाडु के थूठुकुदी ज़िला के कोडियांकुलम गांव में 1995 में हुई जातीय हिंसा से प्रेरित लगती है।
फ़िल्म एक बच्ची के हॉस्पिटल ना पहुंच पाने के कारण क्योंकि उसके गांव में कोई बस स्टॉप नहीं था जहां कोई बस रुके तो शहर पहुंचा दे, इस कारण से वह बच्ची बीच सड़क पर तड़पते हुए अपनी जान गंवा देती है, जो दरअसल कर्णन की छोटी बहन होती है। सीन आगे बढ़ते हुए सड़क पर पड़ी बच्ची की लाश पर एक मुखौटा लगा देखा जा सकता है जो गांव के क्षेत्रीय देवता/देवी सी लगती है। मारी ने इस फिल्म में तमिलनाडु में दलित समुदाय में क्षेत्रीय त्यौहार, परंपराएं, बिना सिर वाले देवी-देवता जो पूजे जाते हैं, दिखाए हैं। ऐसा दिखाया जाना ज़रूरी था ताकि लोग ये जानें इस देश में बहुसंख्यक हिन्दू संस्कृति ही सिर्फ संस्कृति नहीं है, सबल्टर्न की भी अपनी एक संस्कृति है जिसे वे फॉलो करते रहे हैं जो हिन्दू देवी-देवताओं से अलैग है। किसी एक गांव से ट्रांसपोर्ट जैसी मूलभूत सुविधा इस नाम पर नहीं दी जाती क्योंकि उसमें दलित रहते हैं। ये फिल्म की पटकथा का फाउंडेशन स्टोन था लेकिन असलियत भला इससे कहां अलग है। मूलभूत सुविधाओं के अभाव में नहीं, बल्कि सिस्टम द्वारा मुहैया ना कराए जाने कर कितने दलित अपनी जान गंवाते हैं जिसमें कि बस तो इस देश का वो अभिन्न हिस्सा है जिसके आगे लोगों की जान सस्ती हैं।
मारी ने इस फिल्म में तमिलनाडु में दलित समुदाय में क्षेत्रीय त्यौहार, परंपराएं, बिना सिर वाले देवी-देवता जो पूजे जाते हैं, दिखाए हैं। ऐसा दिखाया जाना ज़रूरी था ताकि लोग ये जानें इस देश में बहुसंख्यक हिन्दू संस्कृति ही सिर्फ संस्कृति नहीं है, सबल्टर्न का भी अपनी एक संस्कृति है जिसे वे फॉलो करते रहे हैं जो हिन्दू देवी-देवताओं से अलैग है।
फिल्म के मध्य में एक सीन में छोटा बच्चा सड़क से गुजरती बस में पीछे से पत्थर मार देता है ताकि बस रुके और उसकी गर्भवती मां अस्पताल जा सके। बस रुकती है तो बस के कंडक्टर, ड्राइवर सभी वहां मौजूद गांव के लोगों को मारने आते हैं तब कर्णन और उसके साथी उन्हें भी पीटते हैं और बस को पूरे रोष के साथ तोड़ते हैं। ये रोष फालतू नहीं था। उसी बस की सुविधा ना होने पर, कॉलेज जाती लड़कियों के साथ लड़के यौन हिंसा करते हैं, गांव के लोग परेशान रहते हैं, गर्भवती औरतें घंटों धूप में खड़ी रहती हैं। ऐसा एक दिन या एक साल नहीं बल्कि पीढ़ियों से होता चला आ रहा है। आप गुस्से का अंदाज़ा लगा नहीं सकते। इस ‘सहन’ करते रहने से जो गुस्सा/हिंसात्मक प्रविृत्ती पनपती है वह अकादमिक भाषा में एक आदर्श सुझाव नहीं है, मोरेलिटी नहीं है लेकिन ये भाषा ज़मीन पर सहते आदमी को कभी समझ नहीं आएगी। ये दर्द, गुस्सा वे नहीं समझ पाएंगे जिनके लिए सहना दिनचर्या नहीं है। मारी की फ़िल्म ये दिखाने में कामयाब हुई है।
और पढ़ें : सावित्री सिस्टर्स एट आज़ादी कूच : सामाजिक न्याय का संघर्ष दिखाती डॉक्यूमेंट्री
बस के तोड़ने से संघर्ष प्रशासनिक व्यवस्था के साथ शुरू हो जाता है। एक पूरे दलितों के गांव को कोई भी बस कंडक्टर ‘वेस्टलैंड’ बोलकर चला जाता है, फिल्म में एक सीन में आप ये देख सकते हैं तो किसी पर असर नहीं होता लेकिन जब वही ‘सरकारी संपत्ति’ तोड़ दी जाती है जो ऊंची जाति और वर्ग से आते लोगों के लिए मौजूद ही नहीं थी तब भी मुद्दा बस का तोड़ना बनता है, लोगों की परेशानी नहीं। पुलिस से लेकर डीएम तक इस घटनाक्रम में शामिल होते हैं। आईपीएस अपने हिसाब से केस देखता है। बस क्योंकि प्राइवेट थी, कंपनी का मालिक केस वापस ले लेता है और बस चलाने का वादा भी करता है लेकिन गांव में उच्च जाति के आईपीएस के आने पर पहले से उसे किसी के द्वारा कुर्सी की ना पूछा जाना और गांव के किसान मुखिया द्वारा अपनी पगड़ी ना उतारना आईपीएस को अपने जातिगत अहंकार पर चोट लगा। उसे लगा किसी नीची जाति से आने वाले व्यक्ति की उसके सामने सर उठाने की हिम्मत भी कैसे हुई। यहीं से मुद्दा ना बस जैसी ज़रूरत को लोगों तक पहुंचाने का रहा, ना बस के टूटने का बल्कि उच्च जाति के अफसर के ‘जातीय अहंकार’ का मुद्दा बना। आईपाएस कुछ बुजुर्गों को थाने बुलाता है और एक-एक कर नाम पूछता है जब वे अपना नाम दुर्योधन, आदि आदि बताते हैं तब उनसे उनके पिता का नाम पूछता है और कहता है. “नीची जाति के लोग राजा कब से बन गए, ये और राजा बनेंगे?” वह पुलिस अफसर बुजुर्गों को लट्ठ लेकर इतना मारता है जब तक वे अधमरे नहीं हो जाते। इस सीन को देखते हुए तमाम पुलिस कस्टडी में दलितों की हत्याएं याद आ जाती हैं। पिछली साल ही तमिलनाडु में लॉकडाउन के दौरान फिनिक्स और पीजयाराज की हत्या सामने आ खड़ी होती है।
आख़िर के चित्रों में कर्णन का सीआरपीएफ में चयनित होने पर पूरे गांव में पुलिस, डीएम आदि से लड़ने की खातिर तैयारियां करते वक़्त भी खुशी होती है कि किसी की सरकारी नौकरी लगी। आज भी जब कोई दलित ऊंची पद पर पहुंचता है तो सिर्फ उसका घर नहीं पूरा गांव, मोहल्ला, इलाका खुश होता है इसीलिए कि उन्हें लगता है कोई तो इस संघर्ष के बूते कहीं अच्छी जगह पहुंचा है जिनमें उनका हिस्सा भी बराबर रूप से शामिल है। जो सवर्ण उनके लिए कुछ नहीं करते, उनकी लोग उस जगह पहुंचेंगे तो कुछ तो फायदा लोगों और इलाके वालों को होगा।
और पढ़ें : छकड़ा ड्राइवर्स : पुरुषों को चुनौती देती कच्छ की महिला ऑटो ड्राइवर्स की कहानी
आख़िर के चित्रों में कर्णन का सीआरपीएफ में चयनित होने पर पूरे गांव में पुलिस, डीएम आदि से लड़ने की खातिर तैयारियां करते वक़्त भी खुशी होती है कि किसी की सरकारी नौकरी लगी। आज भी जब कोई दलित ऊंची पद पर पहुंचता है तो सिर्फ उसका घर नहीं पूरा गांव, मोहल्ला, इलाका खुश होता है इसीलिए कि उन्हें लगता है कोई तो इस संघर्ष के बूते कहीं अच्छी जगह पहुंचा है जिनमें उनका हिस्सा भी बराबर रूप से शामिल है।
मारी ये नस पकड़ पाए हैं कि जाति के बहाने बात ‘अस्मिता’ और ‘गरिमा’ की है। आखिर में आईपीएस जब पूरे गांव वालों के साथ मौत का खेल खेलता है और कर्णन नौकरी पर जाने के बीच रास्ते से लौटता है तब सब अधमरे पड़े गांववाले अफसर को जान से मार देने की गुहार लगाते हैं। वे लोग जो एक आदमी, व्यवस्था के कारण मर रहे हैं तब आप उनसे बहुत आदर्श व्यवहार करने की उम्मीद भी नहीं कर सकते। आप क्या नैतिकता की बात करेंगे इन लोगों से जिन्हें सुविधाएं नहीं दी गईं, सुविधाएं मांगी तो गालियां दी गईं, उनकी हत्याएं की गईं। इसीलिए जिन भी आलोचकों का ये तर्क है कि फिल्म हिंसा को दिखा रही है और ये प्रभाव दर्शकों को नकारात्मक बनाएगा उन्हें ये जान लेने की जरूरत है कि ये पूरी जाति व्यवस्था ही अमानवीय है इसकी वजह से रोज़ मौत, अपमान का शिकार हो रहे लोगों से आप हर स्थिति में अहिंसात्मक होने की उम्मीद नहीं कर सकते जब आप शोषक की हिंसा का विरोध नहीं करते। आखिर में कर्णन आईपीएस को मारते हुए कहता है “हमारी ज़रूरतें, हमारी कमियां तुम लोगों के लिए मायने नहीं रखतीं लेकिन हम तुम्हारे सामने कैसे खड़े होते हैं वो मायने रखता है।” कर्णन को सज़ा मिलती है, दस साल बाद गांव का अपना एक बस स्टॉप बनता है, इस बीच गांव के बहुत लोगों को मार दिया जाता है या पुलिस हिंसा का शिकार हो वे अपनी जान गंवा देते हैं। वे मूलभूत सुविधा जो दो दिन में बिना किसी संघर्ष के बना दिया जाना चाहिए था उसे बनवाने में तमाम जानें चली जाती हैं, एक आदमी की दस साल जीवन से चली जाती हैं। तब जाकर सालों बाद बस स्टॉप बनता है।
यही है हकीकत, ये सिर्फ एक पटकथा भर नहीं थी, उस वर्ग का जीवन था जो मूलभूत सुविधाओं के लिए रोज़ लड़ता है। उनका जीवन संघर्ष ‘सर्वाइवल’ का संघर्ष बन चुका है और वे इस संघर्ष को हिम्मत से लड़ रहे हैं। जहां आर्टिकल 15 जैसी फिल्में सवर्णों के ‘सेवियर कॉम्प्लेक्स’ का नमूना भर हैं वहां कर्णन, कर्णन जैसी फिल्में हाशिये पर गए समुदाय के प्रतिरोध को बहुत ईमानदारी से रखती हुई नजर आईं हैं। ये संघर्ष दिखाना इस वक़्त की ज़रूरत है ताकि बाकी लोग ये समझें कि इतने वर्षों में वंचित वर्ग ने लड़ना सीखा है और वे अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ लेंगे उन्हें किसी ‘सवर्ण मसीहा’ की ज़रूरत नहीं है जो बाद में उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर ले। लोगों का ये भ्रम कि दलित बेचारे बने रहने के शौकीन हैं अब तक इसीलिए नहीं टूटा है क्योंकि प्रतिरोध की कहानियां उनके सामने लाई नहीं गई हैं। ऐसी कहानियां सामने लाना पूरे वर्ग में संघर्ष करने की हिम्मत को पैदा भी करती हैं और सवर्णों के उन्हीं के द्वारा गड़े गए तमाम मिथकों को तोड़ती भी हैं। मारी, धनुष और बाकी सभी कलाकारों को बहुत हिम्मत कि उन्होंने उस वर्ग के जीवन को सिनेमा में जस की तस उतार दिया जिसकी कल्पना बॉलीवुड कभी कर नहीं सकता। फिल्म मुद्दे के साथ तो न्याय करती ही है, उसके गानें, पर्दे के पीछे का संगीत भी सराहनीय है। फ़िल्म के हर विशेष सीन को लेकर मैंने बात नहीं की है, आप ख़ुद फिल्म देख सकते हैं ओटीटी प्लेटफॉर्म पर मौजूद है। कुल मिला कर ये फिल्में सिनेमा में सबल्टर्न पर्सपेक्टिव लाने की शुरुआत कर चुकी हैं।
और पढ़ें : द ग्रेट इंडियन किचन : घर के चूल्हे में झोंक दी गई औरतों की कहानी
तस्वीर साभार : The News Minute
बढिया लिखा शिवांगी। तमिल फिल्मों में बड़े कैनवास और बड़े स्टार के साथ ‘बाहुबली’ के बरक्स दलित नायक की यह स्थापना महत्वपूर्ण है। सेल्वेराज की पिछली फिल्म भी जातिवाद को उसके असल रूप में दिखाने में सक्षम है। रजनीकांत की ‘काला’ में भी उत्पीड़ितों के प्रतिरोध को सक्षम नायक द्वारा प्रस्तुत किया गया है। हिंदी फिल्मों में जातीय उत्पीड़न को गरीब के मार्क्सवादी आवरण में लपेटकर जातीय उत्पीड़न को हमेशा छुपाया गया है। कर्णन ने हाशिये के समाज की बात फ़िल्म के माध्यम से कहने का बड़ा द्वार खोल दिया है।
– पीयूष